जापान जैसा देश भारत की लोकसंस्कृति और कला को बखूबी समझते हुए हमारे यहां की प्रसिद्ध मधुबनी चित्रकला पर अपने यहां संग्रहालय का निर्माण करा सकता है। पर अपने ही राज्य में इस लोक कला को वह स्थान नहीं मिल पाया है जो इस कला को मिलाना चाहिए। जापान में मधुबनी
बिहार की इस विश्वप्रसिद्ध लोककला मधुबनी चित्रकला को आने वाली पीढ़ी के लिए सहेजने की गरज से राज्य सरकार ने एक संस्थान खोलने की घोषणा की, जिसे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भविष्य में विश्वविद्यालय का स्वरुप देने का ऐलान किया है। प्राकृतिक रंगों से चित्रकारी के बाद अब कत्रिम रंगों के प्रयोग के दौर से गुजर रही लोककला को बदलाव के इस दौर में जीवित रखने की दिशा में बिहार सरकार का संस्थान खोलने का फैसला एक मील का पत्थर माना जा सकता है।
मधुबनी चित्रकला के माहिर फनकार लंबे समय से गुमनामी में जी रहे थे और अपनी आने वाली पीढियों को यह धरोहर सौंपने से कतराने लगे थे। इस कला के केंद्र माने जाने वाले मधुबनी के जितवारपुर और रांटी गांव के लोग उपेक्षा से परेशान थे। राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपनी सेवा यात्रा के दौरान कहा कि पहले यह कला मिथिला क्षेत्र में थी। उसके बाद गांव से सिमट कर परिवार में आ गयी। यह कला कहीं गुम न हो जाए इसके लिए प्रचार प्रसार और प्रोत्साहन के लिए रहिका प्रखंड के जितवारपुर स्थित सौराठ मैदान में 10 एकड़ में एक संस्थान खोला जाएगा। इसे कालांतर में विश्वविद्यालय का स्वरुप दिया जाएगा।
जापान में निगाता प्रांत में तोकामाची में मधुबनी चित्रकला पर एक संग्रहालय खोला गया है जहां साढ़े आठ सौ से अधिक मिथिला पेंटिंग हैं। बडी संख्या में अन्य संग्रह है। वर्ष 1988 में मिथिला संग्रहालय ने प्रसिद्ध कलाकार गंगा देवी को अवलोकन के लिए बुलाया। इसके बाद से कई कलाकार वहां की यात्रा कर चुके हैं। मिथिला क्षेत्र में जिस भीषण अकाल के कारण मिथिला चित्रकला का कायाकल्प 1964 में हुआ वह अब प्रोत्साहन और विपणन के पर्याप्त अवसर के अभाव में मुरझा सी गयी है। कई वर्ष से कला के पारखी सम्मान के लिए तरस रहे हैं।
बिहार राज्य मैथिली अकादमी के अध्यक्ष कमलाकांत झा के अनुसार मिथिला या मधुबनी की चित्रकला एक धरोहर है। सूचना और संचार के इस युग में धरोहर को बचा कर रखने की जरूरत है। सभी लोक पारंपरिक माध्यम के महत्व को जानते हैं। सभी कलाओं में पुनर्जागरण का दौर आया है। आशा है कि इसका विकास होगा और इसे यथोचित सम्मान मिलेगा। इस कला की पारखी और जानकार 80 वर्षीय दरभंगा निवासी गौरी मिश्रा कहती हैं कि मिथिला की संस्कृति इस चित्रकला में रची बसी है। चित्रकला में जन्म से लेकर मृत्यु तक हर परंपरा को निरुपित किया जाता है। वर्तमान पीढ़ी इसके बारे में अधिक नहीं जानती।
कई वर्ष से अध्ययन और अनुसंधान में लगी गौरी मिश्रा कहती हैं कि इस चित्रकला को मधुबनी नहीं बल्कि मिथिला चित्रकला के नाम से पुकारा जाना चाहिए। क्योंकि यह मधुबनी नहीं मिथिला की धरती की है। इस धरती के बारे में ही कहावत है कि उत्तर में गिरिराज हिमालय, दक्षिण में गंगाधाम, पूरब कोसी, पश्चिम गंडक और बीच बहिछै बलान। इसलिए अम्मा के नाम से मशहूर गौरी कहती हैं कि मधुबनी के स्थान पर मिथिला चित्रकला लोकप्रिय नाम है।
