वाह-वाह ही न करें, कभी सच भी कहें
दुनिया में चारों ओर स्तुतिगान की होड़ मची है। हर तरफ लोग अनचाहे भी प्रशंसा और स्तुतिगान में व्यस्त रहने लगे हैं। स्तुतिगान का सीधा संबंध स्वार्थपूर्त्ति से होता है। जितना बड़ा स्वार्थ उतना अधिक मुखर स्तुतिगान। आजकल लोग प्रशंसा और उनकी स्तुतियों से ही खुश होते हैं। एक जमाना था जब आदमी का कद उसकी प्रतिभाओं और व्यक्तित्व के आदर्श मानदण्डों से नापा जाता था, उसी के अनुरूप समाज उसे सम्मान देता था। जो जितना सम्मान के योग्य होता था उसे उसी अनुपात में सम्मान मिलता था। इस सम्मान को पाने के लिए उसे उल्टे-सीधे काम नहीं करने पड़ते थे जैसा कि आज करने पड़ रहे हैं।
उस जमाने में व्यक्ति को गुणों और संस्कारों से तौला जाता था। उन गुणों के घनत्व के आधार पर ही समाज में उसे स्थान मिलता था। धीरे-धीरे व्यक्तिपूजा का जो दौर चला उसने सामाजिक व्यवस्था और सम्मान का कबाड़ा कर दिया। आज स्थिति यह है कि समाज में अच्छे-बुरों का भेद नहीं रहा और सारा गुड़-गोबर हो गया। जो लोग सम्मान के हक़दार हैं उनकी अवज्ञा हो रही है और वे सारे लोग पूजे जा रहे हैं जो स्टंट और पब्लिसिटी के हथकण्डों को अपना कर समाज की छाती पर मूँग दलते जा रहे हैं। आज जो समस्याएँ हम देख रहे हैं उसका मूल कारण यही है कि सामाजिक व्यवस्था में अच्छे-बुरों के प्रति कोई भेद दृष्टि नहीं है बल्कि बुरी आदतों वाले, भ्रष्ट, निकम्मे, चापलुस और बुरे लोगों को सम्मान दिया जा रहा है। भारतीय मनीषियों ने कहा है -
अपूज्या यत्र पूज्यन्ते पूज्यानां तु व्यतिक्रम।
त्रीणि तत्र प्रवर्तन्ते दुर्भिक्षं मरण भयं।।
अर्थात् जहाँ अपूज्य लोगों की पूजा होती है, पूजने योग्य लोगों का निरादर होता है। वहाँ तीन बातें होती हैं - दुर्भिक्ष (अकाल), मरण और भय।
आजकल सभी जगह यही हो रहा है। हम अपने स्वार्थों में इतने डूब गए हैं कि सत्य को भी भूल गए हैं। यों भी सच बोलना सबसे बड़े साहस का काम है और यह सामान्य लोगों के बस की बात नहीं है। वे लोग भी और थे जो दिली भावनाओं को समझते हुए अपनी प्रशंसा के अर्थ को समझते थे और इसमें कहीं कोई कृत्रिमता और आडम्बर नहीं हुआ करता था। लोग जिसकी तारीफ करते थे वह दिल से निकला करती थी। उसमें कहीं कोई मिलावट या स्वार्थ नहीं हुआ करता था। पुराने जमाने के लोग सच बोलने का साहस रखने के साथ ही इतने निर्भय भी हुआ करते थे कि बड़े से बड़े आदमी और राजा-महाराजाओं तक को खरी-खरी सुना देते थे और पूछने पर जो राय भी देते थे वह भी अनुभवों के रस में पग कर निकली और लाजवाब हुआ करती थी।
आजकल न वह सच रहा है, न निर्भयता और न ही वे लोग रहे हैं जो सचाई को सुनने और समझने का साहस या माद्दा रखते थे। हर कोई अपनी स्तुति और प्रशंसा सुनना चाहता है और उसी से खुश होता है। झूठी प्रशंसा सुनना आदमी का स्वभाव बन चला है और उसके लिए वह कुछ भी करने को तैयार रहता है। जिस अनुपात में झूठी तारीफों का प्रचलन बढ़ा है उसी अनुपात में झूठे लोगों का बोलबाला भी बढ़ा है। मनुष्यों की एक नए किस्म की प्रजाति पनपती जा रही है जिसका काम ही रह गया है जमाने के अनुसार खुद को ढालते हुए झूठी तारीफों का माहौल खड़ा करना और अपने छोटे-छोटे स्वार्थों को पूरा करने के लिए तारीफों के पुल बाँधते रहना।
ये लोग ऐसे मौकों की हमेशा तलाश में बने रहते हैं। जहाँ अवसर मिलता है सामने वाले की तारीफ के पुल बाँधने लग जाते हैं। तारीफ करने और सुनने वाले दोनों में प्रशंसा वाचन और श्रवण फोबिया हावी होने की वजह से यह सारा दौर किसी अभिनय या व्यंग्य से ज्यादा नहीं लगता। छोटे-मोटे समारोहों से लेकर गोष्ठियों और बैठकों तक में लोग झूठी तारीफों के ऐसे-ऐसे चक्रव्यूह का दर्शन कराते हैं कि हर कोई इस भुलभुलैया में भटकने लगता है। इस अभिनय में धुर विरोधी भी पीछे नहीं होते। ‘उष्ट्राणाम विवाहेषु गीत गायंति गर्दभा’ की तर्ज पर ऐसी-ऐसी तारीफों के रावणसेतु बाँधने में माहिर हैं जिनका कोई आधार तक नहीं होता। यह इनकी मजबूरी कहें या अपने अस्तित्व को बनाए रखने की कवायद, इस अभिनय का कोई जवाब नहीं, जहाँ अभिनय करने वाले भी, और देखने-सुनने वाले भी सौ फीसदी झूठ से वाकिफ होते हैं। सभी को लगता है कि अभिनय को जीना इसी का नाम है।
बुद्धि के नाम पर जीने और बुद्धि के बूते दूसरों को मारने वाले बुद्धिजीवियों की सभाओं, गोष्ठियों, काव्य गोष्ठियों आदि में भी झूठी तारीफों का बवण्डर सदैव प्रवाहित होता रहता है। कौन सच बोल रहा है, कौन झूठ, इससे किसी को मतलब नहीं। दूसरों को बोलते हुए सुनना उनकी मजबूरी हैं क्योंकि उन्हें भी बोलने की बीमारी है। और ऐसे में श्रोता तो चाहिए ही। पूरे आयोजन में एक-दूसरे की वाह-वाह का दौर बना रहता है। जो लोग वाह-वाह करने और झूठी तारीफों के पुल बाँधने के आदी हो जाते हैं उनका पूरा जीवन झूठ और फरेब की चर्चाओं से गुजरता हुआ स्वयं एक ऐसा अभिनय हो जाता है जहाँ न सच है, न निर्भयता और न स्वाभिमान के साथ जीने का साहस। सही में जीना उसी का है जो बेपरवाह रह कर सच कहने का माद्दा रखता है। जो लोग अपनी झूठी तारीफ सुनने और करवाने के आदी हो गए हैं उन्हें भी चाहिए कि वे कभी एकान्त में बैठकर आत्मचिन्तन करें।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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