राजस्थान में भी यह प्रकाश पर्व पारम्परिक ढंग से हर्षोल्लासपूर्वक मनाया जाता है। लेकिन प्रदेश के आदिवासी अंचल वागड़ क्षेत्र में दीपावली को जिस ढंग से मनाया जाता है वह अपने आप में बेमिसाल है वहीं आंचलिक संस्कृति के वैशिष्ट्य को भी प्रतिबिम्बित करता है। आम तौर पर वणिक वर्ग का त्यौहार माने जाने से लक्ष्मी पूजा का परिपाटी इस पर्व के साथ गहनता से जुड़ी हुई है लेकिन आदिवासी इलाके के कृषि प्रधान होने से यहाँ पशुधन को भी लक्ष्मी की ही तरह मानकर इस पर्व को पशु पूजा के पर्व रूप में मान्यता प्राप्त है।
यहाँ सभी वर्गों में दीपावली मनाने की अलग-अलग परम्पराएँ व रीति-रिवाज हैं लेकिन आदिवासी बहुल क्षेत्र होने के कारण यहाँ इस पर्व के दौरान आदिवासियों के तौर-तरीके ख़ास तौर पर दृष्टव्य हैं। आदिवासियों में इस पर्व को लेकर अनेक जन कथाएँ हैं तथापि सबका सार इतना ही है कि घर-परिवार की अन्न, पशु, धन आदि बहुविध सम्पदा की अभिवृद्धि करने की दृष्टि से धन की देवी लक्ष्मी की उपासना का पर्व है। इस पर्व के पीछे लोक कहावतंे भी कोई कम नहीं हैं।
आदिवासी क्षेत्रों में दीपावली की तैयारियां दस पन्द्रह दिन पहले से ही शुरू हो जाती हैं। लोग-बाग अपने घर की लिपाई-पुताई तथा रंग-रोगन कर साज-सज्जा में जुट जाते हैं। बहुप्रतीक्षित दीपावली का दिन आते ही वनांचल के लोग बडे़ सवेरे उठकर अपने गाय, बछड़े भैंस या अन्य तमाम पशुओं को गांव के पास के नदी-नालों या तालाब कुओं पर ले जाकर पानी से अच्छी तरह नहलाते हैं व साफ कपड़े से शरीर पोंछ कर अपने पशुओं को रमजी या भांति-भांति के रंगों की वार्निश से रंग-बिरंगे कर देते हैं। पशुओं के सिंग, खुर पर रंग के अलावा सारे ही बदन पर छापे लगाकर आकर्षक बना देते हैं।
पशुपालक इस दिन अपने पशुओं की खास तरीके से पूजा करते हैं उनके गले में घुंघरु बांधते हैं। इस दिन गाय की पूजा का ये लोग विशेष सिद्धिदायक मानते हैं। मान्यता चली आ रही है कि गाय की पूजा करने से घर में सम्पन्नता का निवास रहता है। पशुओं को इस दिन विशेष अन्न आदि खिलाये जाते हैं। इस दिन पशुओं की आरोग्य की दृष्टि से प्रायःतर पशुपालक गले में बालों के गुच्छे या ऊन का बनी रस्सी भगवान का नाम लेकर पहना देते हैं।
प्रचलित परम्परा के अनुसार गन्ने के टुकड़े काटकर इस पर रूई या कपड़ों की बत्तियाँ बना कर एक मशाल का निर्माण किया जाता है जिसे स्थानीय भाषा में ‘‘मेरिया’’ कहते हैं। इस पर तेल डालकर प्रज्ज्वलित करने के बाद सबसे पहले ये लोग समूहों में पास के मंदिर में जाकर देवता को दिखाते हैं तथा जोर-जोर से ‘मेरिया’ शब्द उच्चारित कर देवदर्शन करते हैं। इन मेरियों को पशुपालक अपने पशुओं को भी दर्शाते हैं व उच्चारित करते हैं-
‘‘आळ दीवारी काळ दिवारी,
राजा रामचन्द्रजी नु मेरीयू
कारी गाय धोरी गाय,
राजा रामचन्द्रजी नु मेरीयू
ग्रामीण स्त्री-पुरुष भी इस दिन बड़े सवेरे नहा-धोकर अपने पारम्परिक परिधानों में सुसज्जित होकर घर के बाहर निकल जाते हैं और अपने-अपने पशुओं को लेकर हाँकते हुए गांव के बाहर नियत मैदान पर एकत्रित होते हैं, अपने पशुओं को उन्मुक्त भ्रमण के लिए छोड़ देते हैं व पूँछ पकड़ कर दौड़ाते हुए पशु क्रीड़ा का जी भर कर मजा लेते हैं। इस दिन ग्वालों को अन्न-वस्त्र देकर सम्मानित किये जाने की परिपाटी भी बरकरार है। लोग घरों में इस दिन विशेष पकवान बनाते हैं। अंचल में कहीं-कहीं कई लोग इस दिन मुर्गो व बकरों की बलि चढ़ाते हैं व प्रसाद ग्रहण करते है। इस दिन शराब का प्रचलन भी देखा गया है।
ग्राम्य युवतियां भी आभूषण धारण कर अपने परिजनों के घर जाकर दीपावली की शुभकामनाएं व्यक्त करती हैं। बांसवाड़ा जिले के अबापुरा, डूंगरा, सज्जनगढ़ व बड़ली पाड़ा इलाकों मंे दीपावली पर अच्छे खासे मेले भरते हैं। गांवों में पशुओं के आने-जाने के रास्ते में अभिमंत्रित रस्सी बांध देते हैं जिसके नीचे से होकर रोजाना पशु गुजरते हों। ऐसी मान्यता है कि इससे गांव के पशुओं को रोग व महामारी की सम्भावना नहीं रहती है।
---डॉ. दीपक आचार्य---
महालक्ष्मी चौक, बाँसवाड़ा - 327001
(राजस्थान)
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