दीप से झरता लोक आस्थाओं का मनोविज्ञान - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 26 अक्टूबर 2011

दीप से झरता लोक आस्थाओं का मनोविज्ञान


कहते हैं लोक कल्याण के निमित्त वैयक्तिक सुखों का त्याग करने वाला ही लोकनायक होता है। भारतीय जन मानस में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के लोक नायक रूप का भी यही आधार है, जिनके विषय में गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा कि ‘‘ राजीव लोचन राम चले, तजि बाप को राज बटाऊ की नाई।’’ कैसी अद्भुत निस्पृहता, अनासक्ति और विलक्षण त्याग है। तभी तो 14 वर्ष वन में बिताकर सीता लक्ष्मण सहित राम का भव्य अभिनन्दन किया था अयोध्यावासियों ने। घी के दीपों की मालिका से नहा उठी थी साकेतपुरी। यह अभिनन्दन उस पौरुषपूर्ण चरित्र का भी था जिसने मर्यादा (सीता) हरण की कुचेष्टा करने वाली आसुरी अहंकारमयी वृत्ति (रावण) का नाश करके न केवल कुल गौरव और पुंसत्व की रक्षा की अपितु सात्विकता (देवों व ऋषियों) एवं अध्यात्म चेतना को अभय संरक्षण प्रदान किया। लोक ऐसे ही जन नायकत्व को मन-प्राणों से स्वीकार करता और अपनी श्रद्धा निवेदित करता है। श्रद्धा भी कैसी? युग पर युग बीत कए पर वह आज भी अक्षुण्ण है दीपोत्सव के रूप में।

कुछ लोगों को एक बात आज भी खटकती सी है। वन से लौटने पर भाव-भीने भव्य स्वागत की बात तो समझ में आती है किन्तु सामान्य से धोबी की बात पर अग्निपरीक्षा में खरी उतरी गृहलक्ष्मी का त्याग करने वाले राम के स्वागत की उस परंपरा को ढोते रहने और लक्ष्मी पूजन के विधान का औचित्य और संगति क्या है? पर वे भूलते हैं कि सीता का त्याग करने वाले प्रजापालक राम और जानकी की स्वर्ण प्रतिमा को पार्श्व में स्थापित कर अश्वमेघ संपन्न करने वाले प्रिया कातर राम दोनों पृथक-पृथक निष्ठावान चरित्र हैं।

जब हम प्रतीक रूप में राम राज्य स्थापित होने की बात करते हैं तो एक सुख समृद्धिपूर्ण, आधि व्याधि रहित, निर्भय, निर्द्वन्द्व, सौहार्दपूर्ण साम्राज्य की कल्पना करते ही हैं, लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा और जनमत के सम्मान की दृष्टि से किसी भी लोकतंत्र से अधिक गरिमापूर्ण शासन व्यवस्था की भी बात करते हैं। हम उस जनमत की बात करते हैं जो अति सामान्य होते हुए भी अपना अभिमत व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र है, जिस पर बड़ी से बड़ी सत्ता का कोई दबाव नहीं है, साथ ही हम उस व्यवस्था की बात करते हैं जिसमें जन भावनाओं (मान्यताओं) का समादर हो, भले वह मान्यता ज्ञान, पाण्डित्य और विवेक पर आधारित न होकर परम्परागत विश्वासों से ही क्यों न जुड़ी हो। निश्चय ही ऐसी व्यवस्था त्याग के मूल्यों पर आधारित एक लोक कल्याणकारी व्यवस्था होगी जिसमें नेतृत्व स्वयं सारे खतरे और कष्ट सहकर भी जनता को सुखी और संतुष्ट रखने का उत्तरदायी होगा।

दीपों के इस ज्योति पर्व में लोक आस्था, परंपरा और मनोविज्ञान का अनूठा समन्वय दिखाई देता है। जिस उत्सव की पृष्ठभूमि मनाने का आधार ही इतना संगत, इतना मनोवैज्ञानिक हो उसका हर विधान तार्किक संगति न रखता हो ऐसा विश्वास नहीं किया जा सकता। दीपावली और लक्ष्मीपूजन की संगति का आधार भी कुछ न कुछ तो होगा ही। विष्णुप्रिया लक्ष्मी के सिया रूप का इससे बड़ा सम्मान और क्या होगा कि उसके साधन विहीन निर्वासित प्रिय ने उसकी मर्यादा की रक्षा हेतु न केवल शक्ति साधना की अपितु हर कसौटी पर स्वयं को प्रमाणित कर के दिखाया। गृह लक्ष्मी के सम्मान की रक्षा जो न कर सके, राज लक्ष्मी की मर्यादा वह क्या खाक़ बचा पाएगा। संभवतः यही कारण है कि लोक मानस एक ओर ऐसे नायक के स्वागत में दीपमालिका सजाता है तो दूसरी ओर लक्ष्मी पूजन कर नारी की गरिमा को अपनी आस्था निवेदित करता है।

