समय-चक्र की गतिशीलता के कारण प्रकृति की स्वतः परिवर्तन प्रक्रिया के परिणामस्वरूप हम वर्ष 2013 के समय-काल मे पहुंच चुके हैं। आईये, नव-वर्ष मे हम सब मिल कर वास्तविकता के धरातल पर कुछ चिन्तन करें। समय व्यतीत होते हुये, आने वाला ’कल’ पुनः वर्ष-परिवर्तन का होगा। आज हम आने वाले ’कल’ पर चर्चा करते हैं। बीता हुआ ’कल’ कभी हमारा आने वाला ’कल’ था, फिर वह ’आज’ बना और अब उसने बीते हुये ’कल’ का स्वरूप ले लिया। हम यह देख रहे हैं कि निरन्तर समय खिसक रहा हैं लेकिन उसके आभास से हम बिमुख हैं और परिवर्तन के परिणाम को ही देख पाते हैं। हम सभी आने वाले ’कल’ की योजना के तानाबाना मे उलझे हैं। जिस किसी को भी देखों, वह ’कल’ के लिये ही चिन्तित है कि ’कल’ क्या होगा ? धन, दौलत, गाड़ी, मकान, इज्जत, प्रतिष्ठा जो कुछ भी हमारे सामने है, इन सबकी ’कल’ के लिये ही चिन्ता है। समस्त सुख-दुख, सम्बन्ध, झगड़े फसाद ’कल’ की सोच पर ही निर्भर है। ’कल’ के कारण ही तनाव, ’कल’ के कारण ही स्वस्थ्य रहना है, ’कल’ के कारण ही सुख की चिन्ता, अर्थात् सब कुछ ’कल’ पर ही निर्भर है। ऐसा प्रकट हो रहा है कि प्रत्येक आदमी ’कल’ के लिये ही जीवित है, वह ’कल’ बनकर ही जी रहा है। हम ’आज’ का आनन्द और सुख का अनुभव करने के बजाय सिर्फ ’कल’ के कारण चिन्तित हैं, तनाव में हैं, दुख में हैं और योजनाएं बना-बनाकर उन्हें पूर्ण करने की चिन्ता में है।
प्रत्येक व्यक्ति का ’कल’ उसका अपना व्यक्तिगत और पृथक पृथक हैं। किसी का ’कल’ उसकी अपनी निजी भविष्य की कोई उपलब्धि तक सीमित है, किसी का ’कल’ उसका अपना सम्पूर्ण जीवन तक सीमित हैं, किसी का ’कल’ उसके परिवार की अगली एक पीढ़ी तक सीमित हैं और किसी का ’कल’ उसके परिवार की अगली सात पीढि़यों तक का उसने फैलाकर रक्खा हैं। जिसका जितना लम्बा विशाल ’कल’ है, वह उतना ही अधिक चिन्तित हैं। किसी का ’कल’ इतिहास बनने की इच्छा मे निहित हैं और वह कुछ समय तक अखबारों व किताबों मे छपना चाहता हैं तो उसे और भी अधिक चिन्ता हैं। फिर उसके बाद वह भी विस्मृत हो जायेगा। प्रश्न यह भी है कि क्या अपने हाथ मे भविष्य रूपी ’कल’ है ? भविष्य रूपी ’कल’ यदि अपनी इच्छानुसार होता तो समस्त कार्य शत-प्रतिशत सफल होते रहते, इस संसार को जीत लिया होता और हम अमर होते।
यह सब कहने का तत्पर्य मेरा यह है कि हमे अपना ’कल’ अत्यन्त अल्प-समय का सुनिश्चित करना चाहियें और इस निर्धारण मे सन्तुष्टि व ठहराव का होना आवश्यक है। अपने ’कल’ की सीमा को निर्धारित करने के पहले यह ध्यान अवश्य रखना है कि हम से पहले सभी जो इस दुनिया से जा चुके हैं, उनमे से अधिकांश ने किसी न किसी रूप मे अपने-अपने ’कल’ की लम्बाई को सुनिश्चित किया होगा, लेकिन इस दुनिया से जाना उन्हे भी पड़ा। जाने के बाद उनकी चर्चा और नाम छपाई कुछ समय तक तो हुई, लेकिन इसका क्या विश्वास कि उन्हे अपनी चर्चा, वैभव और नाम छपाई का आनन्द मिला हो। परन्तु इतना अवश्य है कि वे ’कल’ बनने की उत्कृष्ट इच्छा के कारण पूर्ण-सन्तुष्टि और आनन्द से नही जी पाये होेंगे। यह बात अलग है कि कुछ लोग ऐसे भी होते है जो सिर्फ ’आज’ बनकर जीते हैं और अपने कार्योंं व उपलब्धियों के कारण वे आने वाले ’कल’ की चर्चा के विषय स्वतः ही बन जाते हैं। इसलिये यदि सुख, आनन्द और संतुष्टि के साथ जीना है, तो