अक्षय कीर्ति लायक काम करें
जीवन में जो हम करते और देखते रहे हैं वह कुछ महीनों और वर्षो तक ही याद रखने लायक होता है। काम ऐसे करें कि पीढ़ियांे और युगों तक याद रखे जाएं। पहले के लोगों के सामने लक्ष्य बड़े हुआ करते थे और उसी अनुरूप वे परिश्रम भी करते थे और इस परिश्रम का लाभ उन्हें यह मिलता था कि युगों तक उनकी कीर्ति का गान होता रहता था। आज हमारी उदात्तता और उदारता सिमट गई है और उसी के अनुरूप ें सिमटती जा रही है हमारी सोच। इस संकीर्ण मनोवृत्ति का परिणाम यह हो रहा है कि हम छोटी-छोटी इच्छाओें का दासत्व स्वीकार कर वे काम करने लगे हैं जो पशु भी कर सकते हैं।
मानवीय मूल्यों की बजाय पशुत्व के भाव हमारे भीतर इस कदर जड़ें जमा चुके हैं कि हमारा मनुष्य होना या न होना, कोई मायने नहीं रखता। हमारे कर्म और व्यवहार से पशुता की गंध आने लगी है और हम अपने पूरे दिन और रात में कई-कई पशुओं की वृत्तियों का दिग्दर्शन कराने लगे हैं। अपने भीतर पशुत्व संस्कारों की प्रतिष्ठा हो चुकने की वजह से हमारे आस-पास भी ऐसे-ऐसे लोगों का जमावड़ा होता जा रहा है जो गलती से मानव देह धारण कर चुके हैं। हममें से इतने कितने लोग हैं जिनसे मिलने पर हमें दिली शांति और सुकून का अहसास होता है। कोई हमारे आस-पास आता भी है तो उसके मन के भाव हमारे लिए कैसे होते हैं। हमारे जाने पर उसके चित्त में क्या तरंगें उठती हैं और दूसरे लोग हमारे बारे में क्या सोचते हैं, इस बारे में थोड़ा सा दिमाग लगा लिया जाए तो हमें अपनी असलियत का पता अपने आप लग जाएगा।
कई लोग ऐसे हैं जिन्हें हम सम्माननीय, बुजुर्ग और पूजनीय मानने को विवश हैं लेकिन यह भी सच है कि अपने पास आने पर हमारे भीतर से हुक उठती है जिसका सीधा संकेत यही होता है कि ये कहां से आ टपका? कई प्रतिष्ठितों और श्रेष्ठीजनों को लोकप्रियता का भरम होता है और यह भरम उन्हें हमेशा जमीन से थोड़ा ऊपर उठाये रखता है। इनके पाँव कभी भी जमीन पर नहीं टिकते। पर ऐसे लोगों के प्रति आम लोगों में कहाँ कोई श्रद्धा का भाव होता है, लोगों की मजबूरी है अन्यथा लोग इनके साथ ऐसा व्यवहार करने लगंे कि इनकी सात पुश्तें याद रखें। थोड़ा सा कुछ किया नहीं कि चले भुनाने। आजकल हर कोई श्रेय लेने चला है। इस श्रेय पाने की कुटिल यात्रा में लोग अपना-पराया सब भूल जाते हैं और जहां मौका मिले वहां घुसपैठ कर श्रेय पाते हुए लोगों के कंधों पर सवारी करने की आदत बना डालते हैं। ऐसे लोगों के लिए कोई स्थायी मित्र या शत्रु नहीं हुआ करते। जो अपने लिए ढोल बजाए और पालकी उठाये वो अपना, जो ऐसा न करे वो पराया। मनुष्य यदि श्रेय लेना छोड़ दे तो ईश्वर उसके सारे काम अपने आप करता चला जाए। किसी के लिए भी काम करें, श्रेय भगवान को दें, फिर देखें कि एक के बाद एक काम कैसे होने लगते हैं।
जब ईश्वरीय विधान से हो रहे कामों का श्रेय मनुष्य लेना आरंभ कर देता है तब ईश्वर अपने हाथ खींच लेता है। इस सत्य को यदि हृदय से अंगीकार कर लिया जाए तो जीवन की कई समस्याओं का समाधान अपने आप हो जाता है। लोगों की भीड़ में अलग चेहरा दिखाने के लिए किए जाने वाले जतनों से तात्कालिक संतुष्टि का अहसास भले हो जाए, मगर इससे स्थायी और शाश्वत शांति की कल्पना कभी नहीं की जा सकती। क्षणिक लाभ पाने वाले व्यक्तियों के जीवन की डोर कभी ठोस नहीं होती, न इनका व्यवहार। क्षणे रुष्टा, क्षणे तुष्टा, रुष्टा-तुष्टा क्षणे-क्षणे। इनके जीवन का हर क्षण रंग बदलता है और हर कर्म अपने आप में अलग। रोज कूआ खोदने और रोज पानी भरने जैसी स्थितियों के बीच जीने वाले ये लोग जिन्दगी भर कभी इधर तो कभी उधर कुछ न कुछ पाने और लोकप्रियता की ब्रेड का स्वाद पाने भटकते रहते हैं। मौत के बाद साथ ले जाने लायक कोई पुण्य इनके खाते में कभी बचता ही नहीं।
बड़े काम ईश्वरीय होते हैं और उनमें ऊर्जा खपाने के लिए बड़े जीवट की जरूरत होती है। ऐसे बिरले लोग होते हैं जो सामाजिक परिवर्तन के लिए बड़े और महान काम कर जाते हैं। याद तो इन्हीं को रखा जाता है। अक्षय कीर्त्ति पाने के लिए छोटी-छोटी कामनाओं का त्याग करना होता है और ऐसा आम लोग कभी नहीं कर सकते। फिर आजकल तो फोटो और नाम छपास की महामारी ने बहुतेरे लोगों को जकड़ रखा है और ऐसे में इन लोगों से ऐसे काम की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती जो अक्षयकीर्ति दिलाने में मददगार सिद्ध हों। अक्षय तृतीया पर संकल्प लें कि छोटी-छोटी ऐषणाओं और भ्रमों के मकड़जाल में उलझते हुए जीवन को गँवाने की बजाय सामाजिक बदलाव के लिए ऐसा कोई काम कर जाएं जिससे आने वाली पीढ़ियां भी याद रखें और उनमें श्रद्धा व आदर के भाव भी रहें।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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