बहुत स्वाभाविक है कि जब हम किसी संपूज्य व्यक्ति के प्रति अपनी श्रद्धा निवेदित करते हैं तो उसकी कृपा की आकांक्षा भी रखते हैं। लक्ष्मी पूजन के साथ सुख समृद्धि की कामना का भी आधार यही है। यह बात अलग है कि कितनों के जीवन में वह कामना फलीभूत होती है परन्तु आशा न केवल मनुष्य को कर्म की ओर प्रवृत्त करती है वरन उसके जीवन में उत्साह का संचार करती है। ज्योति पर्व के आगमन से 15 दिन पूर्व से ही जो स्वच्छता अभियान शुरू होता है उसका संदर्भ केवल घर एवं परिवेशीय स्वच्छता तक ही सीमित नहीं हैं। मालिन्य एवं विकृति रहित वातावरण ही लक्ष्मी को भाता है, यह विश्वास कहीं न कहीं शक्ति का संचार करता है और हम गंदगी के प्रत्येक चिह्न को धो पोंछकर साफ करने में तत्पर हो जाते हैं फिर चाहे वह बाहर की गंदगी हो या अंदर की।

धन तेरस का आगमन होते ही सज जाते हैं बाजार स्वर्ण, रजत आभूषण हों या काँसे, पीतल और स्टील के बर्तन। व्यक्ति अपनी सामर्थ्य के अनुसार कुछ न कुछ खरीद कर घर लाता है और यहीं से मानो वह लक्ष्मी के आगमन का सिलसिला शगुन के रूप में शुरू करता है। मान्यता के अनुसार धन तेरस से दीपावली तक सारा कारोबार नकद का होता है। उधारी नहीं चलती और इस तरह देने और पाने का हिसाब बराबर होता चलता है। धन तेरस की रात को ही यम का दीया निकालने की परंपरा है। पुराने दीप में तेल बाती के साथ कौड़ी एवं पैसा डालकर सोने से पूर्व गृहणियां यह दीपक घर से दूर किसी वृक्ष के नीचे अथवा चौराहे पर रख आती हैं। मनोविज्ञान यह संकेतित करता है कि अनिष्ट रूपी यम की काली छाया घर से दूर ही रहे तो बेहतर। और जब इतने से भी संतोष नहीं होता तो चौदस की भोर में पुराने सूप, पंखे या थाली बजाकर दलिद्दर (दारिद्रय) भगाती हैं - ‘लक्ष्मी आए दलिद्दर भागे’ का मौन जाप करती हुई सामर्थ्य भर दूर खदेड़ आती हैं वे दारिद्रय को। इसके बाद निश्ंिचत मना होकर लक्ष्मी स्वागत के विधान में तत्पर होती हैं गृहणियाँ। संतुष्टि का कितना सुंदर मनः उपचार है यह सब। अपने तई पूरी तरह सचेष्ट और तत्पर होकर लक्ष्मी की प्रतीक्षा क्या यह संकेत नहीं करती कि हाथ पर हाथ धरे बैठकर केवल भाग्य भरोसे आगमन नहीं होता लक्ष्मी का। पहले कर्म है, भाग्य का स्थान दूसरा है।

जगमगा उठती है अमावस की काली रात। कोई कोना अँधेरा न रहे। तुलसी चौरे से देव पितरों तक सबके नाम अर्पित होता है दीप और खिल उठता है घर आँगन। पूजा गृह से उठता अगरु धूम सारे वातावरण को पावन करता प्रतीत होता है। अंधेरे घर की तरह, हताश निराश मन भी अंधकार पूर्ण होता है अतः उसे भी आशा की जोत से आलोकित करना जरूरी है। कर्म, चैतन्य और आस्था के द्वार खोल प्रतीक्षातुर जन मानस बहुत कुछ अनकहा कहता रहा है साल दर साल युग-युग से।




---डॉ. निर्मला शर्मा---
गंधमादन, 9-ए, माही सरोवर नगर,
बाँसवाड़ा-327001 (राजस्थान)
सम्पर्क: 9413947430

2 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति…………दीप मोहब्बत का जलाओ तो कोई बात बने
नफ़रतों को दिल से मिटाओ तो कोई बात बने
हर चेहरे पर तबस्सुम खिलाओ तो कोई बात बने
हर पेट मे अनाज पहुँचाओ तो कोई बात बने
भ्रष्टाचार आतंक से आज़ाद कराओ तो कोई बात बने
प्रेम सौहार्द भरा हिन्दुस्तान फिर से बनाओ तो कोई बात बने
इस दीवाली प्रीत के दीप जलाओ तो कोई बात बने

आपको और आपके परिवार को दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनायें।

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
कृपया पधारें
चर्चा मंच-680:चर्चाकार-दिलबाग विर्क