बिहार सरकारी फाइलों में तरक्की की नयी-नयी इबारतें लिख रहा है. वहीँ बिहार के सैंकड़ों मासूम बच्चे अज्ञात बीमारी से मर रहे हैं.तरक्की का ढिंढोरा पीटने वाले बिहार में आमआदमी अपनी बुनियादी सुविधाओं के लिए एडियां चोटियाँ घिसने पर मजबूर है. यहाँ जनहित से जुड़ी समस्याएं नज़रअंदाज़ न कर दी जाती है, जनता की समस्या सुनाने वाला कोई नहीं.
छोटे-छोटे बच्चे सिर्फ इसलिए मौत के मुंह में धकेल दिए जाते हैं कि सरकार के स्वास्थ्य विभाग के पास बीमारी का पता लगाने के लिए एक्सपर्ट नहीं है, लैब नहीं है, अस्पताल में सुविधाएं नहीं है. हर साल सैंकड़ों मासूम सरकारी व्यवस्था की लापरवाही के कारण दम तोड़ देते हैं.
ऐसा लगता है कि सरकार को इनकी मौत से कोई मतलब ही नहीं, क्योंकि इतने बड़े हादसे के बाद भी राज्य के मुखिया ने कोई बयान जारी तक नहीं किया. पटना, मुज़फ्फरपुर और गया में पिछले तीन साल से अज्ञात बीमारी के कारण हाहाकार मचा है. 300 से ज़्यादा बच्चे अज्ञात बीमारी के कारण बेवक्त मर चुके हैं और सरकार के पास आश्वासन के अलावा कुछ भी नहीं है.
सरकार हमेशा योजनाएं गिनवाती है, लेकिन मासूम बच्चों के मौत के वक्त योजनाएं ग़ायब हो जाती है. पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था मिलकर भी बीमारी का पता नहीं लगा पाती है. महसूस होता है कि बिहार की जनता आज भी आदिम युग में जीने को मजबूर है. टाल-मटोल और बहानेबाज़ी के सहारे सरकार और स्वास्थ्य विभाग मासूमों की मौत पर कई सालों से रिसर्च कर रहे हैं.
बिहार में काम के नाम पर स्वास्थ्य रथ, बेटी बचाओ, पेड़ लगाओ जैसी योजनाएं चला कर सरकार खुश है. सरकार खुद की परेशानी के वक्त विशेष राज्य की मांग उठा कर सियासी पैंतरेबाज़ी में मशगूल हो जाती है और फिर जनता के बीच अपनी उपलब्धियां बघारने पहुंच जाती है. सेंट्रल यूनीवर्सिटी गया की जगह मोतिहारी में खुले इसके लिए सरकार सड़क से लेकर संसद तक संग्राम करती है. अपनी बात मनवाने के लिए नीतीश कुमार जंग छेड़ देते हैं. लेकिन कभी भी मरते बच्चों को बचाने के लिए ठोस कदम नहीं उठाते.
अब सवाल ये उठता है कि सरकार की प्राथमिकता क्या है? क्या मरते-बिलखते बच्चों को बचाना राजधर्म नहीं है? सरकार को ये बताना होगा कि तीन साल से बच्चे मर रहे हैं, सरकार क्यों नहीं रोक पायी? जांच होती है, रिपोर्ट कहां चली जाती है? रिपोर्ट आती है तो उस पर अमल क्यों नहीं होता?
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