अपने देश में चर्चा व बहस के कई मुद्दे हैं। मोदी प्रधानमंत्री बनने योग्य हैं या नहीं, या फिर शाहरुख खान की फिल्म चेन्नई एक्सप्रेस देखने लायक है नहीं। महेन्द्र सिंह धौनी भारतीय किक्रेट टीम के सर्वकालिक श्रेष्ठ कप्तान हैं या नहीं। लेकिन अपने देश में गरीब का स्वास्थ्य भी क्या बहस या सामाजिक चिंता का विषय है। जो न तो अखबार पढ़ते हैं, और न टेलीविजन देख पाते हैं। मोदी , शाहरूख या धौनी की सफलता - असफलता भी जिनके लिए ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है। इस बात का ख्याल मुझे तब आया, जब मैने एक युवा रिक्शा चालक को दो मासूम बच्चों के बीच बिलखते देखा।
दरअसल उसकी 26 साल की पत्नी को मुंह का कैंसर हो गया था। वह अपने बच्चों को परिचित के घर छोड़ कर पत्नी को डाक्टर दिखाने बड़े शहर गया था। डाक्टर के खुलासे के बाद मानो उस पर वज्रपात सा हुआ। हाथ - पैर जोड़ कर उसने चिकित्सक से ऐसी व्यवस्था करने की अपील की, जिससे उसकी पत्नी बस जैसे भी हो बच जाए। इसके लिए उसने जीवटता के साथ हर लड़ाई लड़ने की बात भी कही। लेकिन मैं मन ही मन सोच रहा था कि क्या सचमुच यह इतनी आसान लड़ाई है। नामचीन हस्तियों में मनीषा कोइराला , युवराज सिंह व लीसा रे आदि का उदाहरण देते हुए हम उन्हें असाध्य रोग से लड़ने वाला बहादुर करार देते हैं। लेकिन यह भूल जाते हैं कि वे सभी साधन संपन्न लोग हैं। रोग से लड़ने के लिए महीनों का एकांतवास और लाखों रुपए खर्च करने की उनकी औकात है। लेकिन क्या गरीब या मध्यवर्ग के लिए भी यह इतना ही आसान है। यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि कभी राजरोग कहे जाने वाले असाध्य रोग आज गरीब व मेहनतकश वर्ग को भी बड़ी तेजी से अपनी जद में ले रहा है।
जिसकी कल्पना ही एक परिवार को हिला कर रख देता है। उस बेबस - लाचार रिक्शा चालक की पीड़ा से सहानुभूति दिखाते हुए बात निकली, तो कुछ लोगों ने सरकार की ओर से मिलने वाली चंद सुविधाओं की बात की। जिसमें सबसे महत्वपूर्ण रेलवे द्वारा आरक्षित टिकटों पर दिया जाने वाला 25 प्रतिशत छूट रहा। एड्स नियंत्रण व अन्य विषयों पर सेमिनार के लिए सरकार करोड़ों का बजट आवंटित करती है। लेकिन जानलेवा रोग की जद में आ चुके पीडि़त व उसके परिजनों की सहायता के लिए सरकारी योजनाएं अभी विचार के स्तर पर ही हैं। लेकिन सवाल अहम है कि इस छोटी सी सुविधा के सहारे रोज कमा कर खाने वाला कोई गरीब - असहाय इतनी बड़ी त्रासदी से आखिर कैसे लड़ सकता है। क्योंकि अपने प रिजन को जानलेवा रोग से बचाने के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाई के साथ ही उस पर खुद और परिवार का पेट भरने का दबाव भी रहता है। आखिर अपने देश व समाज में ऐसे मुद्दों पर चर्चा , विवाद और बहस क्यों नहीं होते।
तारकेश कुमार ओझा,
खड़गपुर ( प शिचम बंगाल)
लेखक दैनिक जागरण से जुड़े हैं।
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