जम्मू कश्मीर के किश्तवाड़ में पिछले महीने धर्म के नाम पर जिस प्रकार भावनाओं को भड़काया गया वह राज्य की छवि को धूमिल करने की एक गहरी साजिश थी। इसके पीछे सबसे बड़ा हाथ भले ही अराजकतत्वों का हो लेकिन इस मौके पर भी राजनीतिक दलों की अपनी अपनी रोटियां सेकना राज्य की जनता के साथ नाइंसाफी थी। हमारे देश को प्राचीन काल से ही सूफी संतों का केंद्र समझा जाता रहा है। विशेष रूप से जम्मू कश्मीर राज्य तो आज भी इश्वर की आराधना करने वाले, अल्लाह के वलियों की जमीन मानी जाती है। यहां की आबादियों, जंगलों और पहाड़ों पर उनके होने की छाप अक्सर देखी जाती है। यह वह केंद्र हैं जहां परेशान हाल लोग बिना किसी धर्म और संप्रदाय के भेदभाव किए बगैर आते हैं और इन सूफी संतों की दरगाह पर अपना हाल-ए-दिल बयां करते हैं। अपनी परेशानियां बतलाते हैं और इन बुजुर्गों के दरबार से एक मानसिक और रूहानी सुकून लेकर खुशी खुशी अपनी दुनिया में लौट जाते हैं। ऐसी ही दरगाहों और आसतनों की एक कड़ी के रूप में जम्मू के आरएसपूरा स्थित साईं कलां गांव में हरा पीर बाबा की दरगाह भी है। खास बात यह है कि इस दरगाह की सारी जिम्मेदारी हिंदू परिवार उठाते हैं। साईं कलां में लगभग 2000 परिवार आबाद हैं। जो 1947 के बटवारे के दौरान पाकिस्तान के सियालकोट और पाक अधिकृत कश्मीर के अन्य हिस्सों से भारत आए हैं।
हरा पीर बाबा का इतिहास कोई नहीं जानता है। वह कहां के रहने वाले थे, कहां से आए थे, किस वंश से संबद्ध थे, उनका परिवार था या नहीं वगैरह वगैरह। वैसे भी इनकी दर पर आने वालों को इन प्रश्नों से कोई सरोकार भी नहीं है और न ही किसी प्रकार रखने में रूचि भी है। उन्हें तो इस बात की खुशी मिलती है कि बाबा के दर पर आकर वह रूहानी सुकून पाते हैं और अपनी तकलीफ उनसे बयां करते हैं। वास्तविकता यह है कि इश्वर ने उनमें बीमार को स्वस्थ्य करने की शक्ति प्रदान की थी और वह कुपोषण के शिकार बच्चों को स्वस्थ्य कर दिया करते थे। आज भी लोग अपने कमजोर बच्चों को साथ यहां लाते हैं और दरगाह के करीब ही बहने वाली एक नदी में डुबकी लगवाते हैं। इस उम्मीद के साथ कि बाबा के आशिर्वाद से वह स्वस्थ्य हो जाएगा और उनकी झोली खाली नहीं लौटेगी। इलाक़े के पूर्व सरपंच बचन लाल कहते हैं कि ‘मैं पिछले कई दशकों से जम्मू और कश्मीर के अतिरिक्त पंजाब के दूर दराज़ इलाकों से भी लोगों को अपने बच्चों को यहां लाते और उनके स्वस्थ्य होने की दुआएं करते देख रहा हूँ।
आजादी के पूर्व इस इलाके में मुसलमान आबाद थे और वही इस दरगाह की देखभाल किया करते थे। परंतु 1947 के विभाजन और उसके परिणामस्वरूप होने वाले सांप्रदायिक दंगों के कारण जब यहां के मुसलमान स्थानांतरण करके पाकिस्तान चले गए तो इस दरगाह की देखभाल की जिम्मेदारी पाकिस्तान से यहां आने वाले हिंदुओं ने अपने सर ले ली। पाक अधिकृत कश्मीर से स्थानांतरण करके आने वाले अस्सी वर्षीय दयाल चंद कहते हैं ‘जब हम यहां पहुंचे तो कोई नहीं था क्योंकि पूरी