धन्वन्तरि प्रणीत आयुर्वेद को वेद के रूप में मान्यता प्राप्त है जो जीवनयापन की आदर्श आचार संहिता से ले कर रोगों की उत्पत्ति, कारण, निदान और अमरत्व प्राप्ति के नुस्खों की वैज्ञानिक प्रक्रियाओं भरी महान पद्धति है। आदिकाल से प्रकृति मातृ रूप में अपने पुत्रों का पालन-पोषण करती आ रही है। प्रकृति के इन्हीं रहस्यों को समझकर व नैसर्गिक उपहारों का प्रयोग कर मानव युगों-युगों से विभिन्न बीमारियों व कष्टों से त्राण पाता आया है। जड़ी-बूटियांे व वनस्पतियों में समाहित अचूक प्रभावों व महान सामर्थ्य की जानकारी रखने व इनका प्रयोग करने में राजस्थान के दक्षिणांचलीय वनवासी माहिर रहे हैं।
हालांकि इसके जानकारों में पूर्वापेक्षा कमी आई है तथापि आज भी वागड़ के वनवासी भगवान धन्वन्तरि के सच्चे उपासक के रूप में आयुर्वेद के मौलिक स्वरूप व प्रकृति से निकटता को बरकरार रखे हुए परम्परागत उपचारों को बड़ी कुशलता और पूरी प्रभावशीलता के साथ अमल में ला रहे हैं। वनों, पहाड़ों और बीहड़ जंगलों में नदियों के किनारे युगों से जीते हुए यहां के लोगों का प्रकृति से प्रगाढ़ एवं अटूट रिश्ता कायम है। प्रकृति भी अपने पुत्रों के लिए बहुआयामी नैसर्गिक सम्पदाओं का खजाना मुक्त हस्त से लुटाती रही है। बड़ी से बड़ी बीमारी को जड़ी-बूटियों का प्रयोग कर भगा देने की महारथ रखने वाले ये वनवासी वर्तमान चिकित्सकों से कहीं उन्नीस नहीं हैं।
बीमारियों के सृजन के पीछे छिपी मानसिक धारणाओं और सूक्ष्म अभिव्यक्ति से स्थूल रूप में दैहिक कष्ट की प्राप्ति के मनोचिकित्सा विज्ञान की मौलिक जानकारी के लिए भले ही उन्होंने कहीं से कोई प्रशिक्षण न पाया हो मगर परम्परा से चले आ रहे अपने उपचारों में वे इस मनः धरातल की अच्छी पकड़ रखते हैं। आज के वैद्यों या डॉक्टरों की तरह इनके उपचार में दवाइयों की लम्बी-चौड़ी फेहरिश्त या दवा विक्रेताओं से कमीशन का कोई चक्कर नहीं होता और न ही ऊंची फीस। बल्कि इनका उपचार बहुत सस्ता, सुलभ होता है। वे जो भी दवा देते हैं वह आस-पास की ताजा उखाड़ी गई जड़ी-बूटियों का रस, जड़, पत्ते या फल-फूल के रूप में खुद के द्वारा तत्काल तैयार की हुई होती है और अपना अचूक प्रभाव छोड़ती है।
वनाँचल की परम्परागत चिकित्सा पद्धति में मनुष्य के संयम को भी अच्छी तरह स्थान दिया गया है। इनमें शब्द के महापरिवर्तनकारी प्रभाव के रूप में वानस्पतिक चिकित्सा के साथ मंत्रों का विशेष स्थान है इनके मंत्रा प्रकृति के साथ तादात्म्य रखने वाले होते हैं। जिनमें पंच महाभूतों के साथ पर्यावरणीय प्रभावों से जुड़े देवी-देवीताओं की आण (सौगन्ध), लोक देवताओं का स्मरण और शाब्दिक लयबद्धता अत्यन्त प्रभाव दिखाते हैं। इनके मंत्रा घटनारोधी, कुप्रभावों के उन्मूलन व पंचतत्वों के विभक्तिकरण से कष्ट निवारण को सम्बल देने वाले होते हैं। इस दृष्टि से ये शाबर मंत्रों की तरह ही हुआ करते हैं जिनमें आंचलिक बोली का आत्मविश्वासपूर्ण प्रयोग किया जाता है। कृषि और पशुपालन यहां के लोगों की आजीविका के परम्परागत मूलाधार रहे हैं, इस कारण यहां की पारम्परिक वानस्पतिक चिकित्सा पद्धति मुख्य रूप से खेत-फसलों, पशुपालन एवं मानव चिकित्सा के रूप में विभक्त है। इन तीनों ही प्रमुख घटकों से संबंधित चिकित्सा में वनांचल के लोग दक्ष हैं। इनकी कैसी भी बीमारी हो, जड़ी-बूटियों, मनः चिकित्सा एवं मंत्रा चिकित्सा के जरिये ये इनके निवारण में सक्षम हैं।
यहां स्पर्श चिकित्सा का सर्वाधिक प्रभाव रहा है। कष्ट से त्रास्त रोगी के शरीर पर हाथ फिरा कर, चाकू या तलवार की नोक फिराकर आन्तरिक पीड़ा को सूक्ष्मीकृत व सघन कर बाहर निकालने की इनकी अपनी विशिष्ट पद्धति है जो मनोरोगियों पर सर्वाधिक कारगर रही है। किसी भी चिकित्सा महाविद्यालय की शक्ल तक से रूबरू नहीं होने वाले हड्डियों के ऐसे-ऐसे जानकार आज भी पर्वतीय अंचल में हैं जो हड्डी चटख जाने या आर्थोपैडिक संबंधी दिक्कतों को ठीक करने में जाने कितने वर्षों से लगे हुए हैं। वनांचल में शिवाम्बु चिकित्सा भी परम्परागत पद्धति का हिस्सा रही है, वहीं गोमूत्रा एवं पंचगव्य चिकित्सा सदियों से अपने अचूक प्रभावों के साथ विद्यमान रही है। आज जरूरत इस बात की है कि वनांचल की इन परम्परागत चिकित्सा पद्धतियों पर व्यापक शोध कर जड़ी-बूटियों के संरक्षण, उनकी पहचान तथा प्रभावों का प्रचार- प्रसार कर इस लुप्त होती विरासत का संरक्षण-संवर्धन किया जाए ताकि धन्वन्तरि के आदि उपासकों की लोक चिकित्सा अक्षुण्ण बनी रह सके।
---डॉ. दीपक आचार्य---
महालक्ष्मी चौक, बाँसवाड़ा - 327001
(राजस्थान)
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