सदियों से रूप का आकर्षण मानव मन को मोहित करता रहा है। नैसर्गिक सौन्दर्य भरी प्रकृति के फूल-पत्तों, तितलियों, पखेरुओं, कल-कल बहती सरिताओं का हो चाहे मनुष्य के तन का। रूप के पाश से आबद्ध हो मन-प्राण खीचें चले आते हैं। मानव मात्र में रूपवान बनने-दिखने की चिरन्तन अभिलाषा के साथ ही रूप सौन्दर्य के प्रति पारम्परिक एवं सहज स्वाभाविक आकर्षण रहा है। वनवासियों में स्वाभाविक सौन्दर्य, ओज और लावण्य नैसर्गिक वरदान है। वनाँचल सुघड़ एवं सबल देहयष्टि प्रदान करता है।
दीपावली से ठीक एक दिन पूर्व वनांचल के लोगों के लिए रूप निखार का वार्षिक पर्व होता है। रूप चौदस के दिन न केवल घर परिवेश बल्कि स्वयं का भी रूप निखारने का यत्न किया जाता है। इस दिन सौन्दर्य निखार की प्राचीन संस्कृति एवं परम्परा के दर्शन रूप चौदस की सार्थकता को भली प्रकार अभिव्यक्त करते हैं। दक्षिणांचल के लोगों में सौन्दर्य एवं रूप के प्रति पिपासा किसी भी प्रकार से कम नहीं कही जा सकती। वे किसी उद्यान में सायास पल्लवित किए पुष्पों की तरह नहीं है अपितु समग्र प्रकृति के आँगन में हिरणों की तरह कुलाँचे भरते हुए प्रकृति से ही इन्द्रधनुषी रंग सहेज कर रूपश्री से भरे पूरे होते हैं।
प्रकृति सामीप्य एवं मनः सौन्दर्य से कोसों दूर भागता आज का समाज जाने किन-किन किस्मों के श्रृंगार प्रसाधनों पर बेहिसाब धन खर्च कर खूबसूरत दिखने का स्वाँग रच रहा है, ऐसे में वनांचल के लोग परम्परागत सौन्दर्य निखार संसाधनों का प्रयोग कर आज भी इनकी अर्थवत्ता को बरकरार रखे हुए अनकहे ही ढेरों संदेश सुना रहे हैं। यहाँ के लोग अपना रूप निखारने में नदी-नालों, झरनों व नहरों के किनारे या किसी जलाशय के तट पर बैठकर सूरज की रोशनी में रूप निखार का यत्न करते हैं। आधुनिक समाज की मनः विकृतियों से मुक्त वनांचल के लोग मनः सौन्दर्य के साथ-साथ प्रकृति में रमे हुए हैं और यही उनकी देहयष्टि के सौन्दर्यशाली होने का एक कारण भी है।
आम तौर पर साबुन, क्रीम, शैम्पू या ऐसी ही सामग्री की बजाय पर्वतीय अंचल के नर-नारियों के लिए छिपा हुआ रूप निखारने में मिट्टी (स्थानीय व मुलतानी), हल्दी, उबटन, पीठी, अरीठा, दहीं, दूध, छाछ, मलाई आदि सहज सुलभ एवं असरकारी रसायनों का प्रयोग करते हैं। नदी-नाले, तालाब, या किसी बावड़ी की सीढ़ियों पर, नहरों के किनारे बैठी ग्राम्य तरुणियां जब कोपरिये (कवेलू का खुरदरा टुकड़ा) या सूखे गलकों के रेशों से रगड़-रगड़ कर अपनी एड़ियों का सौन्दर्य निखारती हैं, तब हमें कविवर भारतेन्दु हरिशचन्द्र की ये पंक्तियां याद आ जाती हैं- ‘‘कहऊ सुन्दरी नहावत।’’
शहरीकरण के दौर में गली -कूचों तक खुलते जा रहे ब्यूटी पॉर्लरों से निखरने वाला सौन्दर्य यहां के नैसर्गिक एवं सहज सुलभ संसाधनों से प्रकट होने वाले सौन्दर्य की तुलना में कहीं नहीं ठहरता। परम्परागत रूप निखार पद्धतियों में न धन का व्यय, न बार बार का झंझट और न प्रसाधनों से पैदा होने वाले खतरे। रूप के साथ आभूषणों का सनातन रिश्ता रहा है। रूप की लावण्यमय प्रतिमाएँ जब सर पर बोर, नाक में नथ, गले मेें हाँसली, कमर में कन्दोरा, कानों में कुण्डल/बालियाँ, भाल पर टिकड़ी, टिपकियों वाली, ओढ़नी/साड़ी, हाथों में चूड़ियां, पाँवों में तोड़े पायजेब/ कड़े पहन वनांचल की युवतियाँ जब हिरनियों की तरह कुलाँचे भरती विचरती हैं तब लगता है कामदेव भी इनके आगे नृत्य कर रहा हो। अनकहे ही प्रकृति से रूप निखारने वाले वनांचल के लोग हमें यही संदेश दे रहे हैं कि परंपरागत सहज सुलभ नैसर्गिक तरीकों से निहारा गया रूप ब्यूटी पॉर्लरों के महंगे प्रसाधनों से प्राप्त कृत्रिम रूप से कहीं भी उन्नीस नहीं है।
(डॉ. दीपक आचार्य)
महालक्ष्मी चौक, बाँसवाड़ा - 327001
(राजस्थान)
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