पुरस्कारों और कतरनों का क्या वजूद?
जो लोग अपने जीवन में जो भी कोई उपलब्धि पाते हैं उसके प्रमाण का दस्तावेज होना जरूरी है। हर किसी की ख़्वाहिश यही होती है कि उसके पास वह दस्तावेज हो जिससे उसकी विजयश्री और सफलता का प्रमाण लम्बे समय तक दर्शाया जा सके। जिस प्रकार शैक्षणिक और प्रशैक्षणिक परीक्षाओं में सफलता के प्रमाण स्वरूप अंकतालिकाएं, उपाधियाँ आदि प्रमाण उपलब्ध होते हैं जिनकी जीवन भर कहीं न कहीं आवश्यकता होती रहती है। यों देखा जाए तो विभिन्न प्रतिस्पर्धाओं में विजेताओं और संभागियों को प्रमाण पत्र एवं प्रशंसा पत्र प्रदान किए जाते हैं जो उन प्रतिभागियों के लिए जीवन भर काम आते हैं। लेकिन हाल के वर्षों में एक नई संस्कृति ने जन्म लिया है।
इसके अनुसार आम तौर पर होने वाली नब्बे फीसदी स्पर्धाओं, आयोजनों में विजेताओं और संभागियों को प्रमाण पत्रों की बजाय पुरस्कारों और सम्मानों पर ही संतुष्ट रह जाना पड़ता है। सम सामयिक प्रचार और मीडिया में फोटो-न्यूज कवरेज के सिवा इन प्रतिभागियों के पास कोई ऐसा दस्तावेज नहीं होता जिससे उनकी उपलब्धियां प्रमाणित हो सकें। इन कतरनों का बाद में कोई वजूद नहीं होता, न ही इन्हें राज-काज में दस्तावेज के रूप में पेश किया जा सकता है। पुरस्कारों और सम्मानों को घर में सजा कर रखा ही जा सकता है, दस्तावेज की तरह प्रस्तुत हरगिज नहीं किया जा सकता है। ये केवल दर्शनीय हैं, उल्लेखनीय कभी नहीं।
आज की पीढ़ी के सामने यह भी एक बहुत बड़ा संकट है। स्कूलों से लेकर अपने गांव-शहर और महानगरों के आयोजन हों या सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय सरोकारों तथा दिवसों, सप्ताहों व पखवाड़ों से जुड़े आयोजन, इन सभी में से अधिकांश आयोजनों में प्रमाण पत्रों की बजाय पुरस्कारों और सम्मानों पर जोर दिया जाने लगा है। इस वजह से बच्चों के पास ढेरों स्पर्धाओं में अव्वल रहने और संभागीत्व के बावजूद उनके रिकार्ड में सहेजने लायक कोई ऐसा प्रमाण पत्र नहीं हुआ करता जिसे वे दस्तावेज के रूप में संभाल कर रख सकें और आने वाले समय में दिखा सकें। तत्कालीन समाचार पत्रों की कतरनों के सिवा उनके पास कोई दस्तावेज उपलब्ध नहींे रहता।
यों देखा जाए तो यह स्थिति हमारी नई पीढ़ी के साथ शोषण और अन्याय को स्पष्ट करती है। जानकार लोगों की मानें तो आजकल युग वह आ गया है जिसमें कहीं न कहीं से शहद निकल सके। प्रमाण पत्रों की बजाय पुरस्कारों, सम्मानों, शालों-साफों-पगड़ियों आदि की खरीद में जो शहद प्राप्त होता है उसकी मात्रा और मिठास दोनों ही कुछ ज्यादा होते हैं। इसीलिए ही अब प्रमाण पत्रों की बजाय पुरस्कारों पर जोर दिया जाने लगा है। वो पुरानी पीढ़ी अब रही नहीं, जो प्रतिभागियों और नौनिहालों की भावनाओं, उनके मनोविज्ञान की कद्र किया करती थी और जरा-जरा सी उपलब्धियों पर प्रमाण पत्र देकर प्रोत्साहित करने में विश्वास रखती थी। उन लोगों में वह भावना भी नहीं थी कि कहीं से नाजायज शहद पाने के जतन किए जाएं। पर आजकल सब कुछ स्वाहा होता जा रहा है।
