NDA विकल्प होने का विश्वास स्थापित करें - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 20 जून 2012

NDA विकल्प होने का विश्वास स्थापित करें

यू.पी.ए. सरकार के कार्यकाल मे बेहिसाब भृष्टाचार के कारनामों की फेहरिष्त लम्बी ही होती जा रही है। अन्तर्राष्ट्रीय बाजार मे रूपये का अवमूल्यन चिन्ताजनक है, कमर तोड़ महगाई से मध्यम-वर्ग मे जीवन जीने की इच्छा क्षींण हो रही है। औद्योगिक विकास दर षून्य पर पहुंचने को तत्पर है। विपक्षी दल का नेता भृष्टाचार का मुद्दा सत्ता पक्ष के किसी मन्त्री के संदर्भ मे उठाता भी है तो टी.वी. न्यूज चेनलों पर इस चर्चा मे कॉग्रेस का कोई नुमाइन्दा यह जबाव देता है कि भाजपा को भृष्टाचार के मुुद्दे पर बात करने का कोई नैतिक अधिकार नही है क्यों कि इनके नेताओं पर भी भृष्टाचार के अरोप हैं। प्रष्न तो यह है कि क्या यह वाजिब जवाब है ? यदि बाबा रामदेव अथवा अन्ना टीम का कोई सदस्य यू.पी.ए. सरकार के मंत्रियों पर भृष्टाचार की जांच कराने की आवाज उठाता है तो कॉग्रेस की ओर से एक रटा-रटाया जवाब होता है कि भाजपा और आर.एस.एस. से प्रेरित होकर ये राजनीति कर रहें हैं। सच तो यह है कि मंहगाई और भृष्टाचार के विषय पर सरकार मे कोई सुनने को तैयार नही है। हालात ऐसे ही रहे तो देष मे एक बहुत बड़ी क्रान्ति की आषंका से बिमुख नही हुआ जा सकता। जनता मे जितनी अधिक निराषा और आगामी लोक-सभा चुनाव का बेसब्री से इन्तजार देखा जा रहा है, ऐसा पूर्व मे कभी भी किसी भी दल की सरकार के कार्यकाल मे नही हुआ। 

खैर, विषय पर केन्द्रित रहते हुये यह समय इस परिपेक्ष्य मे भी चिन्ताजनक है कि आने वाले लोकसभा चुनाव के लिये यू.पी.ए. के मुकाबले क्या देष की जनता के समक्ष एक संगठित मजबूत विपक्ष का विकल्प तैयार है ? चुनाव चाहे लोकसभा के हों या किन्ही राज्यों की विधान सभाओं के, आम मतदाता अपना मतदान विष्वास की इस कसोटी पर करता है कि उसका वोट कहीं बर्वाद तो नही होने वाला है। जिसको वह मतदान कर रहा है, सरकार बनाने मे वह दल सक्षम है या नही ? कॉग्रेस और भाजपा के विषय मे विष्वास की इसी कमी के कारण उत्तर प्रदेष मे बहुजन के बाद समाजवादी का सत्ता मे प्रकटीकरण हुआ है। वहां कॉग्रेस और भाजपा प्रारम्भ से अन्त तक ऊहापोह की स्थिति मे रहे और चुनाव आने पर ही ये सक्रिय हुये। प्रदेष की जनता के समक्ष ये सषक्त विकल्प प्रमाणित नही कर पाये। इसी कारण गत 20 वर्षों से अकेले सरकार बनाने की स्थिति मे नही हो पा रहे हैं। देष के राजनीतिक पटल पर आज यह कहना अनुचित नही होगा कि आने वाले लोक-सभा चुनाव के लिये एन.डी.ए. एवं यू.पी.ए. एक समान तराजू पर खड़े हैं। जिस तरह कॉग्रेस आज चुनाव के लिये तैयार नही है तो यह कहना भी अनुचित नही होगा कि भाजपा की स्थिति भी चुनावी चोपड़ के लिये अभी निर्मित नही हुई है। देष के समक्ष प्रष्न यह है कि क्या भाजपा अकेले दम पर सरकार बनाने की स्थिति मे है ? प्रष्न यह भी है कि क्या आज यू.पी.ए. का विकल्प एन.डी.ए. है ? सत्ताधारी दल की जितनी जिम्मेदारी एक स्वस्थ प्रषासन देने की है तो उतनी ही जिम्मेदारी विपक्षी दल की भी है कि वह अपनी भूमिका का निर्वाह करे और देष के समक्ष यह प्रमाणित करें कि वह एक मजबूत एवं संगठित विकल्प है। सामान्यतया देखा यह जा रहा है कि केन्द्र और राज्यों की सरकार के बिरूद्ध उनके विपक्षी दल एन्टी-इनकम्बेन्सी वोट पर अपनी नजर लगाये रहते है। अर्थात जनता सत्ताधारी दल से इतनी पीड़ित हो जाये कि मजबूर होकर विपक्ष को अपना वोट दे। लेकिन यह स्वस्थ राजनीति नही हैं। जनता को तो कहीं न कहीं वोट देना ही है, यदि एक सांप-नाथ और दूसरा नांग-नाथ बन कर रहा तो इससे न तो देष का भला होगा और न ही समाज का, न तो विकास होगा और न ही पारदर्षी प्रषासन मिलेगा, न तो भृष्टाचार समाप्त होगा और न ही दोषियों को दण्ड मिल पायेगा। परिणामतः षनैः-षनैः देष के राष्ट्रवादी राष्ट्रीय दल अपनी अहमियत को खो दंेगे।  