मुसलमान आबादी यह इलाका छोड़कर जा चुकी थी। जब हम ने हरा पीर बाबा का मज़ार देखा तो हमने न केवल पूरी आस्था और आशा के साथ वहां जाना शुरू किया बल्कि हमने इसकी देखभाल का जिम्मा भी उठा लिया। इन लोगों को न केवल इस दरगाह से आस्था है बल्कि उन्हें विश्वास भी है कि इस सूफी संत की छाया में रहने के कारण वह कई प्रकार की विपदा से भी सुरक्षित हैं। दरगाह में आस्था रखने वाले एक और व्यक्ति कहते हैं ‘हम मुसलमान तो नहीं परंतु हमारा विश्वास है कि जब जब पाकिस्तान से इस इलाके में गोलीबारी होती है तो यह हरा बाबा के चरणों का प्रताप है जो हमें होने वाली हानि से सुरक्षित रखता है। इसलिए हम इस दरगाह का न केवल ध्यान रखते हैं बल्कि साल में दो बार धूम-धाम से इनका मेला अर्थात उर्स भी मनाते हैं। हालांकि हरा पीर बाबा के बारे में यह विचार है कि वह एक मुसलमान सूफी थे परंतु इस मज़ार की देखभाल और इसकी पवित्रता को बनाए रखने के लिए जो कमिटी गठित की गई है उसके सभी सदस्य हिंदू हैं। इस कमिटी के अध्यक्ष देवेंद्र सिंह गर्व के साथ कहते हैं ‘यह जगह सांप्रदायिक सौहार्द और प्राचीन धर्मनिरपेक्ष परंपरा का अनूठा प्रतीक है।‘ इस क्षेत्र में कम से कम तीन मंदिर हैं लेकिन साईं कला के निवासी जब भी अपनी फसलें बोते हैं या काटते हैं तो पहला नज़राना हरा पीर बाबा की मज़ार पर ही चढ़ाते हैं।
इस मज़ार की देखभाल करने वालों के पास ऐसा कोई लिखित प्रमाण नहीं मिलता है जिससे इसकी वास्तविकता का पता लग सके कि उनका संबंध किस सूफी संप्रदाय से है। इसके बावजूद यहां लोगों की एक बड़ी भीड़ दिखाई देती है। लोग इससे लाभांवित भी होते हैं या नहीं परंतु यहां आने वाले लोगों को भरोसा और इस मज़ार से उनकी आस्था देखने योग्य है। जहां एक तरफ कुछ लोग धर्म के नाम पर एक दूसरे को देखना तक पसंद नहीं करते, वहीं दूसरी ओर यहां आने वाले हरा पीर बाबा को धर्म तो नहीं मानते, फिर भी उनके विरोध में कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं है। वह उनके बारे में कुछ सुनना तो दूर, सोचना भी अपराध समझते हैं।
इसमें कोई शक़ नहीं कि हमारे देश में प्राचीन काल से ही सूफी संतों के मज़ारों और स्थानों ने विभिन्न धर्मों और समुदायों के लोगों को एक दूसरे के करीब लाने में मुख्य भूमिका निभाई है। प्रत्येक वर्ष जून के तीसरे सप्ताह में हरा पीर बाबा का उर्स बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इस वार्षिक उर्स मेला के अवसर पर आसपास के क्षेत्रों से करीब चालीस हजार लोग आते हैं और बाबा के दर पर घंटों बैठकर अपनी परेशानियां बयां करते हैं और दुआएं मांगते हैं। उन्हें विश्वास है कि इस दर से मांगने वाला खाली हाथ नहीं जाता है। चाहे वह किसी भी धर्म और आस्था में विश्वास रखने वाला हो। वर्षों से उनके इस विश्वास को धर्म के नाम पर लड़ाने वाले भी नहीं तोड़ पाए।
गुलज़ार अहमद बट
मो. 0969711178
(चरखा फीचर्स)
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