अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित प्रतियोगात्मक परीक्षा में राज्य हो रहा फिसड्डी साबित
अध्यापकों को शिक्षा की नहीं सुविधा की दरकार
पिछले दो दशकों से उत्तराखण्ड की शिक्षा व्यवस्था पटरी पर नहीं है। यही कारण है कि अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित होने वाले प्रतियोगात्मक परीक्षाओं में 67 फीसदी साक्षर दर वाले उत्तराखण्ड से पास होने वाले अभियर्थीयों की संख्या दहाई अंक भी पार नहीं कर पा रही है। राज्य की शिक्षा व्यवस्था पर शिक्षाविद सहित तमाम ब्यूरोक्रेट तक चिंतित दिखाई दे रहे हैं। यहां तक की प्रमुख सचिव स्तर के एक अधिकारी का यह कहना है जब राज्य की शिक्षा व्यवस्था को मैं पटरी पर नहीं ला सका तो किसी और से क्या उम्मीद की जा सकती है।
राज्य बने अभी मात्र 11 वर्ष ही हुए हैं, लेकिन राज्य की शिक्षा व्यवस्था पिछले 20 वर्षों से बदहाल स्थिति में है। शिक्षा का गढ़ माने जाने वाले उत्तराखण्ड में अल्मोड़ा, नैनीताल, लोहाद्याट, पौड़ी, जहरीखाल, खिर्सू, श्रीनगर, नागनाथ पोखरी, तलवाड़ी, अगस्तमुनी, गुप्ताकाशी, टिहरी, उत्तरकाशी और देहरादून ऐसे शिक्षा के केंद्र थे जहां से शिक्षा ग्रहण कर छात्रों ने एक मुकाम तब हासिल किया था जब उत्तराखण्ड विकास की दृष्टि से देश के अन्य हिस्सों से बहुत पीछे था। समूचे उत्तराखण्ड की शिक्षा व्यवस्था सरकारी स्कूलों के भरोसे थी और इन स्कूलों में पढ़ने वाले छात्र जहां मेधावी हुआ करते थे वहीं इन विद्यालयों में अध्यापन का कार्य कर रहे शिक्षक इतने मेहनती हुआ करते थे कि उन्हें दिन-रात की फिक्र नहीं होती थी और वे अपना पूरा जिवन छात्रों को समर्पित कर देते थे। ऐसे में गुरू शिष्य परंपरा का एक अनूठा उदाहरण उत्तराखण्ड में देखने को मिलता था, लेकिन आधुनिकता के दौड़ में राज्य के शिक्षकों ने शिक्षा ग्रहण करने आ रहे छात्रों को समयबद्ध सारणी में कैद कर दिया। वहीं व्यवसायिकता की दौड़ में अंधे हो चुके शिक्षकों ने गुरू शिष्य पंरपरा का निर्वहन करने के बजाय इस रिश्ते को व्यवसायिक बना डाला और फिर शुरू हो गया पैसे से शिक्षा खरीदना और पैसे से शिक्षा देने का खेल। इतना ही नहीं शिक्षकों ने जहां शिक्षार्थियों को स्कूल में पढ़ाना बंद कर दिया वहीं उन्होंने अपनी कोचिंग क्लासेस शुरू कर दी। इस दौड़ में सरकारी स्कूलों के अध्यापक मात्र उपस्थिति पंजिका में अपने हस्ताक्षर करने ही स्कूल जाते हैं ताकि उन्हें महीने में सरकार द्वारा दी जा रही एक बंधी-बंधाई रकम मिल सके। इतना ही नहीं कई अध्यापकों ने तो ठेकेदारी प्रथा का अनुसरण करते हुए प्रशिक्षु अध्यापकों को अपने स्थान पर प्रतिनियुक्त कर दिया। इस अवैध प्रतिनियुक्ति की ऐवज में सरकारी स्कूलों के अध्यापक प्रशिक्षु अध्यापकों को महीने में चार-पांच हजार रूपये देते हैं।
