नपुंसकता है तटस्थ बने रहना... - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

Breaking

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा । हृदय राखि कौशलपुर राजा।। -- मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी ।। -- सब नर करहिं परस्पर प्रीति । चलहिं स्वधर्म निरत श्रुतिनीति ।। -- तेहि अवसर सुनि शिव धनु भंगा । आयउ भृगुकुल कमल पतंगा।। -- राजिव नयन धरैधनु सायक । भगत विपत्ति भंजनु सुखदायक।। -- अनुचित बहुत कहेउं अग्याता । छमहु क्षमा मंदिर दोउ भ्राता।। -- हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता। कहहि सुनहि बहुविधि सब संता। -- साधक नाम जपहिं लय लाएं। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएं।। -- अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के । कामद धन दारिद्र दवारिके।।

रविवार, 6 मई 2012

नपुंसकता है तटस्थ बने रहना...

निरपेक्ष रहें, साफ-साफ कहें !!!


 स्वार्थ की अँधी दौड़ में मानवीय प्रजातियाँ कहीं स्थिर नहीं हो पा रही। लोेग दौराहों, चौराहों, सर्कलों और अंधी राहों-गलियों में भटकने लगे हैं। जब मन भर आता है तब बदल लेते हैं अपनी जगह। इसी तरह जगह बदल-बदल कर कुछ पाने के फेर में भटकने के आदी होते जा रहे हैं। पूरी जीवनयात्रा इन्हीं दोराहों, चौराहों और सर्कलों की भुलभुलैया में चक्कर काट रही है। कोई कहीं भी संतुष्ट नहीं है। हर कोई असंतोषी या विघ्नसंतोषी होता चला जा रहा है और जिन लोगों के जीवन में असंतोष घर कर लेता है फिर वे किसी भी दूसरे को संतोषी होता न देख सकते हैं न संतोषी बना सकते हैं।

ऐसे लोग जीवन के अंतिम क्षण तक संतोषी नहीं हो सकते, चाहे खुद संतोषी माता उनके सामने आकर खड़ी क्यों न हो जाए। मनुष्यों की इसी परंपरा में एक अजीब प्रजाति है तटस्थ लोगों की। इस प्रजाति की वजह से ही समाज से लेकर देश में परिवर्तन की हर लहर फीकी हुई है और बड़ी-बड़ी क्रांतियाँ समय पर सफल नहीं हो सकी। तटस्थों की जात में कोई अनपढ़ नहीं होता, इसमें वे लोग शामिल हैं जिन्हें पढ़ा-लिखा और बुद्धिजीवी कहा जाता है। अनपढ़ आदमी जितना भोला-भाला हुआ करता है उतना ही पढ़ा-लिखा आदमी विलोमानुपाती रूप में ज्यादा स्वार्थी और तटस्थ होता है। तभी तो बड़े से बड़ा अपराध और भ्रष्टाचार वे लोग कर रहे हैं जो पढ़े-लिखे हैं।

आदमी अपने स्वार्थों में इतना डूबा होता है कि उसे बाहर से बहुत कुछ पाने की तमन्ना भी होती है और पा लेने की यात्रा के लिए अपनाए जाने वाले हथकण्डों से अपनी दूरी भी दिखाए रखना चाहता है। कोयले की खान में रहने और रमने का आदी होने के बावजूद शुभ्र ही शुभ्र दिखना चाहता है। आशाओं, आकांक्षाओं और अपेक्षाओं से भरा-पूरा आदमी अपनी छवि को साफ-सुथरा बनाए रखने और सब कुछ चुपचाप, बिना किसी बाधा से बटोरने की परम्परा को जीवित रखने के लिए ओढ़ लेता है तटस्थता की चादर। तटस्थता का चोगा पहनने वाले व्यक्ति कभी निरपेक्ष नहीं हो सकते। ये निरपेक्ष हों और तटस्थ बनें रहें तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होती। मगर ऐसा होता नहीं। तटस्थ लोगों के जीवन और चरित्र पर थोड़ा गौर करें तो पाया जाता है कि ऐसे लोग मैं और मेरा में डूबे रहने वाले ऐसे आदमी होते हैं जिनके लिए आत्मकेन्द्रित प्रवृत्तियाँ ही सर्वोपरि हुआ करती हैं।

