क्या दोहराया जा सकता है 2007 का इतिहास!
मतगणना में अभी एक सप्ताह बाकी है। भाजपा और कांग्रेस की सांसे जहां चुनाव परिणामों को लेकर अटकी है, वहीं प्रदेश के क्षेत्रीय दल अपना वजन तौलने में लगे हैं। यही कारण है कि ये क्षेत्रीय दल चुनाव पूर्व एक साथ चलने की डगर को छोड़कर अब अलग-अलग डगरों पर चल पड़े हैं।
मामला उत्तराखण्ड क्रांति दल (पी) तथा उत्तराखण्ड रक्षा मोर्चा को लेकर सामने आया है, जो चुनाव से पूर्व छाती ठोककर यह कह रहे थे कि भाजपा और कांग्रेस दोनो एक ही सिक्के के पहलू हैं, लिहाजा वह भाजपा और कांग्रेस के साथ किसी भी कीमत पर गठबंधन नहीं करेंगे, बल्कि वे उत्तराखण्ड के जनमानस के हिसाब से इन दोनों दलों का विकल्प बनकर उभरेंगे, लेकिन चुनाव से पूर्व ही इन दोनों में खाई पैदा हो गई और दोनों ही क्षेत्रीय दल अपनी-अपनी डगर पर चल पड़े। राजनैतिक विश्लेषक मानते हैं कि हालांकि अभी भी उत्तराखण्ड में भाजपा-कांग्रेस के विकल्प के रूप में एक क्षेत्रीय दल की दरकार है, लेकिन उत्तराखण्ड के जनमानस की कसौटी पर कोई भी क्षेत्रीय दल नहीं उतर पाया है और ये क्षेत्रीय दल कुर्सी मोह के चलते राष्ट्रीय दलों के साथ गठबंधन करने में पीछे नहीं रहे। उक्रांद (डी) का हश्र आपके सामने हैं। पांच साल तक भाजपा की गोद में बैठकर इन्होंने रबड़ी भी खाई और भाजपा को आंखे भी तरेरी और ऐन चुनाव के दौरान इस दल के झण्डाबरदार नेताओं ने अपनी पार्टी को छोड़ भाजपा के चुनाव चिन्ह पर ही चुनाव लड़ा। उत्तराखण्ड क्रांति दल दिवाकर गुट के इस कृत्य से राज्य में क्षेत्रीय दलों की साख पर बट्टा लगा है। ऐसे में केवल सरकार बनाने के लिए आवश्यक विधायकों की संख्या को जुटाने में इन दलों का प्रयोग होगा। जो कि राज्य के भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है।
एक कहावत कि न सूत न कपास जुलाहों में लठमलठ यह कहावत उत्तराखण्ड के क्षेत्रीय दलों पर सटीक बैठती है। न तो अभी मतगणना हुई है और न ही अभी चुनाव परिणाम घोषित हुए हैं। ऐसे में उक्रांद (पी) और रक्षा मोर्चा के बीच गठबंधन को लेकर आरोप प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया है। इनकी बयानबाजीयों को राजनैतिक विश्लेषक मतगणना से पूर्व की नूरा कुश्ती के रूप में देखते हैं। इनका कहना है कि यह दोनो दल भी उक्रांद (डी) के नक्शे कदम पर चल रहे हैं। मतगणना के बाद विधानसभा में दोनो राष्ट्रीय दलों को स्पष्ट बहुमत न मिलने की दशा में इन दोनों दलों की पौ बारह होने की उम्मीद जताई जा रही है। ठीक इसी तरह वर्ष 2007 में भाजपा पर आरोप है कि उसने दो निर्दलीय विधायकों को मोटी रकम देकर खरीदने के बाद अपनी सरकार बनाई थी। कमोबेश इस बार भी यह इतिहास दोहराए जाने से राजनैतिक बुझक्कड़ असहमत नहीं है। उनका कहना है कि इस बार भी कुछ निर्दलीय विधायकों की बल्ले-बल्ले हो सकती है, जबकि इसी जुगत में प्रदेश के दो क्षेत्रीय दल भी लगे हैं कि उनकी भी लौटरी निकल जाए.
राजेन्द्र जोशी
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