हर आदमी अपने आपको सर्वगुण सम्पन्न और खुबसूरत मानता हैं और यह चाहता है कि दुनिया में उसके मुकाबले कोई इक्कीस न ठहरे। इसके लिए वह अपने ही बनाए भ्रमों के घेरों में रहकर उछलकूद करता रहता है। भगवान के घर से आए आदमी का हर कर्म और व्यवहार दूसरों को दिखाने के लिए होने लगा है। दूसरे उसके बारे में हमेशा अच्छा ही अच्छा सोचें, उसके बारे में कहीं कोई आलोचना न हो और वह जो सोचे वे काम होते चले जाएं, इसमें जो भी बाधा बनकर सामने आएं, उन सभी को वह अपना घोर शत्रु मानता है। अपने आडम्बरी व्यामोह और अहंकार से घिरे आदमी को लगता है कि वह जो कुछ कर रहा है वही दुनिया का सर्वोत्तम कर्म और सत्य है और इसलिए उसे वह कुछ भी नहीं सुहाता जो उसके बारे में खरी-खरी कहे। अपनी आलोचना सुनने का संयम, सहानुभूति और शालीनता उसमें किंचित मात्र भी नहीं होती। ऐसा व्यक्ति सहनशीलता भी खो देता है।
स्व निर्मित भ्रमों के आवरणों से घिरे ऐसे लोगों के व्यक्तित्व पर कछुए की तरह तम का कठोर आवरण चढ़ता जाता है लेकिन वृत्तियाँ और दिखावे हिरणों की तरह कुलाँचे भरने लगते हैं। इस वैषम्य का परिणाम यह होता है कि इनका पूरा जीवन असंतुलित होकर रह जाता है और हर क्षण उद्वेलित और असन्तोषी हो जाता है। ऐसे में इनकी मनः शांति पलायन कर जाती है और हर क्षण इनकी पूरी ऊर्जा एक-दूसरे को परास्त करने में ही लग जाती है। हर दिन इन्हें करने होते हैं ऐसे-ऐसे समझौते, जिनके बारे में सुनकर भी हमें कभी दया आती है, कभी रोना।
इनकी पूरी जिन्दगी कभी इसको, तो कभी उसको नीचा दिखाने और खुद को ऊँचा दिखाने में लगी रहती है। इनके यौवन से लेकर अंतिम क्षणों तक इनका यह स्वभाव हमेशा मुखर रहकर इन्हें जीवन जीने लायक प्राण वायु का संचार करता रहता है। ऐस लोगों की तमाम इन्द्रियाँ भीतर की तरंगों और नादों को सुनने की बजाय बाहर की ओर उन्मुख रहती हैं और दुनिया की हर घटना के प्रति इतनी सचेष्ट रहती हैं जितनी दूसरों की कभी नहीं। जो इनका झूठा जयगान करे, उन्हें ये लोग अपना मानते हैं। इसके विपरीत जो इन्हें सत्य का आभास कराए, उन सभी को वे अपना घोर विरोधी मानते हैं। दुनिया में किन्हीं और लोगों के अवगुणों की बात कही जाए तब भी ये अपने पर लेकर पिल पड़ते हैं। इन्हें लगता है कि जो कुछ बाहर खरा-खरा कहा जा रहा है वह सब उनके लिए ही है। ऐसे में पूरी दुनिया इनके लिए गैर होने लगती है।
जो कुछ कहा जाता है, कहा जा रहा है और कहा जाने वाला है, वह तभी कहा जाता है जब कुछ न कुछ हो। संसार में सभी किस्मों के लोग हैं और इन सभी के बारे में लोग अच्छा-बुरा लिखते और कहते रहे हैं। जो गुणी लोग हैं वे अपने भीतर गुणों की प्रतिष्ठा का आभास करते हैं और प्रसन्न होते हैं। जबकि अवगुणी और दंभी लोगों को लगता है कि यह सब उनके लिए लिखा जा रहा है। ख़ासकर हल्के लोगों के लिए यह स्थिति अत्यन्त दुःखदायी ही रहती है। इस पर ये दंभी लोग हर वाक्य पर प्रतिक्रिया करते हैं। इस प्रकार की मनःस्थिति वाले लोग अपने पूरे जीवन को घोर प्रतिक्रियावादी बना लेते हैं और रोजाना नए-नए कर्मबंधन का भण्डार जमा करने लगते हैं।
प्रतिक्रियावादी लोगों को उनके चेहरे-मोहरे और हरकतों से अच्छी तरह पहचाना जा सकता है। इनका शरीर स्वतः थोड़ा टेढ़ापन लिये भी हो जाता है। ऐसे लोगों की वाणी और व्यवहार में अहंकार का इतना समावेश हो जाता है कि हमेशा यह झलकता रहता है। जो बाहर होता है उसका प्रभाव अपने व्यक्तित्व पर पड़ना स्वाभाविक है लेकिन इन परिवर्तनों और वैचारिक तरंगों को समझने की आवश्यकता है। जो इसके मर्म को समझ लेते हैं वे अपने आपको देखते हैं और भीतर झाँकते हुए उन तमाम विषयों का गहन चिंतन करते हैं जिनके बारे में उन्हें शंका या भरम होते हैं। फिर इनमें धीरे-धीरे सुधार लाते हुए वे अपने आपको उस लायक बना ही लेते हैं कि लोगों की इनके बारे में धारणाएँ साफ-सुथरी और श्रेष्ठ बनी रहें।
बाहर की घटनाओं और टिप्पणियों को दोष देने और आलोचकों को बुरा मानने की भूल समाप्त होनी चाहिए, तभी अपने भीतर सुधार लाने की संभावनाएं साकार हो सकती हैं। जमाना तो अपने आप में आईना है। यह वही तो दर्शाएगा जैसे आप और हम हैं। जिन्दगी भर आईने को दोष देने या तोड़ देने मात्र से अपना व्यक्तित्व सँवारा नहीं जा सकता। आज एक आईना है, कल दूसरा आएगा, परसों तीसरा...। आईने तो बदलते रहेंगे। मजा तो तब है जब हम अपने आपमें ऐसा बदलाव ले आएँ कि पूरा जमाना हमारा गुणगान करने लग जाए। ऐसा हो जाने पर हमें उन हथकण्डों को अपनाने की जरूरत भी नहीं होगी जिनसे हमें लोकप्रियता का लालीपाप मिलता है।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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