हर क्षेत्र में बिजनैस की बदबू आने लगी है और इसी का परिणाम है कि हमारी नई पीढ़ी उन लोगों की विकृत मानसिकता का शिकार होती जा रही है जिनके जीवन का मकसद ही समाज के लिए जीने का नहीं होकर मरते-मरते भी खुद को जिन्दा रखने पर केन्द्रित हो चला है। इन भटके हुए लोगों के कारण ही हमारी मेधावी पीढ़ी वह सब कुछ देखने-सुनने को विवश है जो अतीत में हमारे पुरखों ने न देखा और न कभी सुना। बच्चों और विद्यार्थियों की मानसिकता को समझने का माद्दा अब उन लोगों में भी देखने को नहीं मिलता जिन्हें बच्चों से माध्यम से राष्ट्र निर्माता का संबोधन दिया जाता है।
उस क्षेत्र में भी कुछ अच्छे लोगों को छोड़ दिया जाए तो काफी कुछ ऐसे हो गए हैं जिनके लिए उनका पेशा घोर विरोधाभासी लगता है और ये लोग भी अंध अनुचरों की तरह शौहरत के मैदान में अंधे घोड़ों की तरह कभी सफेद हाथियों के पीछे दौड़ लगाते हैं, कभी किसी कंदरा में घुस कर लोमड़ों की तरह व्यवहार करते हैं, कभी बड़े लोगों को ठण्ढी हवा का सुकून देने कुत्तों की तरह दुम हिलाते हैं, और कभी और कुछ। गरिमाएं स्वाहा होती जा रही हैं, बच्चों के दर्द और मानसिकता को कहीं कोई समझ नहीं पा रहा। नवाचारों के नाम पर नए-नए शोरबे, मुरब्बे, अचार और मसाले तैयार हो रहे हैं और इधर हमारी नई पौध इनके जहरीले व्यवहार और मलीन मनोवृत्ति का शिकार होकर सब कुछ चुपचाप देखने-सुनने को विवश है।
कोई कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। जो लोग कुछ कर पाने का माद्दा रखते हैं वे स्वार्थ की जंजीरों में नज़रबन्दी की तरह स्वैच्छिक दासत्व का सुकून पा रहे हैं, जो कुछ नहींे कर पाने की हालत में हैं वे तमाशायी बन बैठे हैं। जो इनका नीर-क्षीर मूल्यांकन करने वाले हैं उनके मुँह बंद रखने के सारे जतन हो रहे हैं। तय यह होना चाहिए कि जो भी प्रतिभाएं किसी भी स्पर्धा या आयोजन में भाग लें, उन सभी में विजेताओं तथा संभागियों सभी को पुरस्कार या सम्मान दंे या न दें, मगर प्रमाण पत्र जरूर प्रदान करें ताकि उनके बायोडेटा में शुमार हो सकें और ये दस्तावेज उनके व्यक्तित्व निर्माण में कहीं न कहीं काम आ सकें।
प्रमाण पत्रों से वंचित रखकर मात्र पुरस्कार या सम्मान थमा देना इन प्रतिभाओं का अपमान है तथा सिर्फ इससे तात्कालिक प्रसन्नता का अहसास हो सकता है, दीर्घकालीन खुशी कभी प्राप्त नहीं हो सकती। ये प्रमाण पत्र ही होते हैं जिन्हें बार-बार देखकर बच्चों में प्रोत्साहन का स्वयंस्फूर्त ज्वार उमड़ता रहता है। आयोजकों को भी यह बात गंभीरता से सोचनी चाहिए कि इस प्रकार के प्रमाण पत्रों के माध्यम से उनकी संस्था और संस्था संचालकों की कीर्ति भी तब तक अमर रहेगी, जब तक ये प्रतिभागी रहेंगे। अव्वल बात तो यह कि आयोजकों के स्वर्ग सिधारने के वर्षों बाद भी यह स्मृतियां अमर रहेंगी क्योंकि बच्चे इनके बाद भी लम्बे समय तक रहने वाले होते हैं।
नई पीढ़ी के लिए इस अहम् मुद्दे को सोचने का काम उन सभी को करना है जो सरकारी या गैर सरकारी अथवा अर्द्ध सरकारी बाड़ों में जमा हैं। उन्हें यह भी सोचना होगा कि उनके साथ भी हमारी पुरानी पीढ़ियों ने ऐसा ही बर्ताव किया होता तो वे आज उन ओहदों पर नहीं होते जहाँ बैठकर वे निर्णय लेने की क्षमता के योग्य बन पाए हैं। यह दिगर बात है कि हम पदों का निर्वहन ढंग से कर रहे हैं अथवा नहीं, यह तो हमारे भय और आतंक के मारे अभी लोग नहीं कह पाएंगे। लेकिन जब लोग अपने मूल्यांकन को शब्द देंगे, उस वक्त हम खाक में मिल चुके होंगे
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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