अनाचारियों के अन्न-जल से बचें
समग्र जीवन में हर व्यक्ति संपन्नता और सुख चाहता है लेकिन इसके लिए जिन माध्यमों का सहारा लिया जाता है उन माध्यमों की स्थिति पर निर्भर करता है परिणाम। जैसा माध्यम होगा वैसा ही प्रतिफल प्राप्त होगा। जरिया जोरदार होगा जो फल भी जोरदार होगा। सीढ़ियां अगर ठीक नहीं होेंगी तो ऊपरी मंजिल पर पहुंचना आसान नहीं होगा और धड़ाम से नीचे गिर जाने का भय बना रहेगा। आज हम सब कुछ पाना चाहते हैं और उसे पाने के फेर में माध्यमों की तलाश में दिन-रात जुटे रहते हैं। इन माध्यमों की पवित्रता पर निर्भर करता है व्यक्तित्व का विकास और जीवन यात्रा की सफलता। हम अपने किसी न किसी स्वार्थ को पूरा करने के लिए रोजाना नए-नए लोग तलाशते रहते हैं। कभी गुरु, संरक्षक और मित्र के रूप में तो कभी परिचित या अपने परिचित के परिचित के रूप में ।
संबंधों की नेटवर्किंग को मजबूती देने में हम वे सारे काम कर गुजरते हैं जिन्हें मानव सभ्यता में वर्जित कहा गया है और धर्मशास्त्रों में इसकी मनाही है। लेकिन हमें लक्ष्य के रूप में अपने स्वार्थ ही सामने दिखते हैं और इसलिए कभी हम खुशी-खुशी तो कभी दुःखी और दीन होकर भी संबंधों के ताने-बाने बुनते रहते हैं। इन्हीं सभी प्रकार के संबंधों पर टिकी होती है अपनी समूची जीवन यात्रा और इसके तमाम पड़ाव। संबंधों और परिचय से आदमी के व्यक्तित्व की गंध और आकार-प्रकार तथा भविष्य का अनुमान लगता है। आम आदमी किसी न किसी से कुछ पाने के फेर में ऐसे-ऐसे लोगों से संबंध जोड़ लेता है जिनके बारे में लोगों की अलग-अलग धारणाएं होती हैं। कभी पुष्ट और कभी अपुष्ट, कभी हकीकत। बावजूद इसके हमें संबंधों की पवित्रता से कहीं ज्यादा सामने वाले से पूरा हो सकने वाला स्वार्थ ही नज़र आता हैै।
इस सारी उधेड़बुन भरी यात्रा के बीच कभी हम पेण्डुलम की तरह डोलते हैं, कभी तिनके की तरह तैरते हैं अथवा तैराए जाते हैं, तो कभी संबंधों के गली-कूंचों में नज़रबन्द हो कर रह जाते हैं। पूरी जीवन यात्रा में ग्रहों और भाग्य का प्रभाव सर्वत्र परिलक्षित होता है। भाग्य और ग्रह साथ दें तो कर्मयोग को पंख लग जाते हैं, और न दें जो कर्मयोग की हवा निकल जाती है। कर्मयोग का अपना महत्त्व जरूर है लेकिन इसके साथ ही उन सभी बातों का महत्त्व है जिनका हमारे जीवन निर्माण और विकास पर फर्क पड़ता है। यह फर्क सकारात्मक हो सकता है और नकारात्मक या घातक भी। इसका सीधा संबंध हमारे सम्पर्कों से है। सम्पर्क सेतु बेहतर हों तो संसार की नदी पार करने में कोई दिक्कत नहीं। लेकिन ऐसा न हो तो फिर कुछ का कुछ हो गुजरता है और हमारे पास सिवाय दृष्टा बनकर देखने के कोई चारा नहीं रहता।
जीवन में सफलता के लिए यह जरूरी है कि हम जिन लोगों के साथ रहते हैं, समय गुजारते हैं उनमें मानवीय पवित्रता हो। ऐसा नहीं होने पर इनसे हमारे स्वार्थ पूरे होने तो दूर की बात हैं मगर सम्पर्कजन्य दूषितता तो आती ही है। ऐसे दूषित लोगों के यहां का पानी और अन्न भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। यह दूषित अन्न एवं पानी अपने शरीर में जाने पर इसका पाचन होकर शरीर की पुष्टि के रस और धातुओं का निर्माण होता है और अन्त में मन बनता है। तभी कहा गया है - जैसा खाओ अन्न, वैसा होवे मन। जैसा पाणी वैसी वाणी। इसलिए प्राचीन काल से हमारे यहां अन्न और जल की शुद्धि को सर्वोच्च प्रधानता दी गई है। अन्न और जल की पवित्रता के साथ ही जीवन के हर कर्म और व्यवहार में शुचिता आनी चाहिए।
