वनवासी संस्कृति अपने भीतर अनेकानेक रंगों और रसों को समाविष्ट किए हुए हैं। इसका हर पहलू जहां चरम आनंदायक है वहीं कलात्मकता से परिपूर्ण। वनवासी संस्कृति में नृत्यों, लोकवाद्यों, उत्सवों, मेलों, पर्व त्योहारों और सामाजिक रीति-रिवाजों, रहन-सहन, मेहमानवाज़ी, और सभी प्रकार के आयोजनों में विलक्षणताएँ विद्यमान हैं। आज भी अपनी इन विशिष्ट परम्पराओं को वनवासी बरकरार रखे हुए अभावों के बावजूद मस्ती के साथ जीवनयापन कर रहे हैं। दीपावली इनका प्रमुख त्योहार है जो सामाजिक, धार्मिक एवं आह्लादकारी आयोजनों के अलावा कला की दृृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। दीवाली की तैयारियां इनके टापरों-घरों में काफी दिन पहले से ही शुरू हो जाती हैं।
इस पर्व पर ख़ासकर गृहसज्जा पर विशेष ध्यान दिया जाता है। सदियों से चली आ रही गृहसज्जा की मौलिक कला ने ही आज का यह सफर तय किया है। यहां के वनवासियों में शादी ब्याह, होली-दीवाली आदि पर घर-आंगन को लीप पोतकर दीवारों, घरों में भांति-भांति के आकर्षक चित्र बनाये जाते हैं। लेकिन दीवाली पर कला की अभिव्यक्ति का ज्यादा ही असर वाग्वर प्रदेश में यहां वहां दिखाई देता है जो वनवासियों की कला प्रियता को स्पष्ट इंगित करता है। दीपावली के आगमन की खुशी में घर की साफ-सफाई की जाती है और काली मिट्टी से घर-आँगन लीपा जाता है। कपूआ, खड़ी, चूना, रंगों आदि से पुताई की जाती है। इसके बाद घर की दीवारों व आँगन को सजाने का काम शुरू होता है। प्रकृति के बीच रहने वाले वनवासियों के लिए घर की दीवारें और आँगन ही कैनवास होता है और पेड़-पौधों की टहनियों से बनाई गई डण्डी ही कूची का काम करती है।
चित्रकला महाविद्यालय और प्रशिक्षण शालाओं से दूर जंगलों में जीवन बिताने वाले वनवासी के लिए तो प्रकृति के विभिन्न कारक और उसका मौलिक चिन्तन ही चित्र बनाने का प्लेटफार्म होता है। भांति-भांति के रंगों को मिलाकर तैयार होता है इनका रंगकर्म। इनके लिए आधुनिक संसार की बजाय प्रकृति का मौलिक स्वरूप एवं आस-पास का जीवन अभिव्यक्त होता है इन चित्रों के माध्यम से। कला के कहीं शाश्वत दर्शन हो सकते हैं तो वह वनवासियों के टापरे ही हैं। कई वनवासियों के हाथ तो हर त्योहार पर लगातार चित्रकारिता करते हुए अनुभवी होकर इतने सधे हुए होते हैं कि इनके बनाये चित्रों पर मंत्रमुग्ध हुए बगैर नहीं रहा जा सकता। इनके विषयों में जंगल, देवी-देवता, ऋषि-मुनि, स्वस्तिक, सूर्य-चन्द्र विभिन्न यंत्रों की तरह आकृतियां, पशु-पक्षी जिनमें ज्यादातर मोर, गाय, बैल बनाये जाते हैं। इसके अलावा टापरा-मकान, खेत, नाव, पेड़-पौधे, और वह सब कुछ होता है जो प्रकृति से सीधा जुड़ा हुआ है।
दीवाली पर खासकर दीप श्रृंखलाओं, फुलझड़ियों, वेवण-वेवाई आदि के प्रतीकात्मक चित्र बनाते हैं। जिस घर में शादी के बाद पहली दीवाली मन रही होती है वहां बनने वाले इस प्रकार के चित्रों का अन्दाज की कुछ निराला होता है। सिरा बावज़ियों के स्थानकों एवं भगतों के घरों पर दीवाली पर धार्मिक चित्र बने होते हैं व वहां सफेद रंग के बड़े-बड़े झण्डे लगाये जाते हैं। कई बार तो इस तरह की आकृतियों का निर्माण होता है मानों प्राचीन काल के किन्हीं यंत्रों का निर्माण किया गया हो।
आधुनिक पर्यावरण चेतना का संदेश देने वाले इन चित्रों में जिस तरह से मकान की आकृतियां बनाई जाती हैं उसके पास फुलवारी, बंग-बगीचा, पेड़-पौधे, कुआ, नहर आदि सब कुछ होता है जो पर्यावरण की रक्षा के लिए जरूरी है। सौहार्द और प्रेम का संदेश भी इन चित्रों में कूट-कूट कर भरा होता है, अधिकांश चित्रों में दो या दो से अधिक व्यक्तियों को एक दूसरे का हाथ थामे दिखाया जाता है वहीं स्वस्तिक और ‘‘¬’’ तथा श्रीराम, गुरुजी आदि के माध्यम से धार्मिक प्रतीकों के प्रति अगाध श्रद्धा अभिव्यक्त की जाती है। आज भी उदयपुर संभाग के बांसवाड़ा, डूंगरपुर, कुशलगढ, सिरोही, गुजरात के पंचमहल, ़ मालवा के झाबुआ, थान्दला आदि वनवासी बहुत क्षेत्रों में यह कला जीवन्त बनी हुई है और मनुष्य जाति को प्रकृति के करीब रहने का शाश्वत संदेश सुना रही है।
(डॉ. दीपक आचार्य)
महालक्ष्मी चौक, बाँसवाड़ा - 327001
(राजस्थान)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें