आज पुण्यतिथि पर - रासबिहारी लाल मंडल (१८६६-१९१८) - मिथिला के यादव शेर.
रासबिहारी लाल मंडल |
अगर बिहार के आधुनिक इतिहास में पिछड़े वर्ग के और यादव समाज के प्रथम क्रन्तिकारी व्यकित्व का उल्लेख किया जाये तो मुरहो एस्टेट के ज़मींदार रासबिहारी लाल मंडल का ही नाम आयेगा. ज़मींदार होते हुए भी स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रीय और कांग्रेस पार्टी में बिहार से स्थापना सदस्यों में एक रासबिहारी बाबू का साथ सुरेन्द्र नाथ बनर्जी, बिपिन चन्द्र पाल, सच्चिदानंद सिन्हा जैसे प्रमुख नेताओं से था. १९०८ से १९१८ तक प्रदेश कांग्रेस कमिटी और ए आई सी सी के बिहार से निर्वाचित सदस्य थे. १९११ में गोप जातीय महासभा (बाद में यादव महासभा) की स्थापना के साथ, यादवों के लिए जनेऊ धारण आन्दोलन और १९१७ में मोंटेग-चेल्म्फोर्ड समिति के समक्ष यादवों के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करते हुए, वायसरॉय चेल्म्फोर्ड को परंपरागत 'सलामी'देने की जगह उनसे हाथ मिलते हुए जब यादवों के लिए नए राजनैतिक सुधारों में उचित स्थान और सेना में यादवों के लिए रेजिमेंट की मांग की तो वे भी दंग रह गए. १९११ सम्राट जार्ज पंचम के हिंदुस्तान में ताजपोशी के दरबार में प्रतिष्टित जगह से शामिल हो कर वह उन अँगरेज़ अफसरों को भी दंग कर दिए जिनके विरुद्ध वे वर्षों से कानूनी लड़ाई लड़ रहे थे. कांग्रेस के अधिवेशन में वे सबसे पहले पूर्ण स्वराज्य की मांग की.
कलकत्ता से छपने वाली हिंदुस्तान का तत्कालीन प्रतिष्टित अंग्रेजी दैनिक अमृता बाज़ार पत्रिका ने रासबिहारी लाल मंडल की अदम्य साहस और अभूतपूर्व निर्भीकता की प्रशंसा की और अनेक लेख और सम्पादकीय लिखी, और दरभंगा महराज ने उन्हें 'मिथिला का शेर' कह कर संबोधित किया . २७ अप्रैल, १९०८ के सम्पादकीय में अमृता बाज़ार पत्रिका ने कलकत्ता उच्च न्यायलय के उस आदेश पर विस्तृत टिप्पणी की थी जिसमें भागलपुर के जिला पदाधिकारी लायल के रासबिहारी बाबू के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित व्यवहार को देखते हुए उनके विरुद्ध सभी मामले को दरभंगा हस्तांतरित कर दिया था. रासबिहारी बाबू के वकील जैक्सन ने न्यायलय को बताया था की चूँकि तत्कालीन जिला पदाधिकारी सीरीज को १९०२ में मधेपुरा में अदालत और डाक बंगले के निर्माण के लिए काफी भूमि देने के बाद भी, लायब्रेरी के लिए एक बड़े भूखंड (जहाँ अभी रासबिहारी विद्यालय स्थित है) मांगे जाने पर उसे देने से इनकार कर दिया, तब से स्थानीय प्रशासन और पुलिस के निशाने पर आ गए हैं, और उनके विरुद्ध १०० से अधिक मामले दर्ज किये गए हैं, और लगभग एक दर्ज़न बार बचने के लिए उन्हें उच्च न्यायालय के शरण में आना पड़ा है. यह संयोग नहीं है की गिरफ्तार होने से पहले ज़मानत (जिसे आज कल अग्रिम ज़मानत कहते हैं, और जो आम है) हिंदुस्तान के काननों के इतिहास में सबसे पहले रासबिहारी लाल मंडल को ही दिया गया.
रासबिहारी लाल मंडल का जन्म मुरहो, मधेपुरा के ज़मींदार रघुबर दयाल मंडल के एकमात्र पुत्र के रूप में हुआ. बचपन में ही उनके माँ-बाप की मृत्यु हो गयी, और तब रानीपट्टी में उनकी नानी ने उनका लालन-पालन किया. रासबिहारी बाबू ११वी तक पढ़े, और हिंदी, उर्दू, मैथिलि, फारसी, संस्कृत, अंग्रेजी और फ्रेंच भाषा का उन्हें ज्ञान था, और हर रोज़ मुरहो में उनके पलंग के बगल में तीन-चार अख़बार उनके पढने के लिए रखा रहता था.