अन्न और जल के ग्रहण का सीधा संबंध हमारे शरीर से होने के साथ ही हमारे भाग्य से भी है और हमारी जन्मकुण्डली में बैठे हुए ग्रहों से भी है। ऐसे में खराब ग्रहों पर नियंत्रण कर अपने अनुकूल बनाने और अच्छे ग्रहों को ताकतवर बनाने के लिए प्रयत्नों का प्रावधान ज्योतिष में है लेकिन ज्योतिषीय उपायों का सहारा लेने के बावजूद यदि हमारा सम्पर्क और खान-पान ऐसे लोगों के घर में है या ऐसे लोगों के साथ है जो दोहरे-तिहरे चरित्र वाले, रिश्वतखोर, हराम की कमाई पर गुजारा करने वाले, व्यभिचारी, झूठे, भ्रष्ट, बेईमान और निठल्ले अथवा मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं से रहित हैं तो हमें नुकसान ही उठाना पड़ सकता है।
दूसरों को किसी न किसी रूप में तंग करने वाले, अतिक्रमणकारी, भूमाफिया और विभिन्न प्रकार के माफियाओं से लेकर वे सारे लोग इस श्रेणी में आते हैं जिन्हें लोग दिल से घृणा के लायक मानते हैं और सामने दिख जाने पर सम्मान करने को विवश हो जाते हैं। ऐसे लोगों का अन्न और पानी ग्रहण करने पर बुरे ग्रह कुपित हो जाते हैं और अच्छे ग्रहों का प्रभाव क्षीण हो जाता है। ये ग्रह जीवन में हमेशा बाधा डालते रहते हैं। ऐसे लोग चाहे कितने ही पूजा-पाठ और टोने-टोटके करवा लें या धरम के नाम पर लाखों रुपया लुटा दें, इनके ग्रह बेकाबू हो जाते हैं और इनके पुरखों की कृपा क्षीण होने लगती है वहीं समस्याओं के जो द्वार खुले हुए हैं वे कभी बंद नहीं होते।
दूषित मानसिकता और व्यवहार वाले व्यक्तियों का पाप और दुर्बुुद्धि सूक्ष्म अणुओं के रूप में उनके धन तथा अन्न-जल में ही होती है और जो इन्हें ग्रहण करता है उसके शरीर में प्रवेश कर स्थायी जगह बना लेती है। खाना और पीना जीवन निर्वाह की क्रिया मात्र ही नहीं है बल्कि इससे हर व्यक्ति का पूरा जीवन प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। कोई कितना ही बड़ा आदमी हो, यदि भ्रष्ट और बेईमान है तो उसका अन्न जल ठुकरा देना ही शास्त्र सम्मत है। एक बार ठुकरा देने पर वह नाराज जरूर हो जाएगा लेकिन आप जीवन भर इसका पाप ढोये रहने की विवशता से मुक्त हो जाएंगे। दुष्टों का संसर्ग जितना जीवन के लिए कष्टदायी और नरक का द्वार है उतना ही दुष्टों के पैसों का भोजन-पानी और उनके घर का अन्न-जल। इसी अन्न और जल में पाप का अंश रहता है। चाहे वह कितनी ही सफाई से क्यों न बनाया या परोसा जाए।
माना जाता है कि किसी व्यक्ति का जीवन बरबाद करना हो तो उसे दुष्टों का संग करा दो, दुष्टों का भोजन करा दो और कोई न कोई व्यसन साथ लगा दो। फिर अपने आप पतन के रास्ते जुड़ते चले जाएंगे। जब दुष्ट अन्न-जल शरीर में चला जाता है तो उसकी तासीर के हिसाब से शरीर, बुद्धि और मन का निर्माण होता है। ऐसे में जो लोग दुष्टों के भोजन व पानी के आदी रहते हैं उनका पूरा जीवन मलीन हो जाता है और ऐसे व्यक्ति का मन न कहीं धर्म-अध्यात्म और कला-संस्कृति में लगता है, न समाज के अच्छे कामों में। ऐसे लोगों की पूरी मानसिकता लूट-खसोट वाली हो जाती है और इनकी वाणी से निकलने वाला हर शब्द नकारात्मक भावों का परिचायक होता है। फिर धीरे-धीरे ऐसे लोगों का समूह बन जाता है जो न केवल समाज बल्कि राष्ट्र के लिए भी घातक हो जाता है।
इसलिए जीवन का अच्छी तरह जीने के आदी लोगों को चाहिए कि वे संग और भोजनादि में खूब परख कर आगे बढ़ें और जहाँ तक हो सके जीवन में यह संकल्प ले लें कि मानवीय मूल्यों से हीन, आडम्बरी, कथनी और करनी में अन्तर रखने वाले, बेईमान और भ्रष्ट लोगों के अन्न-जल का परित्याग रखें। ऐसा होने पर ही वे ग्रह-नक्षत्रों के कुप्रभाव से बचे रह सकेंगे और उनका भाग्य भी साथ देता रहेगा। कहने और सुनने में यह मामूली बात हो सकती है लेकिन जब इसका व्यावहारिक प्रयोग होता है तब आश्चर्यजनक परिणाम देखने को मिलने लगते हैं।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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