पुण्य करें अपने हाथों से, ठेका न दें पुण्य का - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शुक्रवार, 4 मई 2012

पुण्य करें अपने हाथों से, ठेका न दें पुण्य का

दान, धरम और पुण्य ऐसे नाम हैं जिनके बारे देश का कोई कोना ऐसा नहीं है जहाँ इनके बारे में सुनने को नहीं मिले। जहाँ कहीं धर्म के नाम पर कुछ हो रहा हो और वहां ये शब्द सुनाई न दें तो फिर वह धर्म काहे का। आजकल धर्म और इससे जुड़े विषयों ने उद्योगों का दर्जा हासिल कर लिया है और अलग-अलग रूपों में इनका प्रभाव जनमानस पर मण्डराने लगा है। धर्म को समझने और न समझने वालों से लेकर आधी-अधूरी समझ रखने वाले तक धर्म के प्रचार के साथ दान-पुण्य की बातें करना कभी नहीं भूलते। काफी जगह धर्म और देवालयों के नाम पर जो कुछ हो रहा है वह सब लोगों की आँखों के सामने है।

कहीं बाबों और मठों, कहीं मन्दिरों तो कहीं धर्मशालाओं और गौशालाओं के नाम पर दान-पुण्य का बोलबाला है। कई जगह तो वास्तव में धर्म और दान-पुण्य के सारे अर्थ साकार हो रहे हैं और इनका अच्छा प्रभाव भी देखा जा रहा है। लेकिन अधिकतर स्थलों पर धर्म और मन्दिरों के नाम पर रिलीजन और टेम्पल इण्डस्ट्रीज का कारोबार खूब फल फूल रहा है। प्राचीनकाल से धर्म और दान-पुण्य का अपना महत्त्व रहा है लेकिन अब इनके रूप और आकार तथा मकसद बदल गए हैं। समाज के लिए जीने वाले गृहस्थियों का धर्म है कि अपने आस-पास के प्राणी मात्र की सेवा करें और इस सेवा के साथ जो भी कुछ किया जाता है वह पुण्य की श्रेणी में आता है।

पुण्य अर्जित करने के कई मार्ग हैं जिनका सहारा लेकर धर्म और परम्पराओं का निर्वाह करते हुए ईश्वर की प्रसन्नता का अनुभव किया जा सकता है। रुपए-पैसों, द्रव्य और श्रम जैसी कई परम्पराएं हमारे यहां पुण्यार्जन का माध्यम रही हैं। सदियों से इन्हीं के सहारे हम आगे बढ़ रहे हैं। पिछले कुछ वर्ष से चन्दा और दान जैसी परम्पराओं का प्रवाह कुछ ज्यादा ही तेज हो चला है। जहाँ जाएं वहाँ दान और चन्दे की बात पहले होती है। लगता है जैसे दान और चन्दे के बिना ईश्वर की प्राप्ति हो ही नहीं सकती। धर्म के नाम पर दान-पुण्य और चन्दा लेने वालों की नई प्रजाति का आविर्भाव हर कहीं हो चुका है जिनके जीवन का मकसद ही धर्म के नाम पर पैसा उगाहना रह गया है। चाहे जिस तरह हो सके, लोगों का पैसा उन तक पहुँच ही जाए।

कभी धर्म के नाम पर भगवान को खुश करने की बात कहकर, कभी मनोकामनाएं पूरी होने के नाम पर, कभी पितरों की शांति और गृह कलह समाप्ति के नाम पर तो कभी बुरी आत्माओं और ग्रहों को नियंत्रित करने के नाम पर पैसा निकलवा लिया जाता है तो कभी ढोंगी बाबे और धूर्त्त धंधेबाज अनिष्ट का भय दिखाकर रुपए ऐंठ लेते हैं। इन सभी में कहीं न कहीं पुण्य और धर्म के नाम पर पैसा बनाने का घोर षड़यंत्र हर कहीं पूरी व्यापकता और स्वच्छन्दता के साथ पसरता जा रहा है। जबकि हकीकत में ईश्वर और धर्म का धन से कोई संबंध है ही नहीं। ईश्वर के सामने सब बराबर हैं। बल्कि वह व्यक्ति ज्यादा कृपा पाता है जो निर्मल, सहज और सरल होता है।

ऐसे धंधेबाजों की एक और किस्म पनप गई है। धर्म और पुण्य के काम होंगे हजारों मील दूर, और पैसा वसूलेंगे अपने यहाँ, वो भी धर्म और दान-पुण्य के नाम पर। ऐसे दान और पुण्य का कोई मतलब नहीं है जो हमारे अपने लोगों के किसी काम न आए। जितना रुपया पैसा हम दान-पुण्य के नाम पर बाहर भेजते हैं उसका आधा भी यदि अपने यहाँ स्थानीय क्षेत्रों में होने वाले पारमार्थिक पुण्यशाली कार्यों में खर्च हो जाए, तो फिर कहने ही क्या? इसलिए यथासंभव अपने क्षेत्र की गतिविधियों के लिए ही पुण्य का मार्ग अपनाना श्रेयस्कर होता है। यह बात उन सभी संस्थाओं को भी समझनी चाहिए जो पाश्चात्य प्रभावों में आकर सेवा के नाम पर आए दिन कुछ न कुछ करते रहते हैं।

इसी प्रकार जब भी कुछ पुण्य करना हो, इसे अपने हाथ से करें तभी इसका महत्त्व है। अधिकांशतया लोग दान-पुण्य के नाम पर राशि दे देते हैं लेकिन उसके पुण्य का लाभ उन्हें तभी मिल पाएगा जब उनकी दी हुई राशि का उपयोग हो जाए। प्रायःतर हम जिस पुण्य को पाने के लिए धरम और दान के रूप में राशि देते हैं वह संबंधित संस्थाओं द्वारा अक्सर रूपान्तरित हो जाती है या संग्रह के खाते में चली जाती है। ऐसे में उस राशि का तब तक लाभ हमें नहीं मिल पाता जब तक कि उसका उस काम में उपयोग न हो जाए, जिसके लिए राशि प्रदान की गई है। इसी प्रकार द्रव्य के बारे में भी जानना चाहिए। दान और पुण्य का लाभ तभी संभव है जब उसका समय पर उपयोग हो जाए।

जब भी जीवन में किसी भी प्रकार का पुण्य कार्य  करना हो तब खुद अपने हाथ से करें, तो ही इसका पूरा-पूरा लाभ प्राप्त हो सकता है। ईश्वर के वहाँ उन लोगों के पुण्य का महत्त्व ज्यादा होता है जिनका मन-मस्तिष्क और शरीर सभी इन्द्रियां पुण्य में सहभागी हों। अपनी धन-सम्पत्ति दूसरों को देकर पुण्य का ठेका न दें, रुपया-पैसा देकर पुण्य का ठेका दे दिए जाने की प्रथा गलत है। दान-धरम और पुण्य का सीधा लाभ चाहें तो खुद के हाथों ही वह सब कुछ करें जिसे पुण्य और दान की श्रेणी में माना जाता है। यही जीवन के लिए पुण्यदायी है।


---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077

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