तभी होगा जीवन मंगलमय
एक समय वह था जब हमारे घर-आँगन में मंगल गीत गूंजते थे, दैवाराधन और ग्रहों की शांति, वैदिक अथवा पौराणिक अनुष्ठान और यज्ञों की धूम रहती थी। साल में एक-दो बार ऐसे आयोजन हो ही जाया करते थे। अन्यथा कुछ-कुछ वर्ष के अंतराल में ऐसे आयोजनों की श्रृंखला बनी रहा करती थी। करीब-करीब हर घर यही कहानी दोहरायी जाती थी। एक के बाद दूसरी पीढ़ी तक चलते-चलते आयोजनों का संस्कार बीज अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित होता रहकर कई-कई पीढ़ियों तक आयोजनों से प्राप्त ऊर्जा और गंध का अबाध संचरण होता रहता था।
लगातार मांगलिक आयोजनों और देवी-देवताओं तथा ग्रहों-पितरों आदि की पूजा-आराधना तथा अनुष्ठानों का यह दौर गृह स्वामी और पूरे परिवार के लिए मंगलदायी और सुख-समृद्धि तथा आनंद की वृष्टि कर देने को काफी था। घर में चाहे वास्तु दोष हो या और किसी ग्रह अथवा भूत-प्रेतों और पैशाचिक आत्माओें का दोष, इन आयोजनों की वजह से ये सब समाप्त हो जाता था और इसका सीधा लाभ घर में रहने वाले लोगों तथा आस-पास के लोगों को प्राप्त होता था। जिन घरों पर एक निश्चित अनुपात में पूजा-पाठ और हवन-अनुष्ठान होते रहते हैं वहाँ वास्तु दोष अपने आप ठीक हो जाता है और वास्तुपुरुष अपने हिसाब से अनुकूल स्थितियों में आकार व स्थान पा लेता है।
वास्तु का जितना हौव्वा हाल के दिनों में हो रहा है उसे सामने रखकर पुराने जमाने में अपने पुरखों के बनाए मकानों को देखें और तुलना करें तो साफ पता चलता है कि ये उस वास्तु के अनुरूप नहीं बनें थे जिस वास्तु को आज धंधा बना रखा गया है। इसके बावजूद पुराने लोग कितने आनंद और सुख-समृद्धि के साथ रहते थे और ईश्वर की उन पर असीम कृपा बनी रहती थी। कई प्राचीन पण्डितों, साधकों, संत-महात्माओं और सिद्धों के आवास को देखा जाए तो उनमें भी वास्तु दोष दिखता है। पर इन सबके बावजूद वे जीवन में सफलताएं अर्जित करते रहे और नाम कमाया। इसका मूल कारण यही था कि जो कुछ मांगलिक आयोजन, पूजा, हवन और अनुष्ठान हुआ करते थे वे उनके घर में ही होते थे। सामूहिक आयोजनों की बात इससे अलग है।
यही कारण था कि उस जमाने में लोगों के चेहरे पर संतोष और आनंद दिखता था और सामुदायिक कल्याण की भावना से काम होते थे जहां आस-पास के लोगों का पूरा जीवन सहयोग, सम्बल और सहकारिता की भावनाओं का संचार करता था। अब जमाना बदल गया है। आयोजनों के मूल मर्म को भुला बैठे लोग अपने मांगलिक आयोजनों के लिए अब वाटिकाओं और होटलों का सहारा ले रहे हैं। बड़े से बड़े मंागलिक आयोजनों के समय उनके रहने के लिए बने आवासीय स्थलों पर कुछ भी नहीं होता बल्कि सारा आयोजन वाटिकाओं, पार्कों और होटलों में कैद होने लगा है। ऐसे में गृह की रक्षा, सुख-समृद्धि और पीढ़ियों तक विकास के लिए जिम्मेदार देवी-देवता उपेक्षित ही रह जाते हैं। आवास से जुड़े हुए सभी प्रकार के दैव और उनके गण अतृप्त और उपेक्षित ही रह जाते हैं।
वहीं दूसरी ओर होटलों, पार्कों और वाटिकाओं अथवा न्याति नोहरों में होने वाले मांगलिक आयोजनों में होने वाले पूजा-अनुष्ठानों आदि का निमित्त विशेष के लिए निर्वाह तो अच्छा हो जाता है मगर इसका दीर्घकालीन लाभ परिवार के लोगों को उतना नहीं मिल पाता जितना घर पर होने वाले आयोजनों से मिलता है। आयोजनों और अनुष्ठानों के साथ ही सामूहिक भोजन का आयोजन भी अपने ही घर होना चाहिए। इससे भूमि एवं भवन तथा परिवार के जमा दोषों का निवारण होता है और गृह देव तथा उनके गण और शक्तियां तृप्त होती हैं और तब मिलता है सुखपूर्वक जीवन निर्वाह का आशीर्वाद।
यों भी जहाँ भजन और भोजन होता है वहाँ के दोष अपने आप समाप्त हो जाते हैं और सुखी जीवन का वरदान प्राप्त होता है। पुराने जमाने से मान्यता चली आ रही है कि अपना आँगन कुँवारा नहीं रहना चाहिए। कई समझदार लोग तो सारे मांगलिक आयोजन घर पर ही करवाते हैं। अब तो यह फैशन ही हो गया है कि अपनी बेटी की शादी खुद के अँगने में न होकर पराये आँगन में होती है। यह कैसी अजीब स्थिति है। पर आजकल आवासों का उपयोग मांगलिक-आयोजनों और अनुष्ठानों तथा भजन-भोजन में नहीं होकर उन आयोजनों में ही होता है जिन्हें मांगलिक नहीं कहा जाता है। किसी की मौत से लेकर गमी की सारी सामाजिक रस्मों का आयोजन घर में होता है जब शोक का माहौल होता है।
इस माहौल को संतुलित करने के लिए भी मांगलिक आयोजनों और अनुष्ठानों की जरूरत होती है। पर आजकल ऐसा कहाँ हो पाता है। यही वजह है कि कुटुम्बों का बँटवारा हो रहा है, शादी के बाद भी कहीं दाम्पत्य सुख या संतति में बाधाएं आ रही हैं अथवा कहीं सास और बहू में तकरार आम बात हो गई है। गृह देवता और उनसे संबंधित सभी गणों व शक्तियों की उपेक्षा और अतृप्ति का व्यक्ति के पूरे परिवार पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। इससे बचने के लिए अपने आवासों को दैवीय शक्तियों से ऊर्जावान बनाएं और जीवन का असली आनंद पाएँ।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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