निराषा तो तब होती है जब भाजपा के आपसी अंतर्कलह की खबरें बाहर आतीं हैं। जनता जिसे विकल्प के रूप मे देखना चाहती है, उसी मे आपसी मतभेद हैं कि कौन पी.एम. बनेगा ? देष के चुनावी पटल पर वैकल्पिक नेतृत्व के स्थान पर अंदरूनी कलह का प्रदर्षन होना एक मजबूत विपक्ष की भूमिका का निर्वाह नही कहा जा सकता है। भाजपा मे अटल जी जैसा कोई एक चेहरा अभी तक प्रकट नही हो पाया जिसे देख कर वोटों को समेट लिया जाये। जगजाहिर है कि भाजपा की कार्यकारी मण्डल की बैठक मई के अन्तिम सप्ताह मे जब मुम्बई मे हुई और नरेन्द्र मोदी के मुकाबले संजय जोषी को हांसिये पर रखा गया, अन्ततः उन्होने भाजपा से बिदा ले ली। मुम्बई अधिवेषन मे नरेन्द्र मोदी एवं नितिन गडकरी के मतभेदों पर समझोता, संजय जोषी की बलि की कीमत पर हुआ।  बात यहीं नही थमी, उसके बाद संजय जोषी के समर्थकों द्वारा अहमदावाद से दिल्ली तक पोस्टरों, हॉर्डिग्स का चस्पा करने का विषय सियासत के गलियारों मे काफी चर्चित रहा। दिनांक 31 मई को भाजपा ने भारत बन्द का आव्हान पेट्रोल की कीमतों मे इजाफा होने के कारण किया था और इसी दिन लालकृष्ण आडवंाणी ने अपने ब्लॉग मे लिखा की एन.डी.ए मे वातावरण उत्साह वर्धक नही है। उत्तर प्रदेष की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने भृष्टाचार के आरोप मे जिस मंत्री (बाबू सिंह कुषवाह) को पार्टी व सरकार से बाहर निकाला था उसी को भाजपा मे प्रवेष दिया गया और इस पर षीर्षस्थ नेताओं के मतभेद सुर्खियों मे रहें। परिणामतः उनका प्रवेष स्थगित कर दिया गया। उद्योगपति अंषुमान मिश्र को नितिन गडकरी द्वारा राज्यसभा का टिकट देना, जिसके परिणामस्वरूप यषवंत सिन्हा, आडवांणी और सुषमा स्वराज द्वारा तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करना और बाद मे उनके टिकट को निरस्त करना, क्या इस प्रकार के निर्णय अनिष्चितता की स्थिति को प्रकट नही करते हैं ? इन तथ्यों को पार्टी के बाहर से कोई बिरोधी दल का नेता नही बता रहा है, बल्कि अपनी-अपनी प्रतिक्रिया स्वयं भाजपा से प्रेरित अखबारों, पत्रिकाओं ऑर्गेनाईजर, कमल सन्देष एवं स्वदेष मे प्रकाषित हो रहे हैं। विषय को यह कहते हुये नही नकारा जा सकता कि भाजपा एक लोकताऩ्ित्रक पार्टी है और आपसी मतभेद आपस मे ही सुलझा लिये जाते हैं। प्रष्न तो यह है कि संगठनात्मक अनुषासन कहां रहा ? यह एक अत्यन्त गम्भीर विषय है और इस पर यदि गौर नही किया गया तो आने वाला लोक-सभा चुनाव सरकार बनाने के बिन्दु पर अनिष्चितता के दौर से गुजरेगा, परिणामतः खिचड़ी सरकार बनेगी या थर्ड फ्रन्ट उभरेगा और देष की जनता कभी भी एन.डी.ए. और भाजपा को माफ नही करेंगी।