पहले यह कोशिश करना हैं कि सिर्फ ’आज’ बनकर जिया जाये। मानसिक तौर पर यह प्रयास शत-प्रतिशत यदि संम्भव नही हो पा रहा है तो अपने ’कल’ की लम्बाई को कम से कम सुनिश्चित करना हैं और जब उस निर्धारित ’कल’ तक की व्यवस्था हमारी योजना के अनुसार हो जाये तथा यह संतुष्टि हो जाये कि बस, हो गया हमारे द्वारा निर्धारित ’कल’ की लम्बाई का इन्तजाम तो उसके बाद निश्चिन्त होकर सिर्फ आज बनकर मस्ती के साथ जीना हैं। मेरे यह सब कहने का उद्देश्य कतई ऐसा नही है कि हम भविष्य की योजनायें नही बनायें अथवा अपने कर्म से विमुख हो जायें। वस्तुतः हमे योजनाओं के फलीभूत की चिन्ता नही करना है। हमे ’आज’ सिर्फ कर्म बन कर जीना है, हमारे हाथ मे ’आज’ सिर्फ कर्म मात्र है तथा कर्म करने मे ही पुरूषार्थ हैं। पुरूषार्थ सिर्फ सकारात्मक कर्म मे ही है।
श्री मद्भगवत गीता मे भगवान श्री कृष्ण ने कर्मयोग के सिद्धान्त को बताया है कि कर्म करों और फल की इच्छा मे आसक्ति मत रखो। कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ।। ( श्री मद्भगवत गीता -अध्यााय 2, श्लोक 47) भगवान कह रहे हैं कि तेरा अधिकार स्वधर्मरूप कर्म करने मे ही है, कर्मफल मे नही। तूं कर्मफल का हेतु कभी न हो और कर्म न करने मे भी तेरी आसक्ति न हो। इस श्लोक मे भगवान श्री कृष्ण ने स्पष्टतः तीन संदेश दिये हैं - 1. स्वधर्मरूप कर्म, अर्थात स्वधर्म से तात्पर्य है स्वभाविक, नैसर्गिक कर्म। ऐसा कर्म नही जो अस्वाभाविक हो, धर्म के विपरीत हो, उसे नही करना है। 2. अधिकार सिर्फ कर्म पर है तथा फल पर आपका कोई अधिकार नही है। 3. अपना स्वभाव ऐसा नही बनाना है कि कर्म नही करने मे आसक्ति हो जाये। अर्थात कर्महीन नही होना, आलसी होकर बैठे नही रहना। निरन्तर कर्म करते रहो। इसी संदर्भ मे हमे श्री मद्भगवत गीता मे भगवान श्री कृष्ण के उस संदेश को भी याद करना होगा जिसमे उन्होने कहा है - ।। न कर्मणामनारम्भन्नैष्कम्र्य पुरूषोऽश्नुते । न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधि गच्छति।।(श्री मद्भगवत गीता -अध्यााय 3, श्लोक 4) यहां भगवान श्री कृष्ण कह रहे है कि केवल कर्म न करने से ही कर्मबन्धन से मुक्ति नही हो जाती है और न केवल सन्यास से कृतार्थता होती है। अर्थात मनुष्य न तो कर्मो के नही करने से निष्कर्मता को प्राप्त होता है और न कर्मो को त्यागने से भगवत् साक्षात्कार रूप सिद्धि को प्राप्त होता है। भगवान ने स्पष्टतः निर्देश दिया है कि यदि कोई सन्यासी भी है तो वह केवल इस कारण से मोक्ष को प्राप्त नही हो सकता कि वह कोई कर्म नही कर रहा है और इस कारण वह कर्म-बन्धन से मुक्त हो गया है। अर्थात कर्म नही करने मात्र से कर्म-बन्धन समाप्त नही हो जाता। कर्म करने मे असक्ति का भाव और कर्म नही करने मे भी नही करने का असक्ति भाव, भगवान ने इन दोनों को ही उचित नही माना है। मुख्य आशय तो असक्ति से है अर्थात कर्म का फल जानने मे आसक्ति और कर्म नही करने मे भी असक्ति यदि है तो बंधन से मुक्त नही हुआ जा सकता। जब आसक्ति नही होगी तो ’’निष्कर्मता’’ की स्थिति बनती है और इस अवस्था को प्राप्त हुये पुरूष के कर्म, अकर्म हो जाते हैं, इस अवस्था को ’’निष्कर्मता’’ कहते हैं।
---राजेन्द्र तिवारी---
छोटा बाजार दतिया
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