वरना पसरता है अनिष्ट का साया !!!
आजकल सभी जगह होने वाले धार्मिक समारोहों और यज्ञ-अनुष्ठानों की धूम को देखकर लगता है जैसे पूरा परिवेश और हमारा क्षेत्र धार्मिक होने लगा है और अब सतयुग आ रहा है। धर्म के नाम पर आयोजनों का दौर निरन्तर रहने लगा है, अनाप-शनाप धन खर्च किया जा रहा है। इन आयोजनों में कथा-सत्संग और सामान्य पूजा-पाठ को छोड़ भी दिया जाए तो यज्ञों और बड़े-बड़े अनुष्ठानों के नाम पर आयोजनों की बहार आ गई है। इन आयोजनों में हवनीय सामग्री के साथ ही बड़े पैमाने पर घी का प्रयोग होता है। मान्यता यह है कि यज्ञों और यागों से देवताओं को हवि प्राप्त होती है जिससे वे प्रसन्न और पुष्ट होकर मनुष्यों के लिए सुवृष्टि और सुख-सौभाग्य एवं समृद्धि की कृपा करते हैं।
देवी-देवताओं के लिए जो भी सामग्री अर्पित होनी चाहिए उसका शुद्ध होना जरूरी है। अन्य सामग्री के साथ-साथ यज्ञों में जिस घी का प्रयोग होता है वह भी देशी गायों का होना जरूरी है तभी देवता इस हवि को स्वीकारते हैं और प्रसन्न होते हैं। देवी-देवताओं के लिए गौघृत की बजाय दूसरे प्रकार का डिब्बाबंद और मिलावटी घी वर्जित माना गया है। गौघृत के इतर किसी भी प्रकार को लाखों-करोड़ों किलो, मन और टन घी यज्ञ में स्वाहा कर दिया जाए इसका कोई प्रभाव सामने नहीं आ पाता बल्कि इस प्रकार के घी से हुए यज्ञों से देवता नाराज हो जाते हैं और अनिष्ट की आशंका बनी रहती है।
इन सभी स्थितियों को जानते-बूझते हुए भी हमारा यह हद दर्जे का दुर्भाग्य ही है कि हम देवताओं को गौघृत के अलावा दूसरे घी को हवन के रूप में अर्पित कर देने लगे हैं। यह निश्चय मान लेना चाहिए कि गाय के घी का ही उपयोग होने पर यज्ञ-यागादि और अनुष्ठान सफल हो सकते हैं, दूसरे प्रकार के घी से होने वाले अनुष्ठान और यज्ञों से सफलता की कामना करना व्यर्थ है, चाहे वे क्षेत्रीय, सामुदायिक या वैयक्तिक कल्याण के लिए ही क्यों न हो रहे हों। आज हम संस्कारों में, यज्ञ और यागों के नाम पर आए दिन अनुष्ठान करने लगे हैं। नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य प्रयोगों व अनुष्ठानों इन हवनों के माध्यम से भगवान को खुश करने तथा लोगों के दुःख-दर्द एवं समस्याओं के निवारण के अनुष्ठानों में लगे हुए हैं।
जबकि शास्त्रसम्मत बात यह है कि जो भी अनुष्ठान, यज्ञ-यागादि होते हैं उनमें गौघृत की अनिवार्यता है लेकिन आजकल दूसरे घृत काम में लिए जा रहे हैं जिनसे यह यज्ञ पूरी तरह निष्फल हो रहे हैं और कई-कई बार इनके विपरीत प्रभाव के रूप में अनिष्ट सामने आ रहे हैं। ऐसे हवन धन संग्रह के नाटकों के सिवा कुछ नहीं हैं। इसी प्रकार यज्ञ में गाय के गोबर (स्वाभाविक रूप से गिरे गोबर के सूखे उपलों) का विधान है न कि किसी और का। ऐसे में आप और हमें यह सोचना होगा कि जो यज्ञ कर रहे हैं वे सारे नाकारा साबित हो रहे हैं और इनका कोई उपयोग नहीं है बल्कि ये अनिष्ट ही देते हैं।