सरकार का जन-जन तक शिक्षा पहुंचाने के नारे ने भी सरकारी स्कूलों में तैनात अध्यापकों को भ्रष्ट बना दिया है। मिड डे मील के नाम से सरकारी स्कूलों में आपूर्ति होने वाले राशन की खाई-बाड़ी में ये अध्यापक लग गए हैं। मिड डे मील योजना ने सरकारी स्कूलों में अध्ययन कर रहे छात्रों की संख्या में दोगुनी वृद्धि कर दी है। बेसिक शिक्षा में मिड डे मील का यह प्रचलन जहां छात्रों की संख्या को आंकड़ों की बाजीगरी और अध्यापकों को शिक्षा से विमुख कर रहा है। देखा जाए तो इस योजना से विद्यार्थियों के बजाए अध्यापकों की बल्ले-बल्ले कर दी है। रही-सही कसर सरकारों ने पूरी की है। अध्यापकों को अध्यापन कार्य में लगाने के बजाए कभी उन्हें मतदाताओं की संख्या की गणना में लगाया जाता है तो कभी जनगणना में इतना ही नहीं स्वास्थ्य विभाग के कई कार्यक्रमों में भी अध्यापकों का उपयोग किया जाता है। एक जानकारी के अनुसार यदि सालभर में एक अध्यापक द्वारा उसके विद्यालय में अध्यापन कार्य की गणना की जाए तो वह मात्र दो या तीन महीने ही बैठती है। ऐसे में राज्य में शिक्षा का स्तर क्या होगा यह आप स्वंय समझ सकते हैं।
प्रदेश के दूरस्थ गांवों में शिक्षा का स्तर कहां से सुधर पाएगा इससे शिक्षाविद चिंतित नजर आते हैं। उनका कहना है कि जब सुदूरवर्ती अंचलों में तैनात शिक्षक भोग विलासिता का जीवन यापन करने के लिए मैदानी क्षेत्रों की ओर अथवा सुविधाजनक स्थानों की ओर जाने की जुगत में लगा रहता है। इसके लिए वह एक मोटी रकम भी खर्च करने को तैयार है और तैयार हो भी क्यों नहीं जब शिक्षा का दायित्व देख रहे विभाग के मातहत अधिकारी और मंत्री तक उससे सुविधा शुल्क लेकर सुविधाजनक स्थान पर तैनाती का आश्वासन जो देते हैं। इस बात की बानगी तो यह है कि बीते शिक्षा सत्र में शिक्षा मंत्री द्वारा 429 अध्यापकों का स्थानान्तरण सुविधाजनक स्थानों पर कर दिया गया और वह भी सुविधा शुल्क लेकर। आनन-फानन में राज्य के मुख्यमंत्री द्वारा इन सभी स्थानान्तरणों को रद्द कर इस पर जांच तो बैठाई ही गई है साथ ही शिक्षा मंत्री को भी अपने से हाथ ही नहीं धोना पड़ा बल्कि उसे इस विधानसभा चुनाव में टिकट से भी दूर रखा गया।
राज्य में शिक्षा के गिरते स्तर पर शिक्षाविद ही नहीं बल्कि ब्यूरोक्रेट भी चिंतित नजर आ रहे हैं। एक ब्यूरोक्रेट ने तो यहां तक कहा कि उसने राज्य की बदहाल शिक्षा व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए वह सबकुछ कर डाला जो उसने अपने सेवाकाल में सीखा था। यह अधिकारी आगामी चार-पांच महीनो बाद सेवानिवृत्त हो रहे हैं। ऐसे में राज्य की शिक्षा व्यवस्था को कौन पटरी पर लाएगा यह यक्षप्रश्न आने वाली सरकार के सामने भी मुंह बाये खड़ा है।
(राजेन्द्र जोशी)
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