लोकतंत्र में कितनी सरकारें बदलेगी !! - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 5 मई 2012

लोकतंत्र में कितनी सरकारें बदलेगी !!

                                             किसान आत्महत्या की समस्या


महाराष्ट्र में किसान आत्महत्या के लिए कुप्रसिद्ध यवतमाल जिले में हाल ही में एक किसान ने आत्महत्या की. इस नामी इलाके में किसान की आत्महत्या की समस्या तमाम मीडिया के लिए अब मात्र समय और पन्ना भरने भर की महज औपचारिक घटना बन गई है. इस किसान ने आत्महत्या से पूर्व एक चिठ्ठी में सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी के खिलाप चंद शब्दों में भड़ास निकाली और वह मर गया. इससे वह कर्ज में डूबा किसान तो चल बसा लेकिन विरोधी पार्टियां इस वक्त जाग उठी और फिर एक बार मीडिया को एक विषय मिल गया. 

किसान के आत्महत्या करने के बाद उनके प्रति सहानुभूति प्रकट करने के लिए सभी दौड़े चले आते है. बहरहाल इस घटना में उस किसान के मौत के बाद सत्ताधारी पार्टी के खिलाप बौखलाने का एक मौका विरोधियों को मिल गया. हालांकि यह सत्य क्या है यह तो लोकतंत्र में रहनेवाला हर सुजान व्यक्ति जानता होगा. महाराष्ट्र सरकार की पॉलिसी के अनुसार किसान को आत्महत्या करने के बाद लाखों रुपयों का मुआवजा दिया जाता हैं. इसपर मराठी फिल्मों में यथार्थ चित्रण हुआ है. एक फिल्म में गरीब मजबूर बाप जिसका जवान बेटा साहूकार के सिर्फ दस हजार रुपए के कर्ज के कारण फांसी लगाकर अपनी जान दे देता है और उसके मरने के बाद राजकीय नेता उसके बाप को एक लाख रुपए देने का आश्वासन देता है. तब उसके बाप की आर्त आवाज निकलती है, ‘मरने के लिए एक लाख दे रहे हो जीने के लिए दस हजार दे देते’. या फिर नत्था के मरने की खुशी में मीडिया कि लगी हुई मंडी और उस मंडी में किसानों का दिखाया हुआ वास्तविक चित्र या अन्य कई प्रादेशिक फिल्में जो विदर्भ की और खासकर तमाम किसानों की समस्याओं का चित्रण करती है, दिखाई गयी. 

किसान समस्याओं की खबरें या रिपोर्टों में उनका विदारक चित्र देखने के बाद हम अंदाजा लगा सकते है कि आज भी विदर्भ में जो किसानों कि स्थिति है वह निश्चित रूप से किसी भी लोकतंत्र के लिए सोचनीय है. बहरहाल जब भी हम किसानों कि आत्महत्याओंकी बातें करते है तब हमारे सामने समूचा विदर्भ एक बड़े उदाहरण के रूप में आ जाता है. यह इसीलिए क्योंकि यहाँ की सामाजिक, भौगोलिक, राजनितिक, आर्थिक स्थिति है उसका समायोजन उचित रूप से नहीं हो पाया इसके अलग-अलग कारण हैं. प्रारब्ध से ही विदर्भ की आर्थिक और सामाजिक रचना में अत्यंत डावाडोल स्थिति है. यहाँ पर अभी भी कई कुव्यवस्थाएं कायम हैं. अंबेडकरी आंदोलन की भूमि होने के बावजूद समाज व्यवस्था में सवर्णों का प्रभुत्व दिखाई देता है. आर्थिक स्तरों की बात की जाए तो आमिरी और गरीबी के बीच उतनी ही बड़ी दरार है जितनी सरकारी योजनाए और किसानों के बीच. इसी का परिणाम है कि नक्सलवाद गढ़चिरोली से होते हुए धीरे-धीरे पूरे विदर्भ में फैल रहा है. वैसे तो किसानों की समस्या पर मीडिया ज्यादा फोकस करती है क्योंकि पिछले 10 सालों में करीब 80 लाख लोगों ने खेती करना छोड दिया हैं और 9 साल में डेढ़ लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है यह आंकड़े मीडिया ने ही उजागर किए. सरकारी कर्ज वितरण की प्रणाली में आई त्रुटियों के कारण किसानों को निजी साहूकारों से कर्ज लेना पड रहा है लिहाजा किसानों को बड़ी ब्याज दर चुकानी पड़ती है. 

किसानों की मजबूरी का फायदा उठाने के लिए ब्याजदर लूटनेवाली कई संस्थाए यहां पर खुल गई हैं. कृषि उत्पादों के खरीदी-बिक्री की व्यवस्था न होने के कारण किसानों के उत्पाद को उचित दर नहीं मिल पाता है. सरकारी रिपोर्ट, आत्महत्याओं के आंकडे और प्रत्यक्ष वस्तुस्थिति में भारी विरोधाभास नजर आता है. किसानों की आत्महत्या को भी सरकार वर्गीकृत कर रही है जैसे- किसान आत्महत्या, सरकारी मदद को पात्र और अपात्र आत्महत्या आदि आदि. किसान के मरने के बाद का जो एक लाख रुपए का राहत मुआवजा किसानों को दिया जाता है उसे लेने के लिए भी उस किसान परिवार को न जाने कितनी जद्दोजिहद करनी पडती है. अगर इस बात को हम ध्यान से समझे तो यह ज्ञात होता है कि जिन किसानों को सरकारी मदद मिली है वहीँ किसान आत्महत्या की श्रेणी में आता है बाकि नहीं. अब यहां पर उपर्युक्त आंकड़े भी हमें झूठे लगने लगते हैं. बहरहाल मुख्य सवाल यह है कि आखिर किसान क्यों मर रहा हैं? यह नहीं है कि कोई किसान किसी पार्टी या सरकार के खिलाप चिठ्ठी लिखकर मर जाए और हम फिर उस सरकार को हटाने की मांग करें. 

किसानों की समस्याओं का मूल रूप अगर ध्यान में लिया जाए तो इसके लिए समूचे सरकार को दोष देना उचित नहीं हैं योजनाओं पर उचित अंमल आवश्यक है. नहीं तो यहां की राजनीति में ऐसा भी हो सकता है कि इस किसान ने आत्महत्या कर कांग्रेस पार्टी के सरकार को अपनी मौत को जिम्मेदार ठहराया. कल और कोई किसान आत्महत्या करेगा और अन्य पार्टी को जिम्मेदार बताएगा. तो क्या हम बार-बार उस सत्ताधारियों या फिर पार्टियों को दोषी बताकर बर्खास्त करेंगे और नई सरकारें स्थापित करेंगे? यहां मूल समस्याओं पर ध्यान देने की जरुरत हैं, नहीं तो सरकारें बदलेगी लेकिन आत्महत्या का सिलसिला निरंतर चलता रहेगा. सरकार बनाने या बदलने का फैसला तो जनता करती हैं. एक सशक्त लोकतंत्र में कोई समस्या पैदा होती है तो सरकार नहीं नीती बदलने की जरुरत हैं. क्योंकि लोकतंत्र में इसी विश्वास पर सरकारें चुनी जाती है कि वह समस्याओं का निपटारा कर सुविधाओं को जनहित में प्रेषित करें.




निलेश झालटे   
(09822721292)

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