छत्तीसगढ सरकार ने अपनी छवि के अनुकूल ही आचरण करते हुए 1974 से खेले जा रहे हबीब तनवीर के अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त नाटक चरणदास चोर पर शनिवार 8 जुलाई से प्रतिबंध लगा दिया। मूलत: राजस्थानी लोककथा पर आधारित यह नाटक विजयदान देथा ने लिखा था जिसका नाम था फितरती चोर।
हबीब साहब ने इसे छत्तीसगढी भाषा, संस्कृति, लोक नाट्य और संगीत परंपरा में ढालने के क्रम में मूल नाटक की पटकथा और अदायगी में काफी परिवर्तन किए। चरनदास चोर अनेक दृष्टियों से एक समकालीन क्लासिक है। एक अदना सा चोर गुरु को दिए चार वचन-कि सोने की थाली में वह खाना नहीं खाएगा, कि अपने सम्मान में हाथी पर बैठ कर जुलूस में नहीं निकलेगा, राजा नहीं बनेगा और किसी राजकुमारी से विवाह नहीं करेगा के अलावा गुरु द्वारा दिलाई गई एक और कसम कि वह कभी झूठ नहीं बोलेगा, का पालन अंत तक करता है और इन्हीं वचनों को निभाने में उसकी जान चली जाती है।
चरनदास को कानून और व्यवस्था को चकमा देने की सारी हिकमतें आती हैं। वह बडे लोगों को चोरी का शिकार बनाता है। नाटक में चरनदास के माध्यम से सत्ता-व्यवस्था, प्रभुवर्गो और समाज के शासकवर्गीय दोहरे मानदंडों का खेल-खेल में मजे का भंडाफोड किया गया है। एक चोर व्यवस्था के मुकाबले ज्यादा इंसाफपसंद, ईमानदार और सच्चा निकलता है। जाहिर है कि यह नाटक लोककथा पर आधारित है, छत्तीसगढ में चल रहे संघर्षो पर नहीं। फिर सत्ता को इस नाटक से कैसा खतरा महसूस होने लगा?
यह नाटक तो 1974 में पहली बार खेला गया जब छत्तीसगढ राज्य के गठन तक की संभावना दूर दूर तक नहीं दिखती थीं। छत्तीसगढ के आज के तुमुल-संघर्षो की आहटें भी नहीं थीं। नाटक न जाने कितनी भाषाओं में अनुवाद कर खेला गया, देश और विदेश में खेला गया। 1975 में श्याम बेनेगल ने इस पर फिल्म भी बनाई। दरअसल क्लासिक की खासियत यही है कि वह अपने ऊपरी कथ्य से कहीं ज्यादा बडा अर्थ संप्रेषित करती है। अपने ऊपरी कथ्य, पात्र, देश-काल को लांघ कर बिल्कुल भिन्न युग-परिवेश में प्रासंगिक हो उठती है। क्यों महाभारत के तमाम द्वंद्व अलग अलग युग-परिवेश में बारंबार प्रासंगिक हो उठते हैं? फिर चरनदास चोर तो हबीब साहब के हाथों पूरी तरह छत्तीसगढी लोक संस्कृति में ही ढल गया। कहीं यह नाटक छत्तीसगढ राज्य बनने के बाद से से ही उस राजसत्ता के चरित्र को तो ध्वनित नहीं कर रहा, जो उस प्रदेश के सारे ही प्राकृतिक संसाधनों के कॉरपोरेट लुटेरों के पक्ष में आदिवासी जनता के खिलाफ युद्ध छेडे हुए है? कहीं यह नाटक दर्शकों और पाठकों के अवचेतन में दबे व्यवस्था विरोधी मूल्यों और आकांक्षाओं को वाणी तो नहीं दे रहा? कहीं यह नाटक अपनी क्लासिकीयता के चलते एक बिल्कुल अप्रत्याशित तरीके से आज के छत्तीसगढ की सता और लोक के बीच जारी संग्राम की व्यंजना तो नहीं कर करने लगा? यह सारे ही सवाल इस प्रतिबंध के साथ उठने स्वाभाविक हैं।
