ये चापलुसों की ही सुन पाते हैं
अपने यहाँ कई तरह के आदमी होते हैं जो कच्चे और पक्के नामों से जाने जाते हैं। कोई किसी का कच्चा होता है, कोई किसी का पक्का। कई अधकच्चे और अधपके भी होते हैं। जो कच्चे हैं वे पक्का होने की तमन्ना संजोये बरसों गुजार देते हैं। इसी तरह जो पक्के हैं वे और ज्यादा पक्के होने की जिद में परिपक्व हुए जा रहे हैं। कई कितनी ही तरह से कच्चे हैं मगर पक्के की खाल ओढ़े हैं और कई पक्के बेचारे ऐसे हो गए हैं जिनका कोई नामलेवा नहीं है। कच्चे लोगों मेें कई ऐसे होते हैं जिन्हें लंगोट का कच्चा, दिमाग का कच्चा, बात का कच्चा आदि कहा जाता है और कई ऐसे हैं जिन्हें कहीं और मामलों में कच्चा होने की उपाधि प्राप्त है। लेकिन आदमियों की एक किस्म ऐसी है जो न और कहीं से कच्चे हो न हों, कानों से जरूर कच्चे होते हैं।
ये लोग अपने भाषणों और अनर्गल बकवास में इतने प्रवीण होते हैं कि सामने वालों के कान पका देने तक की महारथ जरूर रखते हैं मगर खुद कानों के इतने कच्चे हुआ करते हैं कि कुछ नहीं कहा जा सकता। इन पर तरस आनी स्वाभाविक है। कानों का कच्चा होने की बीमारी बड़े लोगों में ज्यादा होती है। इनमें बड़े लोग उन्हें कहा जाता है जिनका कद बड़ा होता नहीं है पर उन्हें भ्रम होता है कि ये बड़े हैं। और यों भी आजकल लोगों को फलों से कहीं ज्यादा स्वाद आता है आलूबड़ों, मिर्चीबड़ों, दहीबड़ों में और दालबड़ों में। फिर ये लोग तो ऐसे हैं जो सदाबहार बड़े हैं। बड़े लोगों को बड़े कान का होना चाहिए। जो गणेश बनता है उसके कान गणेश की तरह ही होने चाहिए। मगर ऐसा हो कहाँ पाता है। आजकल तो जो जितना बड़ा, उतने ही छोटे उसके कान। कान छोटे हों तब भी कोई बात नहीं। हैरत की बात तो यह है कि छोटे कानों के बावजूद कान के ये इतने कच्चे होते हैं कि कोई भी कान फूंक जाता है और वे भी उसी के कहे अनुसार सर हिलाते हुए आगे बढ़ चलते हैं।
आजकल हर तरफ कच्चे कान वालों की तादाद बढ़ रही है। जिस बेतहाशा ढंग से कानों के कच्चे लोगों की संख्या बढ़ रही है उसी अनुपात में उन लोगों की भी भीड़ बढ़ने लगी है जो कान फूँकने में माहिर हैं। इनकी फूँक में इतनी ताकत आ गई है कि जिसका कान फूूँकें वो दुम हिलाता हुआ सब कुछ करने के लिए हाजिर हो उठता है। जितने उनके कान कच्चे, उतनी ही इनकी फूँक में ताकत का जोर। कच्चे कान वालों के इर्द-गिर्द जमा भीड़ भी ऐसी कि कई मामलों में कच्ची ही होती है। ये किस हिसाब से कच्चे हैं उसके बारे में किसी को कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है। कुछ लोग अन्तःवस्त्रों के कच्चे हैं तो कुछ ऊर्ध्व अंगों के, कुछ जेब के तो कुछ थैलियों या अटैचियों के। इन कच्चों और कच्चे कान वालों ने सारे समाज का और देश का कबाड़ा कर रखा है, फिर देश कैसे पक्का हो? कच्चे कान वाले लोग कितने ही बड़े हों लेकिन इस मामले में कच्चे ही होते हैं। भगवान ने इन लोगों मेें इतना बड़ा डिफेक्ट छोड़ दिया है कि इनके कान और दिमाग में कहीं कोई संतुलन नहीं बैठ पाता। जो बात कानांे में फूँक दी जाती है वह गले उतर जाती है चाहे वह कितनी ही भ्रामक या झूठी क्यों न हो।