दैनंदिन पूजापाठ हो अथवा सामयिक या काम्य अनुष्ठान, इन सभी में दीपक भी गौघृत का जलना जरूरी है अन्यथा दीप देव नाराज हो जाते हैं और संबंधितों को अपने अनुष्ठान या पूजा-पाठ का कोई फल प्राप्त नहीं होता चाहे बरसों तक घण्टियाँ क्यों न हिलाते रहें। पूजन के दीपक की तरह घरों और मन्दिरों में होने वाली आरतियों में भी गाय के घी का प्रयोग होना चाहिए। यही बात भगवान को लगाए जाने वाले भोग पर लागू होती है। लेकिन इन सभी में गाय का घी कहीं-कहीं ही तथा कभी-कभी ही प्रयोग में आता दिखता है। धर्म के नाम पर हो तो बहुत कुछ रहा है, शोर भी खूब है और भीड़ भी खूब। फिर क्या कारण हैं कि हम सब वहीं के वहीं खड़े हुए हैं और परिवेश में कुछ भी लाभ नहीं दिखाई दे रहा है बल्कि हर कहींे समस्याएं, आतंक, भय, भूख, भ्रष्टाचार, अपराध और अनैतिकता का ताण्डव थमने का नाम नहीं ले रहा।
इसका मूल कारण हमारा धर्म के लिए बनी आचार संहिता का मनमाना उल्लंघन तो है ही, धर्म को धन कमाने का धंधा बना लेना भी है। शादी-ब्याह हों या मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त सारे संस्कार। न ये संस्कार ढंग से हो पा रहे हैं, न इनमें सामग्री की शुद्धता है। यहाँ तक कि गौघृत तक भी नहीं लिया जा रहा। ऐसे में जीवन का कोई भी संस्कार ऊर्ध्वगति वाला न होकर अधोगति देने वाला ही रहता है। यजमान, पण्डित, आचार्य और कर्मकाण्डी हों या संत-महात्मा, महन्त-महामण्डलेश्वर अथवा मठाधीश। ये सारे इस बात को जानते हैं लेकिन इनमें से गिनती के लोगों को छोड़कर शेष सभी का एकमेव मकसद पैसा बनाना और धर्म के नाम पर लूट मचाना ही रह गया है इसलिए ये लोग धर्म के मूल तत्वों के प्रति न खुद गंभीर हैं न औरों को ज्ञान कराने का सामर्थ्य है इनमें।
ऐसे खोटे यज्ञ कराने वाले और करने वाले सभी लोगों का जीवन भी शापित हो जाता है और उनमें राक्षसी गुणों का आविर्भाव होने लगता है तथा इन लोगों का अंत समय सबसे खराब हो जाता है। इन सभी को धरम के नाम पर अपने-अपने धंधे चलाने हैं। यज्ञ कराने वाले सभी लोगों को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि देवता वही हवि स्वीकार करते हैं जिनमें गौघृत का समावेश हो। ऐसे में मनों और टनों घी होम कर देने का कोई फायदा नहीं है क्योंकि अधिकतर यज्ञों में गाय का घी नहीं होता है। गौघृत के अभाव में दूसरे घी का प्रयोग हवन में नहीं हो सकता। हमारे पण्डितों, संतों, महंतों, महात्माओं और मठाधीशों और धर्म के ठेकेदारों, धंधेबाजों को सोचना चाहिए कि वे धर्म के अनुकूल आचरण खुद भी करें और अपने अनुयायियों और यजमानों को भी सही-सही स्थिति से अवगत कराएं।
इन लोगों को उस ईश्वर का भी भय नहीं है जिनके यहाँ जाकर इन्हें जवाब देना है, फिर इन्हें धर्म का भय कैसे हो सकता है। इन लोगों की धन लिप्सा के ही कारण गायों का संरक्षण नहीं हो पा रहा है। अब भी समय है अगर सभी प्रकार की पूजाओं, यज्ञों और अनुष्ठानों, भोग-नैवेद्यादि मेें गौघृत की पूर्ण अनिवार्यता कर दी जाए तो गौवंश संरक्षण और संवर्धन की दिशा में नए युग का उदय हो सकता है। लेकिन यह तभी संभव है जब हम धर्म को पालनीय बनाएं, पैसा बनाने की सर्वसुलभ टकसाल नहीं।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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