भाग्यविधाता होने का भ्रम न पालें
आजकल हमारे चारों ओर का माहौल उपदेशांे, भाषणों और नसीहतों से भरा रहने लगा है। ऐसे-ऐसे लोगों की भीड़ का वजूद बढ़ता जा रहा है जो खुद तो अँधेरे में जी रहे होते हैं और दूसरों को रोशनी की राय देने के आदी हो चले हैं।
सूखे पत्ते और खाली पीपे हर कहीं दूर तक आवाज करते हैं, जैसे ढोल। ढोल-पीपों की तर्ज पर बजते रहने वाले लोग जब जी चाहे मुँह खोल लेते हैं और पूरा खाली हो जाने तक या पेट भर जाने नॉन स्टॉप बोलते ही चले जाते हैं।
दिन-रात में हजारों वाक्यों का वमन करने वाले लोग सर्वत्र उपलब्ध हैं। इनके मुँह जब खुलते हैं तब अहसास हो ही जाता है कि भगवान ने इन्हें यह वाणी और वाग्विलास नहीं दिया होता तो बेचारे इनकी पूरी जिन्दगी कैसे कट पाती? इस एकमात्र हुनर के सहारे वे सब कुछ कर लेते हैं।
इनके आस-पास रहने वाले लोग सब कुछ जानते-बूझते हुए भी इन्हें सहन करने को विवश हैं क्योंकि जो बोलता है उसके बैर बिक जाते हैं, फिर जो ज्यादा बोलना जानता है वह चाहे जिसे बेच डालने की सामर्थ्य पा जाता है। बोलने वालों की प्रजाति में सर्वाधिक संख्या ऐसे लोगों की है जो अपने आपको दुनिया जहान का भाग्यविधाता समझते हैं।
खुद का तो कुछ पता नहीं, अक्ल का इस्तेमाल करना नहीं जानते, न कोई बौद्धिक बल या हुनर। अपने आपमें भरम पाल लेते हैं भाग्य विधाता होने का। जिसे एक बार भाग्य विधाता होने का भ्रम हो जाता.
---डॉ. दीपक आचार्य---
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