वे लोग भोले हैं जो छत्तीसगढ सरकार की इस दलील को मान बैठे हैं कि सतनामी गुरु बालदास की आपत्तियों के मद्देनजर यह प्रतिबंध लगाया गया। बालदास जी की आपत्तियां अगर कुछ महत्व रखती हैं, तो उन पर नया थियेटर के साथियों से बातचीत भी की जा सकती थी और आपत्तियों को दूर किया जा सकता था।
संस्कृतिकर्मियों और सतनामी धर्मगुरुओं की पंचायत भी बैठ सकती थी, हल निकल सकता था। लेकिन सरकार की मंशा कुछ और थी। याद आता है कि किस तरह दलित अकादमी नामक एक संस्था ने कुछ साल पहले प्रेमचंद की रंगभूमि की प्रतियां जलाई थीं। बाद में बहुतेरे दलित लेखकों ने इसकी निंदा करते हुए इस बात का पर्दाफाश किया कि यह सब संघ संप्रदाय द्वारा प्रायोजित था। धार्मिक और जातिगत अस्मिताओं का दमन और विद्वेष के लिए इस्तेमाल संघ-भाजपा की जानी-पहचानी रणनीति है। खुद सरकार और बालदास के बयानों पर ध्यान दिया जाए तो सतनामी संप्रदाय ने इस नाटक पर 2004 से पहले कोई आपत्ति दर्ज नहीं कराई थी, जबकि नाटक 1974 से खेला जा रहा था और बहुधा इसके अभिनेता भी सतनामी संप्रदाय से आते थे।
छत्तीसगढ सरकार जबरदस्त तरीके से दुरंगी चालें खेल रही है। एक ओर तो प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान के जरिए मुख्यमंत्री और संस्कृतिमंत्री के साथ तमाम जनवादी और प्रगतिशील संस्कृतिकर्मियों को बैठाया और दूसरी ओर महीना खत्म होते न होते चरनदास चोर को प्रतिबंधित कर दिया। जाहिर है कि बालदास जी की चिट्ठी प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान से पहले की घटना है और प्रतिबंध का मन भी सरकार इस सम्मान समारोह से पहले ही बना चुकी थी। सम्मान समारोह का तात्कालिक उपयोग यह हुआ कि जिन हलकों से प्रतिबंध के विरोध की आवाज उठ सकती थी उन्हें इस आयोजन के जरिए डिफेंसिव पर डाल दिया गया। उन्हें सरकार ने इस स्थिति में ला छोडा है कि वे अगर इसका विरोध करें भी तो उस विरोध की कोई विश्वसनीयता लोगों की निगाह में न रह जाए।
हबीब साहब के नाटकों पर संघ-भाजपा का हमला कोई नया नहीं है। अपने जीते जी उन्होंने इसका बहादुरी से सामना किया था। महावीर अग्रवाल को दिए एक साक्षात्कार में हबीब साहब ने कहा, नया थियेटर की दूसरी चुनौतियों में प्रमुख है, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के खिलाफ कलात्मक संग्राम। आप जानते हैं, फासिज्म का ही दूसरा नाम है सांस्कृतिक राष्ट्रवाद।
नए छत्तीसगढ राज्य में 29 जून 2003 से 22 जुलाई 2003 तक पोंगवा पंडित और जिन लहौर नई देख्या वो जन्मई नई के 25 मंचन हुए। नाटक का केवल विरोध ही नहीं हुआ, वरन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सोची-समझी रणनीति के तहत हमले किए गए हैं. संस्कृति के क्षेत्र में अपनी लाठी का प्रयोग संघ परिवार समय समय पर करता रहा है। हमले की शुरुआत 16 अगस्त 2003 को ग्वालियर में हुई। फिर 18 अगस्त को होशंगाबाद में, 19 अगस्त को सिवनी में, 20 अगस्त को बालाघाट और 21 अगस्त को मंदला सहित अलग अलग शहरों में विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और आर.