यह जरूरी नहीं कि हम जहाँ रहते हैं, हमारे आस-पास जिन्दा लोग ही हों। जमाने भर में हर तरफ सभी प्रकार के लोग पाए जाते हैं। इन सभी किस्मों के लोगों से हमारा पाला पड़ता रहता है। दुनिया की भीड़ में जो लोग हमारे आस-पास होते हैं या दिखते हैं उनमें तीन श्रेणियों के लोग मिलते हैं। कई जीवित, अर्द्ध जीवित और मुर्दाल लोग हैं जिन्हें जिन्दा, अधमरा और मरा हुआ भी कह सकते हैं। आम तौर पर प्राण निकल जाने के बाद जो बचता है उसी को मुर्दा या बेजान कहा जा सकता है। बहुत से लोग ऐसे होते हैं जो जीते हुए भी मुर्दों की तरह व्यवहार करते हैं।
अपने इर्द-गिर्द खूब सारे लोग ऐसे भी होते हैं जिनके बारे में लोग सोचते होंगे कि इन्होंने संसार में जो कुछ अच्छा-बुरा करना था सो कर दिया, अब इन्हें विदा नहीं हो जाना चाहिए? मानवीय मूल्यों और समाज के लिए जीने वाले अच्छे और श्रेष्ठ लोगों के बारे में ऐसा नहीं भी कहा जा सकता मगर जिन्दगी भर हराम की कमाई खाने वाले, लोगों पर धौंस जमाने वाले और हर बुरे कर्मों को कर चुके लोगों के बारे में तो आम लोगों की यही धारणा होती है कि अब इनका समय पूरा हो ही गया है और उन्हें स्वधाम पधार लेना चाहिए ही।
लोगों का यह भी मानना है कि इन ठूंठों के अस्तित्व के चलते न मैदान में नई पौध को पनपने का मौका मिल सकता है, न जंगल अथवा अभयारण्य में। जिन्दगी भर डर दिखा कर और धौंस जमाकर चमड़े के सिक्के चलाने वाले इन लोगों को हमेशा अपनी शौहरत भरे पुराने दिन याद आते हैं और जब-तब वे अहंकार के बारूद को अपने सीने से लगाए इधर-उधर भ्रमण करते रहते हैं। गुजरे जमाने के इन बादशाहों को हमेशा यह भ्रम बना रहता है कि अब भी समय उनका है और वे आज भी वह सब कुछ कर सकते हैं जो बीते जमाने में कर चुके हैं।
जीवन भर पराये माल पर मौज उड़ाने वाले ऐसे लोगों ने जो कुछ बनाया होता है उसके लिए उनकी मेहनत से कहीं ज्यादा चापलुसी, खुदगर्जी और धौंस का प्रभाव होता है। यह सब कुछ पाते रहने की दशकों भरी यात्रा में ये वह सब कुछ लुटा बैठते हैं जिनकी वजह से आदमी को जिन्दा माना जाता है। न इनकी कोई जमीन होती हैं, न कोई जमीर। उल्टे-सीधे कामों को लगातार करते रहने से इनकी आत्मा भी मर चुकी होती है और किसी यंत्र की तरह इनकी जीवनयात्रा पूरी होने लगती है। शरीर मोटा-तगड़ा भले ही हो मगर इनमें वह तत्व गायब होता है जो आम आदमी के जीवन के लिए जरूरी होता है। इनकी बुद्धि शरीर को छोड़ देती है और फिर इनकी हरकतें सनकी की तरह ऐसी हो जाती हैं कि इनका बोलना सारे अर्थ खो देता है और फिर चाहे जहां किसी के बारे में कुछ भी बकते रहने के आदी हो जाते हैं।
लोग भी इनकी बकवास को बड़े हल्के से लेते हुए ईश्वर को धन्यवाद देना नहीं चूकते जिसने लोगों को तमाशे के लिए ऐसे लोगों को धरती पर बनाए रखा है जो मुफ्त का मनोरंजन करते रहते हैं। फिर जहाँ तमाशा बनने वाले लोग होंगे तो आस-पास जमूरे तो होंगे ही। जिन लोगों का न कोई स्वाभिमान है न कोई हुनर, न मानवीय गुण-धर्म और न लाज-शरम, ऐसे लोगों को मुर्दा कहना ज्यादा प्रासंगिक है क्योंकि इनमें कोई ऐसा गुण शेष नहीं बचता जो इन्हें जीवित मानने लायक हो। जो करना था कर लिया, अब जैसे तैसे जीते हुए शरीर का क्षरण ही होना शेष बचा रहता है। शरीर क्षय होने के शाश्वत सत्य से अनभिज्ञ ऐसे लोग अपना शेष जीवन ऐसे-ऐसे कामों में लगाते हुए दिखते हैं जो किसी भी मनुष्य के लिए वांछनीय नहीं कहा जा सकता।
अपने आस-पास निगाह दौड़ायें तो ऐसे कितने ही लोगों को सूचीबद्ध किया जा सकता है जो इस श्रेणी में रखे जा सकते हैं। हालांकि ऐसे लोग अपने आपको खूब विद्वान, समाजसेवी और चिन्तक तथा समाजसुधारक के रूप में पेश करते रहते हैं और यह जताने का हरचंद प्रयास करते हैं कि वे ही हैं अपने इलाके और जमाने के सिकंदर है, जिनकी आज भी तूती बोलती है। ऐसे लोगों को वे सारे लोग अच्छे लगते हैं जो इनकी झूठी प्रशंसा करते हुए आगे-पीछे घूमते रहते हैं। इन सभी तरह के मुर्दों को सबसे बड़ा भ्रम यह भी होता है कि जो कुछ अपने इलाके में आज हो रहा है वह उनकी बदौलत ही हो रहा है। यह भ्रम ही है जो इन ठूंठों और मुर्दाल लोगों को बकवास करते रहने की ऊर्जा देता रहता है। समझदार लोग तो इनकी हकीकत से वाकिफ होते हैं इसलिए ज्यादा परवाह नही करते और इन्हें लगातार उपेक्षित करते हुए आगे बढ़ते रहते हैं। इन मुर्दों को बोलते रहने दीजियें वरना शरीर क्षय हो जाने के उपरान्त कहीं ऐसा न हो जाए कि ये कहीं भूत-प्रेत के रूप में हमारे सामने आ धमकें। क्योंकि जो जीते जी जैसा रहता है, वैसा ही आगे भी बना रहता है। भगवान ऐसे तमाम मुर्दों को मोक्ष प्रदान करे ताकि हमारे आने वाली पीढ़ियाँ सुकून से जी सकें।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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