लोगों की निगाह सामने होती है और सामने की तरफ देखकर ही जुबाँ अपने आप हलचल करने लग जाती है। अधिकांश लोगों की आदत होती है कुछ न कुछ बोलते रहना। ये लोग समाज के हर क्षेत्र में खूब संख्या में देखने को मिल ही जाते हैं। जिस विषय पर चर्चा हो रही है उससे इनका संबंध हो न हो, ये लोग अपना एक्सपर्ट व्यू देने में कभी पीछे नहीं रहते। हमारे यहां आजकल बैठकों और चर्चाओं का जोर बढ़ने लगा है। ऐसे में इन बैठकों में कई लोग ऐसे होते हैं जो अनावश्यक अपनी राय देने लग जाते हैं।
कई बार तो बैठकों में ये लोग इतना अधिक बोलते चले जाते हैं कि पूरी बैठक का सर्वाधिक समय इनके ही खाते में दर्ज हो जाता है। इनका यह भरम होता है कि जो ज्यादा राय देता है, उसे काबिल समझा जाता है। जरूरी नहीं कि ये लोग कोई विषय विशेषज्ञ ही हों, ये कुछ भी हो सकते हैं। ये सरकारी भी हो सकते हैं और गैर सरकारी भी, और असरकारी भी। यों मानवीय मूल्यों का कायदा यह है कि बिना मांगे किसी को राय नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि इसके कई खतरे हैं। अनचाहे राय मिल जाने पर ऐसी राय की कोई कद्र नहीं होती, दूसरा यह भी देखना जरूरी है कि जिसे कहा जा रहा है वह पात्र भी है या नहीं। अपात्र को किसी भी प्रकार की राय देने का मतलब है आफत मोल लेना।
बिना मांगे राय देने वाले लोगों में अधिकांश खोखले होते हैं और ऐसे लोग अधजल गगरी की तरह बिना जरूरत के भी छलकते रहते हैं। जो लोग किसी भी समय और कहीं भी बेवजह राय अलापने लग जाते हैं वे आधे-अधूरे होते हैं और स्वयं के जीवन में कहीं न कहीं कुछ न कुछ अधूरापन इनमें लगातार बना रहता है। जहाँ अपनी कोई भूमिका न हो, अपना विषय न हो, वहाँ बिना पूछे हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। जो लोग ऐसा करते हैं वे खुद अपने आपको कितना ही बुद्धिमान सिद्ध करते रहें मगर इनकी स्थिति हर कहीं हास्यास्पद होती है और अघोषित विदूषक के रूप में चर्चित रहते हैं। इन विदूषकों के लिए कोई स्थान व समय असामयिक नहीं होता बल्कि इनकी राय भरी वाणी चाहे जहां मुखरित हो ही जाती है।
राय देने में माहिर लोगों की एक बहुत बड़ी कमजोरी यह भी होती है कि वे जो कहेंगे दूसरों के बारे में कहेंगे, इन्हें कोई दूसरा राय देने का साहस नहीं जुटा पाता। न ही ये राय देने वाले लोग दूसरों की भली-बुरी राय सुनना पसंद करते हैं। फटे में टाँग अड़ाने वाले लोग सर्वत्र पाए जाते हैं। देश और दुनिया का कोई कोना ऐसा नहीं है जहाँ इस किस्म के लोग उपलब्ध न हों। घर-परिवार से लेकर स्कूल परिसरों, दफ्तरोें और गलियों-चौराहों, सभी तरह के गलियारों, आश्रमों, मठों और सामान्य से लेकर असामान्य स्थलों तक इनका वजूद बरकरार है।
यहाँ तक कि मन्दिरों और चौरों से लेकर धर्मशालाओं और श्मशान घाटों तक पसरे हुए हैं राय मार्गी महानुभाव। जमाने भर की घटनाओं और दुर्घटनाओं का विश्लेषण करते हुए ये अपनी-अपनी राय देने में जवानी और बुढ़ापा तक गुजार देते हैं। इन लोगों के घरवाले कितने सहनशील हैं, इस बारे में इनके परिजनों की बजाय कौन सही-सही बयाँ कर सकता है। मुफ्त की राय देने वाले लोग आए दिन अपने वक्तव्यों को लेकर समस्या से ग्रस्त होते रहते हैं और इन्हीं समस्याओं से सृजन होता है इनके लिए राय का। राय कहें या सुझाव, इनकी स्टाईल भी ऐसी होती है जैसे जो ये कह रहे हैं वे इनके दीर्घकालीन जीवन का सारभूत अनुभव ही हो। कभी लगता है ये राय दे रहे हैं, कभी इनकी वाणी उपदेश लगती है और कभी व्यंग्य। यों भी जो लोग राय देने के आदी होते हैं उनकी वाक्य शैली व्यंग्य प्रधान ही होती है।
जहाँ कहींे ऐसे राय देने वाले शुभचिंतक मिल जाएं, उनके प्रति सम्मान व्यक्त करें। आज जहां मामूली कंसल्टेंसी का भी पैसा लिया जाने लगा है, वहां ये निःशुल्क राय से रूबरू करवाते रहे हैं। ऐसे लोगों से पिण्ड छुड़ाना ही हो तो इन्हें देखते ही इनके बारे में शालीनता के साथ कोई राय परोस दें। इससे अपनी कई भावी समस्याएं आसानी से हल हो जाती हैं। जीवन का असली आनंद पाना चाहें तो फटे में टाँग न अड़ाएं और न राय देने की कोशिश करें। बिना माँगे जो दिया जाता है उसका कोई मोल नहीं हुआ करता।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
3 टिप्पणियां:
सुन्दर और विचारपरक आलेख ..
पर कहीं यह 'राय' तो नहीं दे रही है
अब तो हिंदी ब्लॉगिंग में भी यही हो रहा है। वहां पर तो बाकायदा ठेकेदारी प्रथा आरंभ हो चुकी है।
आपकी पोस्ट 3/5/2012 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
कृपया पधारें
चर्चा - 868:चर्चाकार-दिलबाग विर्क
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