एस.एस. के लोग उपद्रव करते रहे। 24 अगस्त 2003 को भोपाल के संस्कृतिकर्मियों ने भाजपा प्रदेश कार्यालय के ठीक सामने पोंगवा पंडित पर संवाद करने की कोशिश की। वहां हमारे पोस्टर्स, बैनर छीनकर आग के हवाले कर दिए गए। गाली गलौज के साथ ईंट-पत्थर फेंकने का काम फासीवादी ताकतों ने किया। मैनें उन्हें बारंबार समझाने की कोशिश की कि पोंगवा पंडित कोई नया नाटक नहीं है। नाटक बहुत पुराना है और पिछले 70-75 वर्षो से लगातार खेला जा रहा है। 1930 के आसपास छत्तीसगढ के दो ग्रामीण अभिनेताओं ने इसे सबसे पहले जमादारिन के नाम से प्रस्तुत किया था. [सापेक्ष-47, पृष्ठ 38-39]।
क्या पता था हबीब साहब को कि उनकी मृत्यु के कुछ ही दिनों बाद कोई अपनों में से ही गोरखपुर जाकर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के कसीदे पढ आएगा। छायानट पत्रिका, अप्रैल, 2003 के अंक 102 में मोनिका तनवीर ने महावीर अग्रवाल को दिए इंटरव्यू में कहा, 1970 में इंद्रलोक सभा नाटक हमने तैयार किया तो जनसंघ के कुछ गुंडों ने हबीब पर हमला किया और एक मुसलमान की पत्नी होने के कारण मुझे भी बहुत धमकाया गया। 26 सितम्बर, 2004 को दि हिंदू को दिए एक इंटरव्यू में हबीब साहब ने एक और वाकया बयान किया है। कहा, महज दो हफ्ते पहले हरिभूमि नामक रायपुर के एक दैनिक ने पूरे दो पन्ने बहादुर कलारिन पर निकाले और मेरे खिलाफ तमाम तरह के आरोप लगाए। यह नाटक ईडिपल समस्या पर आधारित एक लोक नाट्य है। हजारों छत्तीसगढी नर-नारियों ने इसे दत्तचित्त होकर देखा, जबकि मुझे आशंका थी कि वे अगम्यागमन [इंसेस्ट] की थीम को ठीक समझेंगे कि नहीं, लेकिन भाजपा के दो सांसदों ने आपत्ति की कि मैनें यह थीम क्यों उठाई। मैनें कहा कि ईडिपल काम्पलेक्स हमारे लोक ज्ञान का हिस्सा है। वे बोले कि यदि ऐसा है भी, तो पूरी दुनिया में इसका ढिंढोरा पीटने की क्या जरूरत है? इस बात का मेरे पास कोई जवाब नहीं था। दरअसल चरनदास चोर पर प्रतिबंध को भाजपा सरकारों की सांस्कृतिक राष्ट्रवादी मुहिम का ही हिस्सा समझा जाना चाहिए, बहाना चाहे जो लिया गया हो। किसी भी लोकतंत्र में से फर्जी आधारों पर अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंटने की इजाजत नहीं दी जा सकती।
मैं व्यक्तिगत तौर पर और अपने संगठन जन संस्कृति मंच की ओर से सभी जनपक्षधर ताकतों से अपील करूंगा कि चरनदास चोर पर प्रतिबंध पर चौतरफा विरोध दर्ज कराएं।
3 टिप्पणियां:
chor hain to aisa hi karna tha.
mera matlab chor logon ke baare me likha hai to choro ko to bura lagna hi tha na..
इस नाटक के खेलने पर प्रतिबन्ध नही लगा है केवल पुस्तक वाचन सप्ताह के अंतर्गत इसके वाचन पर स्कूलों मे प्रतिबन्ध लगा था । उस समय की पोस्ट देखें सन्दर्भ के लिये ।
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