हर गली-चौराहे से लेकर जयपुर-दिल्ली तक के गलियारों तक फैले हुए हैं डेरे कच्चे कान वालों के। इन्हीं के आस-पास छायी होती है उन कारिन्दों की जमातें जो इन कानों के लिए टॉनिक देते हुए कान फूँकती रहती हैं। कच्चे कानों और कारिन्दों का यह रिश्ता उस हर आदमी इर्द-गिर्द साये की तरह लगा रहता है जो पॉवर में होते हैं या पॉवर में होने वालों की बुहारी या चम्पी में लगे रहते हैं। कान भरने वाले लोगों के सामने अपना वजूद साबित करने के लिए इसके सिवा और कोई दूसरा रास्ता होता ही नहीं है जिसे शार्टकट के रूप में ये अपना सकें। कान भरना और कान फूंकना इन दोनों कामों के बूते ही इनकी चवन्नियाँ धड़ल्ले से चल निकलती हैं, फिर अपनों पे करम और गैरों पे सितम का हर खेल इनके हाथ में होता है। एक बहुत बड़ा सवाल हमारे सामने यह है कि बड़े लोग ही बहुधा कच्चे कानों के क्यों होते हैं। इसका सीधा सा उत्तर यही होगा कि ज्यों-ज्यों ये लोग बड़े होते जाते हैं सच्चाई और संवेदनाओं से इनका रिश्ता खत्म होता जाता है और जहाँ सारी इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं वहाँ कान ही काम आते हैं।
जीवन की सच्चाई से दूर होते चले जाने वाले बड़े लोगों की हरकतों और अहंकार की वजह से सज्जनों का कुनबा इनसे धीरे-धीरे किनारा करने लगता है ऐसे में इनके पास कोई ऐसा नहीं होता जो इनके कान खिंचने का साहस कर पाए। फिर बड़े कहे जाने वाले ये लोग भी सच सुनना भुला बैठते हैं। इनके पास सारे के सारे वे ही होते हैं जो इनका मिथ्या जयगान करते हुए इनके कान भरते और फूँकते रहते हैं। जब कोई कान खिंचने वाला नहीं होता तब कान कच्चे रहने की स्थितियाँ आ ही जाती हैं। इन कच्चे कानों वालों की कोई दवाई नहीं है, और न ही उन लोगों की कोई दवाई है जो कान भरने के आदी होते हैं। एक-दूसरे की जिन्दगी को टॉनिक देते रहने के लिए इन दोनों ही किस्मों के लोग जरूरी हैं। अकेले कान अपने आप कच्चे नहीं होते, दूसरे कई मामलों में आने वाली कच्चाई से ही कान कच्चे होने लगते हैं। ऐसे में जरूरी यह हो चला है कि कच्चे कान वालों से दूर रहें और उन लोगों से भी उचित दूरी बनाये रखें जो कान भरने में सिद्ध हैं। ये महामारी तभी दूर होगी जब कच्चे कान वाले हवा से उतर कर जमीन पर पाँव रखने लग जाएं। लेकिन तब भी इनकी संख्या उतनी ही बनी रहेगी क्योंकि तब दूसरे लोग जमीन से ऊपर उठ कर हवा से बातें करने लग जाएंगे। उन चापलुसों की तो हमेशा मौज रहेगी क्योंकि हर कोई अपने कानों में वो ही संगीत सुनने का आदी होता है जिसमें उनका जयगान हो।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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