आलोचना ही न करें, कभी माधुर्य भी प्रकटाएँ - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 17 मई 2012

आलोचना ही न करें, कभी माधुर्य भी प्रकटाएँ

हर आदमी का अपना-अपना मौलिक स्वभाव होता है। स्वभाव कई रूपों में सामने आता है। कभी मौलिकता लिए हुए होता है, कोई आडम्बरी और कोई दोहरा-तिहरा भाव प्रकटाने वाला। कुछ लोग शैशव से ही एक जैसे होते हैं, कुछ जमाने की हवा पाकर बिगड़ जाते हैं, कुछ दुष्टों की संगति पाकर, और कुछ किन्हीं और कारणों से। अलग-अलग स्वभाव वाले लोगों के कारण ही जमाना सतरंगी बना रहता है। फिर भी व्यक्ति का स्वभाव संस्कारों के बीजारोपण से लेकर पल्लवन की स्थितियों पर ही निर्भर करता है। स्वभाव की दो स्थितियां मुख्य रूप से उभर कर सामने आती हैं। नकारात्मक और सकारात्मक। जहाँ स्वभाव में नकारात्मकता घर कर लेती है वहाँ व्यक्ति मूल्यांकन के सारे गुण-धर्म गँवा बैठता है। वह सही को सही नहीं कह सकता, और गलत को गलत नही। बल्कि सही को गलत ठहराना ऐसे लोगों के लिए आसान होता है और असत्य तथा अहंकार इतना हावी होने लगता है कि संसार की हर घटना की आलोचना करने के सिवा उन्हें चैन नहीं आता। इनका पूरा आभा मण्डल आलोचनाओं के कई-कई घेरों से इस कदर घिर जाता है कि उन्हें हर तरफ अंधेरा ही अंधेरा नज़र आता है।

अपने यहाँ ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है जिन्हें हर काम में आलोचना और निन्दा ही सूझती है जैसे कि वे अपने क्षेत्र के एक्सपर्ट ही हों। दुनिया का अच्छे से अच्छा काम या आदमी इन्हें खराब ही लगता है और उसकी आलोचना इनका जन्मसिद्ध अधिकार। जैसे कि इनका जन्म ही इस पावन धरा पर आलोचना और निन्दा के लिए हुआ है। जहां कहीं इनकी पावन देह विराजमान रहेगी या भ्रमणशील होगी, चार लोग ऐसे मिल ही जाते हैं जो दुम हिलाते नज़र आते हैं और इनकी हाँ में हाँ करने लगते हैं। इनमें कई पिल्ले तो इनके पाले हुए होते हैं और कई झूठन चाटने के फेर में इनके इर्द-गिर्द यों ही मण्डराते रहते हैं। फिर बड़ा भौंकता है तो नैतिकता के आधार पर छोटों को तो जोर-जोर से  भौंकना ही पड़ता हैै। कोई इलाका ऐसा नहीं बचा है जहाँ इनका अस्तित्व सहज ही न दिख जाए। इनकी हर अदा और हर वाक्य में आलोचना और निन्दा के सिवा कुछ होता ही नहीं। सवेरे नींद से जगेंगे तब भी सूरज को देख खामी निकालने में माहिर इन लोगों को जहाँ जो कुछ दिखता है उसकी खामियां निकालनी शुरू कर देते हैं। जो काम इन्होंने जीवन भर नहीं किये हों अथवा किए हों, अपने अनुभवों से लाभान्वित करने में इन्हें उतनी रुचि नहीं होती जितनी रुचि नुख्स निकालने में हुआ करती है।