जर्मनी के हाइडेलबर्ग के मानवविज्ञानी डा एरिका स्मिथ के साथ मिलकर इस चित्रकला पर 1973 से काम कर रही गौरी मिश्रा को इस बात का अफसोस है कि चित्रकला को लेकर किये सारे शोध और दस्तावेजी कार्य बाढ़ में नष्ट हो गये। संस्थान खोलने की सरकार की घोषणा का स्वागत करते हुए बुजुर्ग विशेषज्ञ कहती हैं कि यह इतना आसान नहीं होगा। पहले भी पाठयक्रम आदि की रूपरेखा तैयार हुई थी। बिहार के तत्कालीन राज्यपाल मोहम्मद शफी कुरैशी को प्रस्ताव दिया गया था लेकिन यह फलीभूत नहीं हो पाया। इस ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत को व्यवस्थित रूप देने में लगी इहिताश्री मिश्रा बताती हैं, दस्तावेजी प्रमाण है कि मिथिला या मधुबनी चित्रकला करीब तीन हजार वर्ष पुरानी है। लोकगीतों और परंपरा के अनुसार इसका समय कही अधिक पुराना बताया जाता है।
मिथिला चित्रकारी के जानकार मानते हैं कि इसका केंद्रीय विषय कालांतर में लगातार बदलता आया है। एक समय था जब राम, जानकी, लक्ष्मण, श्रीकृष्ण राधा प्रसंग, देवी दुर्गा जैसे पौराणिक विषय चित्रकारी के केंद्र बिंदु हुआ करते थे। नये दौर में पर्यावरण संरक्षण, गांव चौपाल की बातें, संपूर्ण स्वच्छता जैसे विषय भी झलक रहे हैं। इसके चटख रंग और लोकप्रियता फैशन डिजाइनरों को आकर्षित तो कर रही है लेकिन मूल भावना से समझौता किया जा रहा। आज कलाकारों को पता नहीं कि मछली, कमल, बांस, शिव पार्वती, सांप, जैसे 10 हजार से अधिक तत्व (एलीमेंट) मधुबनी चित्रकला के अभिन्न अंग थे। उनका अपना महत्व और संकेत होता था।
मधुबनी चित्रकला के विषय में लगातार बदलाव आ रहा है। लोककला और विद्वता का तत्व कम होता जा रहा है। अब पारंपरिक रंगों और अर्थपूर्ण भाव के स्थान पर पैसा कमाने के लिए व्यावसायिकता हावी होती जा रही है। पेन पेंसिल का अधिक प्रयोग हो रहा है जो मधुबनी पेंटिंग का मूल अंग नहीं है। सबसे बड़ा बदलाव मधुबनी का इस्तेमाल परिधानों में होने से आया है। मधुबनी पेंटिंग के छापे वाले कुर्ते, शाल, साड़ी और चादर खूब पसंद किए जा रहे हैं, जिससे कला का प्रसार हुआ है। हालांकि अब भी घरों की दीवारों में पारंपरिक चित्रकारी कहीं कहीं दिख जाती है। बदलाव के दौर में इस चित्रकला के नये रूप पर भी अनुसंधान जारी है। अहमदाबाद के राष्ट्रीय डिजाइन संस्थान (एनआइडी) ने मधुबनी के कुछ कलाकारों और युवाओं को प्रशिक्षण देकर चित्रकारी में मिश्रण (ब्लेंडिंग) सिखाई है।
नीतीश कुमार कहते हैं कि बिहार सांस्कृतिक विरासत की खान है। यहां की मधुबनी पेंटिंग का ठीक ढंग से विकास जरूरी है। इस चित्रकला की विशेष बात यह है कि यह समतामूलक समाज का संदेश प्रसारित करती है, जिसमें सभी जाति और समुदाय की महिलाएं चित्र बनाती है। यह रचनात्क क्रियाकलाप की जीती जागती मिसाल है, जिसमें अनपढ़ महिलाएं भी अपनी चित्रकला में उत्कृष्ट ज्यामितीय गणना का परिचय देती हैं। जितवारपुर और आसपास के कुछ क्षेत्रों में मिथिला पेंटिंग में इस्लामी संस्कृति की भी झलक मिलती है। स्वयं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने रांटी और जितवारपुर में हरिजन टोले में जाकर कलाकारों से मुलाकात की। मधुबनी और दरभंगा के अलावा पश्चिम चंपारण, सुपौल, भागलपुर, सहरसा, सीतामढी, बेगूसराय, समस्तीपुर के कुछ हिस्सों में इस कला का अधिक लोकप्रिय स्वरूप देखा जाता है। हैंडीक्राफ्ट की प्रदर्शनियों और इंपोरियम में दिखने के बावजूद अच्छी विपणन व्यवस्था के अभाव में मिथिला चित्रकला के कलाकार खुलकर आगे नहीं आ पाते।
इस कला की शुरुआत के बारे में परस्पर अलग अलग दावे सामने आते हैं, लेकिन लोक श्रुति और परंपराओं के अनुसार वेद और पुराणों में भी मिथिला की चित्रकारी का वर्णन मिलता है। कहा जाता है कि तीज त्योहार, विवाह समारोह और शुभ अवसरों से इस कला का जन्म हुआ जो अब परिधानों और वस्त्रों में झलकती है।
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