इनके मन में किन्हीं औरों के प्रति कोई मानवीय संवेदना नहीं हुआ करती बल्कि इनकी पूरी जिन्दगी तटस्थता के खोल में रहकर अपनी छवि को निखारने के लिए समर्पित होती है। यह तटस्थता ही होती है जो इन्हें ताजिन्दगी कृत्रिम तौर पर गंभीर, शालीन और लोकप्रिय बनाए रखती है। हालांकि असल में ये ऐसे होते नहीं जैसे दिखते और बनते हैं। ये तटस्थता को न ओढ़ें रहें तो इनके कई उल्टे-सीधे काम और हरकतें उजागर हो जाएं, और ऐसा हो जाने पर इनकी छद्म लोकप्रियता औंधे मुँह गिरने का भय हमेशा सताता रहता है। इसीलिए कोई भी बात कहने पर ये यह कहकर मुँह फेर लेते हैं कि इससे उनका कोई मतलब नहीं।यही कारण है कि तटस्थ लोग नपुसंकता के साथ जीते हैं। इनका स्वभाव ही ऐसा हो जाता है कि जहाँ रहेंगे वहाँ हाँ में हाँ करते रहेंगे। इनके सम्पर्क में आने वाला जो भी आदमी जो कुछ कहे, हाँ जी, हाँ जी करते रहेंगे।ये लोग सच को सच कहने या कि झूठ को झूठ कह देने का जरा भी साहस नहीं रखते। राम की भी जय और रावण की भी जय, कंस की जय और कृष्ण की भी जय... कहने और करने वाले ऐसे तटस्थों की यह नपुंसक जमात ढेरों ख़ासियतें लिए हुए होती है।

‘गंगा गए गंगादास और जमना गए जमनादास...’ जैसी प्रवृत्ति और प्रकृति में ढल चुके ऐसे लोगों की वजह से ही समाज में उन सभी लोगों को खुलकर अन्याय और अत्याचार ढाने का मौका मिल रहा है जो बेईमान, भ्रष्ट और कदाचारी हैं।ये निवीर्य और नपुंसक लोग तटस्थता की आड़ में जो कुछ कर रहे हैं वह किसी से छुपा हुआ नहीं है। तटस्थ लोगों की वजह से समाज को जितना नुकसान हो रहा है उतना विदेशी आक्रांताओं या आतंकवादियों या कि समाजकंटकों से भी कभी नहीं हुआ। मजे की बात यह है कि समाज के नवनिर्माण में तनिक भी योगदान नहीं कर सकने वाले ऐसे तटस्थों की जमात हर कहीं उपदेशक बनी हुई है।सच कहें तो तटस्थ का अर्थ यों होना चाहिए कि जिसके दोनों तट अस्त हो जाएं वही तटस्थ। ऐसे तटस्थ लोगों का जीवन तटों के बीच रहकर मझधार जैसा ही रहता है। एक समय ऐसा भी आता है जब सच और सब्र को रोकने वाले सारे बाँध टूट जाते हैं।आज तटस्थता को त्याग कर निरपेक्ष और अनासक्त होने की जरूरत है लेकिन इसका यह अर्थ भी नहीं कि परिवेशीय और सामाजिक हलचलों के प्रति बेपरवाह रहें।  मानवीय संवेदनाओं और नैतिक मूल्यों का आदर्श पहलू यह है कि जो अच्छा है उसे अच्छा कहें और बुरे को बुरा कहने का साहस रखें।जिसमें सत्य और असत्य में भेद करना और सच के साथ खड़े होने का माद्दा  नहीं है उसे मनुष्य की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए। इनका स्थान पालतु पशुओं के बाड़े में होना चाहिए या जंगल में उन्मुक्त विचरण करते जंगलियों में अथवा शहरों और महानगरों में इधर-उधर मुँह मारते आवारा श्वानों और सूकरों में।


---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077

कोई टिप्पणी नहीं: