एक मजबूत लोकपाल की कवायद भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए है, लेकिन सरकार के अब तक के तौर-तरीकों से लगता नहीं कि वह देश को कोई सशक्त लोकपाल दे पाएगी। पिछले साल के मुकाबले भ्रष्टतम् देशों की सूची में इस वर्ष भारत सात पायदान और ऊपर चढ़ गया है। इसकी पुष्टि ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की ताजा रिपोर्ट से हो रही है, जो इस बात का सुबूत है कि भ्रष्टाचार से लड़ने की हमारी नीयत में कहीं न कहीं खोट है। गांधीवादी नेता अन्ना के आंदोलन के शंखनाद से यूपीए सरकार एक बार फिर सहम गई है।
देश में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के लिए सिर्फ यूपीए सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि तमाम् राजनीतिक दलों का नजरिया भी भ्रष्टाचार के मुद्दे और लोकपाल के गठन को लेकर कभी स्पष्ट नहीं रहा है। यदि ऐसा नहीं होता, तो संसदीय समिति द्वारा लोकपाल का मसौदा तैयार करते समय उसमें भ्रष्टाचार से निपटने के मजबूत उपायों की झलक जरूर मिलती। अभिषेक मनु सिंघवी की अध्यक्षता वाली समिति ने निचले स्तर की नौकरशाही और सीबीआई निदेशक की नियुक्ति के मामले में चौबीस घंटे के भीतर जिस तरह से पलटी खाई है, उससे स्पष्ट है कि लोकपाल के प्रावधानों और अधिकारों को लेकर संसद में कितने गहरे मतभेद हैं और समिति पर किस तरह का दबाव है। स्थायी समिति की रिपोर्ट को यदि मंजूर कर लिया जाए, तो एक ऐसे लोकपाल का खाका सामने आता है, जिसके दायरे में प्रधानमंत्री, संसद के भीतर सांसदों का व्यवहार, न्यायपालिका, निचले स्तर की नौकरशाही और सीबीआई आदि नहीं होंगे, बल्कि इसके दायरे में कॉरपोरेट, मीडिया और एनजीओ आएंगे। ऐसे में बीते एक साल से जन लोकपाल के लिए आंदोलन कर रहे अन्ना हजारे और उनके साथी अगर सरकार की नीयत पर सवाल उठा रहे हैं, तो इसमें गलत क्या है? स्थायी समिति की रिपोर्ट में अन्ना हजारे को संसद की ओर से दिए गए कई आश्वासनों को पूरा नहीं किया गया है। दूसरी ओर, पिछले दस दिनों से लोकसभा में कामकाज बुरी तरह से ठप है। खासकर कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह, कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी व यूपीए सरकार के कई दिग्गज मंत्रियों का वैसे भी पहले से ही बुरा हाल है। ऐसे में नहीं लगता कि इस शीतकालीन सत्र मंें लोकपाल के स्थायी समिति की रिपोर्ट पेश भी हो पाएगी। सरकार की ओर से अब तक जो कवायद हुई है, उससे स्पष्ट भी हो रहा है कि सरकार मामले को सुलझाने के बजाय और उलझाना चाहती है।
लोकपाल को लेकर सरकार के ढुलमुल रवैये से स्पष्ट है कि वह वही कर रही है, जैसा पहले से सोचा है। गंभीरता से अगर विचार किया जाए तो भ्रष्टाचार की यह गंदगी ऊपर से नीचे की ओर बह रही है, लिहाजा निचले दर्जे के 57 लाख कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे में रखना व्यावहारिक नहीं लगता। इस भ्रष्टाचार रूपी गंदगी को रोकने का उपाय सरकारी लोकपाल में नजर नहीं आ रहा है। यहां बताना लाजिमी होगा कि पहली बार जब अन्ना का अनशन शुरू हुआ, तो सरकार को विश्वास नहीं था कि अन्ना के समर्थन में देश भर के लोग आगे आएंगे, लेकिन जब अन्ना के पक्ष में देश भर के लोग खड़े हुए तब तो सरकार पूरी तरह से हिल गई और यह जोड़तोड़ शुरू हुई कि उनके आंदोलन को आखिर कैसे खत्म कराया जाए? कई दिनों के बाद