भाजपा मे यह स्थिति इस कारण बन रही है कि पार्टी पर राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ का सीधा और आदेषात्मक कमाण्ड ढीला हो गया है अथवा है ही नही। और यदि यह सच है तो आर.एस.एस. के स्वयंसेवक भले ही भाजपा मे संगठन मन्त्री बन कर पहुंच जांयें, उनकी स्थिति ऐसी होगी जैसे मंच के वक्ता के समक्ष माईक न हो और वह भाषण देता रहै। उदाहरण संजय जोषी का है। प्रजातान्त्रिक सोच की जनता को व्यतीत हुये समय मे निराषा हुई है कि नरेन्द्र मोदी, नितिन गडकरी और संजय जोषी आपस मे ही ताल ठोकने लगे और उधर आडवांणी जी, सुषमा स्वराज और अरूण जेटली की जब पार्टी मे नही चलती है तो वे अपना मन मसोस कर ओने-कोने मे दबी हुई प्रतिक्रिया व्यक्त कर देते हैं। गत समय नरेन्द्र मोदी ने मुम्बई अधिवेषन मे एक विवादास्पद ब्यान यह दे दिया कि बिहार और उत्तर प्रदेष मे जातिगत राजनीति हुई है। बिहार के सन्दर्भ मे भले ही यह भूतकाल का सच हो लेकिन मोदी को जातिवादी सरकार के कार्यकाल का नाम स्पष्ट करना चाहिये था। परिणामतः नितीष कुमार और षरद यादव ने प्रतिक्रिया व्यक्त करने मे देर नही की और नरेन्द्र मोदी को अपने ही गिरेबां मे झांकने का सबक सिखाया। गौर करना होगा कि बिहार मे नितीष कुमार ने सत्ता लालू यादव और उनकी पत्नी रावड़ी देवी के बाद संम्हाली थी, उस समय का बिहार क्या था और आज का बिहार क्या है ? नरेन्द्र मोदी ने मुख्यमंत्री होकर जब गुजराज की सत्ता सम्हाली थी तो वहां बिहार जैसे हालात् नही थे। गत व्यतीत हुये समय मे नरेन्द्र मोदी व नितीष कुमार के मध्य राजनैतिक व बैचारिक मतभेद चर्चा मे रहै। ध्यान करना होगा कि राष्ट्रपति चुनाव मे उम्मीदवार के विषय पर एन.डी.ए. की बैठक मे निर्णय होने के एक दिन पूर्व ही बिहार के मुख्यमन्त्री नितीष कुमार ने प्रणव मुखर्जी को समर्थन देने की घोषणां कर दी थी और तब जे.डी.यू. अध्यक्ष शरद यादव ने उन्हे अनुषासन का वास्ता दे कर सीख दी थी। क्या यह एन.डी.ए. का अंतर्कलह प्रकट नही होता है ? नरेन्द्र मोदी यदि स्वयं को देष के आगामी चुनाव मे प्रधानमंत्री के रूप मे उजागर करना चाहते हैं तो निष्चित ही उन्हे सहज, सरल और ठण्डा होना होगा, अटल जी की, सब को साथ लेकर चलने की, नीति बनाना होगी। अपनी ही पार्टी और एन.डी.ए. मे चुनावी षंतरज की षह और मात की आदत समाप्त करना होगी। देष के समक्ष अनेकों प्रकार के सर्वे के आधार पर यह माना जा रहा है कि नरेन्द्र मोदी ने विकास और भयहीन प्रषासन की स्थापना गुुजरात मे की है और उसी कारण उनका एक लम्बा मुख्यमन्त्रित्व-काल सामने है। लेकिन आने वाले लोकसभा चुनाव के लिये एन.डी.ए. को देष के समक्ष यू.पी.ए. का विकल्प होने का विष्वास स्थापित करना होगा।




लेखक का परिचय - लेखक एक वरिष्ठ अभिभाषक एवं सामाजिक,राजनीतिक व प्रशासनिक विषयों के समालोचक हैं। 

राजेन्द्र तिवारी, 
अभिभाषक, छोटा बाजार दतिया
फोन- 07522-238333, 9425116738

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