आयातित ज्ञान का भरोसा है बेकार !!
सामाजिक विकास और परिवर्तन के लिए इकाई के स्तर पर बीजारोपण होने पर ही इनका साकार रूप स्वस्थ और दीर्घकालीन बेहतर परिणामदायी हो सकता है। सूक्ष्म से विराट की अवधारणा पर चलकर ही धरा से लेकर व्योम तक में प्रभावी परिवर्तन लाया जा सकता है। आज हर कहीं परिवर्तन की भूमिका रची जा रही है। आधुनिक जमाने की नई विधियों और तकनीकि विधाओं को अपनाकर विकास को नई दृष्टि प्राप्त करने की प्रक्रिया व्यक्ति, परिवार, समाज और देश सभी के लिए लाभकारी है। भारतीय संस्कृति और संस्कारों की जड़ों को मजबूत रखकर जो भी नवाचार विकास के लिए जरूरी और सात्ति्वक हैं उन्हें अपनाने में कोई हर्ज नहीं है। तकलीफ तो तब है जब जड़ें हिल जाएं और तने माटी से संबंध तोड़कर इधर-उधर पेण्डुलम बने रहें।
विराट और व्यापक लक्ष्य को सामने रखकर आज खूब काम हो रहा है लेकिन इसकी जमीनी हकीकत कुछ और ही बयाँ करती है। आजादी के बाद से अब तक यही होता आया है कि, हो कुछ और रहा है तथा परिणाम कुछ और आ रहे हैं। तरक्की की तीव्र रफ्तार की सुगंध नहीं आ पा रही है और सब कुछ वैसा नहीं हो रहा है जैसी अपेक्षा थी। इन तमाम समस्याओं के पीछे जो सबसे बड़ा कारण है वह यह है कि विराट स्तर पर जो गतिविधियां होती हैं उनकी वजह से सूक्ष्म धरातल पर कुछ विशेष प्रभाव वर्षों बाद दिखाई देता है। तीव्र विकास के लिए सूक्ष्म से विराट की ओर बढ़ने की जरूरत है।
आज छोटी कक्षाओं से लेकर शोध और बड़ी-बड़ी परियोजनाओं की बात करें तो साफ झलकता है कि इनमें भारतीयता की बजाय पाश्चात्य चकाचौंध और पश्चिम हावी है। भारतीय आबोहवा व जनमानस के अनुकूल जानकारियों को सामने लाए जाने की आज जरूरत है। भारतीय जनमानस और परिवेश में कई रहस्य आज भी ऎसे हैं जो अनावरित हैं और इन रहस्यों पर से परदा हटाने के साथ ही हमारी मौलिक संस्कृति की इन विशेषताओं को उजागर करने तथा गौरव का अहसास करने की आवश्यकता है लेकिन इसकी बजाय तैयार सामग्री का ही अपने-अपने हिसाब से क्रियाकर्म किया जा रहा है।
अन्दरुनी तरक्की में बाहरी तत्वोें का समावेश इतना हो चला है कि सब कुछ गुड़-गोबर होता जा रहा है। कहीं-कहीं तो हालात ये हो गए हैं कि स्थानीय तत्वों और आँचलिकताओं का कहीं नामो-निशान नहीं होता। आँचलिकताओं के आधार बिना न ज्ञान को पूर्णता प्राप्त हो सकती है, न जीवन और परिवेश को। स्थानीय बुनियादी कारकों और खासियतों को सामने रखकर परिवर्तन की भूमिका रची जानी चाहिए। इससे स्थानीय लोक सहभागिता और आत्मीय जुड़ाव तो रहता ही है, इनके क्रियान्वयन के प्रति माधुर्य एवं प्रेरणा का सतत संबंध भी बना रहता है। आम आदमी का सरोकार स्थानीयता से गहरे स्तर पर जुड़ा रहता है और ऎसे में स्थानीय रंगों का प्रभाव हो तो वह शौख चटख रंग छोड़ता है अन्यथा स्थानीयता के बगैर दुनियावी रंग तात्कालिक दृष्टि से सुनहरे जरूर लगें, इनकी चमक लम्बे समय तक नहीं बनी रह सकती।
इसलिए यह जरूरी हो चला है कि परिवर्तन की जहाँ शुरूआत की जाए, उसमें स्थानीयता और आँचलिकता के उन तत्वों का समावेश किया जाए जिनके प्रति लोक आस्थाएं जुड़ी हों अथवा जिनके नाम मात्र से भी आंचलिकता या परंपराएं मुखरित होती हों। एक बार जब क्षेत्रीय तत्वों का समावेश होने लगता है तब हर कर्म के साथ स्थानीय मिट्टी की सौंधी गंध का स्वतः समावेश होने लगता है और इसके माध्यम से परिवर्तन की गति बढ़ जाती है। इन हालातों में ही परिवर्तन की लहर का वेग बढ़ा हुआ देखा जा सकता है। जहाँ भी, जो भी कार्य हो, भावी तस्वीर के लिए फ्रेम भी खुद ही रचनी होगी। बाहरी और परायी बुद्धि के आश्रय से जिन कामों को अंजाम दिया जाता है वे चमक-दमक वाले जरूर हो सकते हैं लेकिन इनमेंं गंध का सर्वथा अभाव ही रहता है और यह चमक भी अपने आप फीकी पड़ने लगती है।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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