आखिरकार खुद प्रधानमंत्री डॉ सिंह ने अन्ना हजारे को पत्र लिखकर वादा किया कि जल्द ही देश में मजबूत लोकपाल बिल लाया जाएगा। यही नहीं, संसद में भी उनकी तीन मुख्य मांगों पर सहमति बनी थी, लेकिन अभिषेक मनु सिंघवी ने प्रधानमंत्री के वायदे एवं संसद की भावना की अवमानना करके बिल्कुल कमजोर एवं लचर विधेयक का मसौदा तैयार किया और ऐसा करना मामूली बात नहीं है। अन्ना हजारे इसी बात से ज्यादा आक्रोशित है कि मनु सिंघवी ने प्रधानमंत्री के बात की अनदेखी आखिर क्यों की। हजारे का कहना है कि इससे पूर्व संसद की स्थायी समिति के अधिकांश सदस्यों ने विधेयक का मसौदा स्वीकार कर लिया था, लेकिन फिर इसमें कुछ बदलाव किए गए। चूंकि राहुल गांधी इस मुद्दे पर बोल चुके हैं और वही स्थायी समिति के सदस्यों पर दबाव डाल रहे हैं। अलबत्ता राहुल नहीं चाहते कि भ्रष्टाचार मुक्त देश हो, क्योकि ऐसा होने पर उनकी शक्तियां घट जाएंगी।
अन्ना ने राहुल गांधी से पूछा भी है कि आप हमारी सेवा करने के लिए सत्ता में हैं या अपने रुख को मजबूत करने के लिए? यहां तक कि स्कूली बच्चे भी समझ सकते हैं कि सरकार देश की जनता के साथ खिलवाड़ कर रही है। विधेयक के सामाजिक संगठन के मसौदे पर बहस न कराने पर अन्ना ने सरकार की आलोचना भी की है तथा सी और डी श्रेणी के कर्मचारियों को केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) के तहत लाए जाने के प्रस्ताव पर भी सवाल उठाएं हैं। उन्होंने सरकार को चेतावनी दी कि अगर संसद के शीतकालीन सत्र के अंतिम दिन 22 दिसंबर तक मजबूत एवं कारगर लोकपाल विधेयक नहीं आया, तो 27 दिसंबर से रामलीला मैदान पर उनका अनिश्चितकालीन अनशन शुरू होगा। इसके बाद वह पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में लोगों से भ्रष्टाचार को संरक्षण देने वाले राजनीतिक दलों एवं नेताओं को हराने की अपील करेंगे। यही नहीं, वह दो साल बाद होने वाले आम चुनाव के पहले भी देशभर का दौरा करेंगे। लोकपाल विधेयक पर संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट के खिलाफ गांधीवादी नेता अन्ना हजारे के आक्रामक शंखनाद से केन्द्र सरकार एक बार फिर से हिलती नजर आ रही है। अन्ना को मनाने के लिए सरकार ने कई दांव पेंच शुरू कर दिए हैं। प्रधानमंत्री डॉ सिंह व उनकी पूरी टीम को अब इस बात की ज्यादा चिंता सताने लगी है कि अन्ना के आगामी आंदोलन से केन्द्र में यूपीए सरकार का समूचा सूपड़ा साफ हो जाएगा। इधर इसी बात को लेकर कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी भी सोंच में पड़ गई हैं और अब यह चिंतन किया जा रहा है कि आखिर यूपीए सरकार अपने अस्तित्व को आगे कैसे कायम रख पाएगी। बहरहाल, संसदीय समिति के विधेयक में मीडिया और एनजीओ को भी लोकपाल के दायरे में रखा गया है, जबकि अन्ना व उनके समर्थक प्रधानमंत्री, सांसदों, न्यायधीशों और राजनीतिक दलों को इसके दायरे में रखने की मांग कर रहे हैं। एक तरह से उनका कहना वाजिब भी है क्योंकि तृतीय और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को सीवीसी के दायरे में लाया जा रहा है, जो खुद सरकार के अधीन काम करते है। ऐसा करने से किसी भी उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी?
---राजेन्द्र राठौर---
जांजगीर-चांपा (छत्तीसगढ़)
संपर्क - 09770545499, 07817-222143
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