एक जमाना था जब मेहमानों के आगमन की सूचना भर से मन मयूर नाच उठता था और बड़े ही उत्साह व उल्लास से आवभगत की तैयारियाँ होती थीं। मेहमानों के आने पर घर-परिवार में किसी आनंद-उत्सव का माहौल पसर जाया करता था। जीवन के कई रंगों और उत्सवों में मेहमानवाजी भी किसी आत्मीय उत्सव से कम नहीं हुआ करती थी। मेहमानों की बड़ी ही मनुहार हुआ करती थी हर काम में। यह संगम काल ऐसा अद्भुत आनंद देता था कि मेजबान और मेहमान दोनों ही खुशियों से सरोबार रहा करते थे। वैयक्तिक और कौटुम्बिक संवेदनाओं और हृदयस्पर्शी भावों का अतिरेक शाश्वत माधुर्य का ज्वार ही उमड़ा देता था। वह भी समय था जब गर्मी की छुट्टियों में बच्चे अपने नाना-मामा और दूसरे रिश्तेदारों के घर जाते थे और महीने-महीने भर तक रहकर मजे लूटते थे। इसके बावजूद कहीं किसी के माथे कोई झुर्रियाँ नहीं पड़ती थीं और बाल गोपाल की क्रीड़ाओं से सभी आनंदित होते थे। साल भर में कई बार लोग भी अपने नाते-रिश्तेदारों के यहाँ मेहमान बनते थे और सभी आनंद पाते थे।
यों भी भारतीय संस्कृति में ‘अतिथि देवो भव’ को हर युग में विशेष महत्त्व दिया गया था। इसी प्रकार सभी प्रकार के नित्य कर्मों में यज्ञ के रूप में अतिथि यज्ञ की भूमिका को स्वीकारा गया है और इसे प्रत्येक गृहस्थ के लिए अनुकरणीय परंपरा के रूप में स्वीकारा गया है। इतना सब होने के बावजूद कालान्तर में हमारी संवेदनाओं ने आत्मीयता का रंग छोड़कर ऐसा चौला धारण कर लिया कि हमें न कुटुम्ब दिखता है, न परिजन और न समाज या पड़ोसी। हम अपने ‘ मैं ’ और ‘ मेरा ’ की काली चादर में इस कदर लिपट गए हैं कि बाहर की कोई हवा हमें अच्छी लगती ही नहीं। हम हर कहीं हमें ही देखना चाहते हैं और इसके लिए हमने अपनी संकीर्ण परिधियां और फ्रेम गढ़ ली हैं।
हमारी संवेदनाएँ पलायन करती जा रही हैं और सामुदायिक सह अस्तित्व की भावना खत्म होने लगी है। अपने घर की चहारदीवारी में ही सिमटने लगा है अपना संसार। हम चाहते तो हैं सभी लोग हमारे काम आएं, मगर उन लोगों के लिए कुछ सोचना या करना कभी नहीं चाहते। जो कुछ है मेरा अपना है, यह भावना हर आदमी के मन में घर करती जा रही है। अब तो मेहमानों के आगमन की बात सुनकर ही चेहरा फक्क होने लगता है और भगवान से मिन्नतें की जाती हैं कि वे न आएँ तो अच्छा है। पिछले कुछ दशक में अचानक आए ये बदलाव सामाजिक मूल्यों के ह्रास, समरसता में कमी और संवेदनाशून्यता को अभिव्यक्त करते ही हैं, हमारी खुदगर्जी और संकीर्णताओं को भी अच्छी तरह प्रकट करते हैं। अब हम मेहमानों को हमारे यहाँ बर्दाश्त नहीं कर पाते और भगवान से रोजाना की जाने वाली प्रार्थना में अधिकांश लोग यह कहते हैं कि मेहमान उनके वहाँ न आ टपके। आजकल मेहमानों का आगमन निरस्त होने का समाचार पाकर ही प्रसन्नता हो उठती है। सामाजिक मेहमानों के मामले में ही यह हो, ऐसा नहीं है।
हमारे यहाँ कर्ह मेहमान दूसरे प्रकारों के हुआ करते हैं जिनकी मेजबानी हमें विवश होकर करनी पड़ती है। हमें उनके आगमन से एक फीसदी भी प्रसन्नता नहीं होती मगर परायी विवशताओं में ऐसा करने को हम मजबूर रहते ही हैं। ऐसे मेहमान वे लोग होते हैं जो बड़े लोग कहे जाते हैं और उनके जीवन का मकसद ही जबरिया मेहमान बनना होता है। हमारे आस-पास अक्सर होने वाली गतिविधियों में ऐसे ढेरों मेहमानों का बोलबाला रहता है जिन्हें कोई भी व्यक्ति भी पसंद नहीं करता मगर मेहमान बन कर जब-तब आ ही धमकते हैं। ऐसी कृत्रिम और भयग्रस्त मेहमानवाजी से त्रस्त लोग ही अपना दुखड़ा बयाँ कर सकते हैं जिनका अक्सर ऐसे मेहमानों से पाला पड़ता रहता है। कई बार बड़े-बड़े आयोजनों या बड़े लोगों के आगमन के लिए होने वाली तैयारियों के बीच कहीं से जैसे ही उनका दौरा निरस्त हो जाने की खबर आ जाती है, तब कुछेक लोगों को छोड़कर और सभी को जितनी प्रसन्नता हो उठती है, उसे शब्दों में बयाँ नहीं किया जा सकता।
बहुसंख्य लोगोें की इस मानसिकता को समझ कर यह अच्छी तरह जाना जा सकता है कि ऐसे मेहमानों के प्रति हमारे दिल में कहीं कोई जगह बची ही नहीं है। इसमें कसूर मेजबानी करने वालों से कहीं ज्यादा उनका है जो भावनाओं को नहीं समझते हुए मेहमान की तरह आ धमकते हैं और लोगों की सामान्य जिन्दगी में खलल पैदा कर देते हैं। लोग इनके बारे में अक्सर कहते सुने जाते हैं कि भगवान बचाये ऐसे मेहमानों से। लेकिन ऐसे निर्लज्ज मेहमानों को क्या, संवेदनहीनता से भरे इन लोगों को हर कहीं चाहिए जबरिया मेहमानवाजी का सुख। इन सारी स्थितियों का सार यही है कि लोग चाहे कैसे भी हो जाएं, हमारी मानवीय संवेदनाओं को हमेशा जीवंत बनाये रखना चाहिए। इसके साथ ही उन लोगों को भी समझना होगा जो कभी हमारे मेहमान बनने लायक हो भी नहीं सकते।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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