उर्दू के मशहूर शायर शहरयार को मंगलवार को अलीगढ़ में सुपुर्द-ए-खाक कर दिया गया। सोमवार रात को उन्होंने अलीगढ़ में अंतिम सांस ली। ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता शहरयार फिल्म उमराव जान के गीत लिखकर सुर्खियों में आए थे। 76 साल के शहरयार के निधन के बाद साहित्य जगत में शोक की लहर है। मालूम हो कि शहरयार को ब्रेन ट्यूमर था, वो लंबे अरसे से बीमार थे। उनके इंतकाल की खबर मिलते ही उनके घर पर लोग उमड़ पड़े, किसी ने दोस्त खोया तो किसी ने अपना पसंदीदा शायर। कुंवर अखलाक मुहम्मद खान उर्फ शहरयार की पैदाइश 1936 में यूपी के बरेली में हुई थी।
शहरयार ने करियर की शुरुआत अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी में उर्दू के लेक्चरार के तौर पर की और यहीं वो हेड ऑफ द डिपार्टमेंट होकर रिटायर हुए लेकिन इस अकैडेमीशियन और शायर को शोहरत मिली 1981 में आई फिल्म उमराव जान के गानों से। उमराव जान के नगमे लोगों की रूह में उतर गए लेकिन फिर शहरयार ने फिल्मों से खुद को अलग कर लिया। वो शायरी करते रहे, मुशायरों की जान बने रहे- 1987 में आई उनकी गजल संग्रह 'ख्वाब का दर बंद है' के लिए उन्हें साहित्य अकादमी सम्मान से नवाजा गया और फिर पिछले साल उन्हें साहित्य के सबसे बड़े सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया। शहरयार उर्दू के सिर्फ चौथे शायर हैं जिन्हें ज्ञानपीठ मिला है।
इसके अलावा उर्दू शायरी को नया नक्श देने में अहम भूमिका निभाने वाले शहरयार को उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी पुरस्कार, दिल्ली उर्दू पुरस्कार और फिराक सम्मान सहित कई पुरस्कारों से भी नवाजा गया गया। इश्क, तन्हाई और साथ ही साथ आम जिंदगी की परेशानी...शहरयार की शायरी में जिंदगी का हर रंग दिखता है। ‘सीने में जलन आंखों में तूफ़ान सा क्यूं है…’, ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता कहीं ज़मीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता’, ‘ज़िन्दगी जब भी तेरी बज़्म में लाती है हमें ये जमीं चांद से बेहतर नजर आती है हमें’ इसके उदाहरण है। शहरयार कहा करते थे ‘रेत को निचोड़कर पानी निकालना बड़ा अजीब काम है, मेरे दोस्तों...काफी दिनों से ये काम कर रहा हूं मैं! और इस अजीब काम को करते-करते, नगमा-तरन्नुम सुनाते, अपनी शायरी की विरासत छोड़कर शहरयार हमें अलविदा कह गए।
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