रासबिहारी लाल मंडल ने १९११ में यादव जाति के उत्थान के लिए मुरहो, मधेपुरा (बिहार) में गोप जातीय महासभा की स्थापना की. इस महान कार्य में उनका साथ दिया बांकीपुर(पटना) के श्रीयुत्त केशवलाल जी, देवकुमार प्रसादजी, संतदास जी वकील, सीताराम जी, मेवा लाल जी, दसहरा दरभंगा के नन्द लाल राय जी,गोरखपुर के रामनारायण राउत जी, छपरा के शिवनंदन जी वकील, जमुना प्रसाद जी, जौनपुर के फेकूराम जी, सलिग्रामी मुंगेर के रघुनन्दन प्रसाद मुख़्तार जी, हजारीबाग से स्वय्म्भर दासजी, लखनऊ के कन्हैय्यालाल जी, मुरहो, मधेपुरा से ब्रिज बिहारी लाल मंडल जी, रानीपट्टी से शिवनंदन प्रसाद मंडल जी एवं मधेपुरा से लक्ष्मीनारायण मंडल जी. रासबिहारी बाबू ने अपने स्वागत भाषण में इस सभा के उद्देश्य को रेखांकित किया - सनातनधर्मपरायणता, विद्याप्रचार, विवाह विषयक संशोधन, सामाजिक आचरण संसोधन, कृषि, गोरक्ष वान्निज्यो - व्रती, पारस्परिक सम्मलेन, मद्य निषेध तथा अनुचित व्यय निषेध. यह महासभा के संस्थापकों की दूरदृष्टी ही थी जिसके अनुरूप उन्होंने शिक्षा प्रसार को महत्व दिया और स्कूल कालेजों की स्थापना के साथ साथ यादव छात्र- छात्राओं के लिए होस्टलों एवं वजीफे क इंतजाम करने का प्रयास किया जिससे डाक्टर, इंजीनियर बनने के अलावे आई ए एस व आई पी एस भी बनें. प्रत्येक जिले में यादव भवन व संगठन बनाये जाने और 'गोपाल-मित्र' मासिक पत्रिका का मुद्रण का लक्ष्य रखा गया. अपने भाषण के समाप्ति में उन्होंने कहा -" उत्थवयं , जागृतवयं,जोक्तवयं भूति कर्माषु. भावोष्यतीत्येव मनः कृत्वा सततमव्यथै. - उठाना चाहिए जागना चाहिए सत कार्यों में सदैव प्रवृत रहना चाहिए और ढृढ़ विश्वास रखना चहिये की सफलता हमें अवश्य प्राप्त होगी."
इस प्रयास पर रासबिहारी बाबू के पौत्र न्यायमूर्ति राजेश्वर प्रसाद मंडल ( पटना उच्च न्यायलय के प्रथम यादव न्यायाधीश) ने कहा था - " अंग्रेजों ने शिक्षा को मंदिर मस्जिद से निकाल कर जनता की झोली में डाल दिया. किन्तु धर्म के द्वारा स्थापित बंधनों पर सबसे बड़ा अघात तब लगा जब बाबू रासबिहारी लाल मंडल ने आवाज़ दी की तोड़ डालों इन बंधनों को, मिटा दो शोषण के इस रीति-रिवाजों को. ब्राहमण ग्रंथों के अनुसार शुद्र समुदाय की श्राद्ध क्रिया को एक माह तक चलनी चाहिए. जनेऊ संस्कार के हकदार ऊँची जाति के ही लोग हुआ करते थे. मंडल जी ने इन पाबंदियों को तोड़ डाला. इनके प्रोत्साहन पर जन समुदाय बारह दिनों में ही श्राद्ध क्रम करने लगे. जेनू धारण करने लगे. एक नया संस्कार जग उठा, एक नया जागरण हुआ." बाद में समाजशास्त्रियों ने इसे "संस्कृतिकरण" कहा. वैसे इसका उच्च जातियों द्वारा पुरजोर विरोध भी हुआ. मुंगेर जिला में यादवों और भुमियारों के बीच संघर्ष हुआ. दरभंगा में तो जनेऊ धारण करने वाले यादवों को दाग दिया गया था.
परन्तु रासबिहारी बाबू अपने प्रयास में आगे बढ़ते रहे. उन्होंने ब्राह्मो-समाज के साथ मिलकर ग्राम-सुधार कार्यक्रम भी चलाये. सांप्रदायिक ईर्ष्या-द्वेष, जाति-व्यवस्था, अस्पृश्यता,सती-प्रथा, बाल-विवाह, अपव्यय और ऋण, निरक्षरता और मद्यपान, जसी सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध कई सभाएं की.
कांग्रेस के १९१८ के कलकत्ता अधिवेशन के दौरान वे बीमार पद गए और ५१ वर्ष की अल्प-आयु में बनारस में २५-२६ अगस्त,१९१८ को रासबिहारी लाल मंडल का निधन हो गया. यह संयोग ही था की उसी दिन बनारस में ही रासबिहारी बाबू के सबे छोटे पुत्र बी पी मंडल का जन्म हुआ. रासबिहारी लाल मंडल के बड़े पुत्र भुब्नेश्वरी प्रसाद मंडल थे जो १९२४ में बिहार-उड़ीसा विधान परिषद् के सदस्य थे, तथा १९४८ में अपने मृत्यु तक भागलपुर लोकल बोर्ड (जिला परिषद्) के अध्यक्ष थे. दूसरे पुत्र कमलेश्वरी प्रसाद मंडल आज़ादी की लड़ाई में जय प्रकाश बाबू वगैरह के साथ गिरफ्तार हुए थे और हजारीबाग सेन्ट्रल जेल में थे और १९३७ में बिहार विधान परिषद् के सदस्य चुने गए.
बी पी मंडल १९५२ में मधेपुरा विधान सभा से सदस्य चुने गए. १९६२ पुनः चुने गए और १९६७ में मधेपुरा से लोक सभा सदस्य चुने गए. १९६५ में मधेपुरा क्षेत्र के पामा गाँव में हरिजनों पर सवर्णों एवं पुलिस द्वारा अत्याचार पर वे विधानसभा में गरजते हुए कांग्रेस को छोड़ सोशिअलिस्ट पार्टी में आ चुके थे. बड़े नाटकीय राजनैतिक उतार-चढ़ाव के बाद १ फ़रवरी,१९६८ में बिहार के पहले यादव मुख्यमंत्री बने.
फेसबुक मित्र सूरज यादव के वाल से साभार.
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