जीवन में व्यवहार माधुर्य का सबसे अच्छा तरीका यह है कि किसी भी प्रकार की कमी दिखाई देने पर अकेले में संबंधितों को इसके बारे में बताएं और अपने अनुभवों का लाभ देकर बेहतर बनाने के लिए सुझाव भी दें। पर आजकल ऐसे भारी लोग रहे ही नहीं, वो जमाना बीत गया। आजकल चारों ओर खाली ड्रम और पीपे खूब हैं जो सिर्फ बजना जानते हैं, सुकून देना नहीं। हमारे आस-पास ऐसे खूब लोग हैं जो किसी की बुराई या निन्दा करने के लिए मौके की तलाश में रहते हैं और जहाँ कोई सार्वजनिक मंच इन्हें मिल जाता है या ये हथिया लेते हैं, वहाँ सारी भड़ास निकालते हुए आलोचनाओं के अग्निबाण छोड़ देते हैं। कई बार तो बेचारे उन आयोजकों की आफत ही आ जाती है जो उन्हें विद्वत्ता या लोकप्रियता के भरम में आमंत्रित कर लाते हैं। 

समाज में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है जिनका एकमेव उद्देश्य आलोचना करना, सुनना और आलोचनाओं  में जीना ही रह गया है। लगातार ऐसी प्रवृत्तियां अपनाते रहने से क्षेत्र के लोग भी इनसे इस कदर उकता जाते हैं कि बस। इन लोगों को लगता है कि आलोचना के अस्त्र चलाकर ही वे लोकप्रियता का रण जीत सकते हैं, और इसीलिए जहाँ मौका मिलता है वहाँ आलोचना का दामन थाम लेते हैं। जो लोग अपने जीवन में आलोचना को हथियार मानकर चलने के आदी हो गए हैं उन्हें गंभीरता से यह चिंतन करना होगा कि आलोचना को अपनाने के बाद लगातार लोग उनसे छिटकने लगे हैं और दूरियां बढ़ती जा रही हैं। मजबूरी को छोड़ दें तो कोई भी आदमी उनकी छाया तक के पास फटकना नहीं चाहता। आलोचना करें लेकिन इसके लिए सार्वजनिक मंच या समूहों को माध्यम न बनाएं बल्कि संबंधित व्यक्तियों के समक्ष अपनी आलोचना का इज़हार करें, हर अवसर को आलोचना का मंच न बनाएं। सदैव आलोचना करने वाले लोग कालान्तर में हास्यास्पद विदूषक की लोकपदवी पर प्रतिष्ठित हो जाते हैं। समझदार लोग इन्हें खर-दूषण की संज्ञा देने में भी कभी नहीं चूकते।

आलोचना में ही रमे रहने वाले लोग एक बार समय निकाल कर आत्मचिन्तन करें तो उनकी अन्तर आत्मा स्पष्ट संकेत कर ही देगी कि अब तक गुजारे हुए क्षणों में उनका कितना पतन हो चला है। इसलिए आलोचना करें मगर समय और मंच देखकर।  अपने स्वभाव को बदल नहीं पाएं तो धीरे-धीरे प्रयास करें और व्यक्तित्व में माधुर्य लाएं। ऐसा हो जाने पर जीवन की कई धाराएं अपने आप करवट लेने लगती हैं और नई जिन्दगी का अहसास होता है। इससे कई बदलाव अपने आप शुरू हो जाते हैं। जीवन में यदि सच बोलने का साहस ही अपना लिया जाए तो कई मामलों में माधुर्य अपने आप आ ही जाता है क्योंकि सच हमेशा पारदर्शी होता है। सब कुछ जानते बूझते हुए भी बदलाव लाने को कोई तैयार नहीं है तो यह निश्चित मानियें कि इस जन्म में वह कभी नहीं सुधर सकता है और ये बुराई उसके शरीर के साथ ही जाने वाली है। भगवान करे ऐसे सारे लोगों को उनकी उमर रहते सद्बुद्धि आ जाए जो आलोचनाओं और निन्दाओं को ही जीवन का आधार मानकर कमा खा रहे हैं। विश्वास किया जाना चाहिए कि कभी तो अच्छी हवाएँ आएंगी और यह प्रदूषण खत्म होगा।


---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077

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