जहाँ प्रेम, वहीं आनन्दस्वरूप ईश्वर !! - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 12 जुलाई 2012

जहाँ प्रेम, वहीं आनन्दस्वरूप ईश्वर !!


प्रेम और मैत्री जीवनयापन की आदर्श आचार संहिता के अंग हैं जिन पर चलते हुए समूचे संसार को अपना बनाया जा सकता है। भगवान सरल, सहज हैं। उनके लिए कोई लौकिक भेद मायने नहीं रखता। भगवान का स्मरण सामाजिक समरसता और सहजता को परिपुष्ट करता है। प्रत्येक प्राणी और जगत में ईश्वर के दर्शन करना ही परम भागवत का प्रमुख लक्षण है। ईश्वर के रूप में जगत को और जगत के रूप में ईश्वर को देखना चाहिए। प्रेम जीवन निर्माण और आनन्द का महास्रोत है। जहाँ प्रेम है वहीं आनंद और प्रभु का निवास है। प्रेम में किसी भी प्रकार का भेद नहीं होता। प्रेम द्वैत से अद्वैत की ओर ले जाता है और यही मानव जीवन का परम लक्ष्य है।

जो लोग प्रेम करते हैं वे भगवान को अत्यन्त प्रिय हैं वहीं उनके जीवन में माधुर्य, सरलता, सहजता, निष्कपटता आदि गुण कूट-कूट कर भरने लगते हैं। पर््रेम में किसी भी प्रकार के नियम न होने पर भी मनुष्य दिव्य, शालीन और मधुर अनुशासन से बंधा रहता है। संत मावजी महाराज ने साफ कहा है - प्रेम तुही ने प्रेम स्वामी प्रेम त्यां परमेश्वरो। आज जीवन में जो समस्याएं सामने आ रही हैं उनका मूल कारण धर्म के मार्ग से अलग होना है। इसके साथ ही हमारी दृष्टि संकीर्ण होकर रह गई है।  आज धर्म और शास्त्रों के मार्ग पर चलकर आगे बढ़ने की आवश्यकता है तभी हम उन्नति कर सकते हैं। जीवन में भगवत्प्राप्ति के लिए नियमित साधन, सत्संग और तपस्या करने की आवश्यकता है। धर्म और संस्कृति के मूल्यों बगैर मनुष्य जीवन मूल्यहीन और भारस्वरूप है। इसलिए धर्म-संस्कृति के मूल मर्म को आत्मसात कर कल्याणकारी एवं सकारात्मक जीवन जीने की आदत बनानी चाहिए, तभी मनुष्य संसार से सुख प्राप्ति और परलोक सुधारने का प्रयास कर सकता है।

मन्दिर और मठ पुरातन परम्पराओं और दिव्य ज्ञानराशि के संवहन के दैवीय माध्यम हैं और इनसे प्रत्येक व्यक्ति को दिव्य जीवन की प्रेरणा मिलती है। इसलिये इनका आश्रय पाने का प्रयास करना चाहिए। मन्दिरों के वातावरण में भगवान के सान्निध्य में व्यतीत किया गया प्रत्येक क्षण पुण्य और आनंद प्रदान करने वाला है। परमात्मा के सिवा सभी अपूर्ण व नश्वर हैं। परमात्मा ही पूर्ण हैं और पूर्णता देने वाले हैं। परमात्मा के अलावा कहीं से भी पूर्णता पाने की कल्पना व्यर्थ है। संत, साधना और सत्संग शुचिता प्रदान करने वाले होते हैं। संत स्वयं में तीर्थस्वरूप होते हैं और उनके आगमन से ही घर पवित्र होते हैं। असली संत समाज के वे मार्गदर्शक हैं जो युगों-युगों से परम्परा के अनुसार समाज को दिशा और दृष्टि का बोध कराते रहे हैं। ईश्वरीय विधान में विश्वास रखते हुए जीवनचर्या पर जोर देना चाहिए।

मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है। कर्म के अनुसार ही प्रारब्ध मिलता है। भविष्य का ज्ञान होने पर जीवन नीरस हो जाता है। विधि का विधान घटित होकर ही रहता है इसलिए ईश्वरीय विधान के अनुसार पुरुषार्थ करते हुए जीवनयापन करना ही श्रेष्ठ मानव धर्म है। भगवान में अगाध श्रद्धा और भक्तिभाव रखते हुए आगे बढ़ें और अच्छी-बुरी तमाम स्थितियों में प्रभु का स्मरण करना न भूलें। आत्मकल्याण एवं विश्व कल्याण के लिए शुचिता, निष्काम भक्तिभावना, लोक मंगल और परोपकार की दृष्टि होने के साथ ही सदैव अपने आत्मस्वरूप में स्थित रहने की आवश्यकता है। जीवन के लक्ष्य और मानव देह प्राप्ति के मर्म को समझ कर ही कल्याण की राह पायी जा सकती है। इसके लिए संसार में अनासक्त रहने, परमात्मा के साथ सतत संबंध कायम रखने पर ध्यान दिया जाना चाहिए।

दुःखों से मुक्ति के लिए भगवान का स्मरण करना चाहिए। कलियुग में भगवान की भक्ति, भगवत नाम स्मरण, कीर्तन और परमात्मा के प्रति अगाध श्रद्धा भाव सर्वश्रेष्ठ और सहज-सरल उपाय है जिससे दैहिक, दैविक और भौतिक तापों का शमन होता है और दिव्यत्व के साथ दैवत्व की प्राप्ति होती है। सत्संग और स्वाध्याय ज्ञान मार्ग का सहज माध्यम है। वेद, उपनिषद, गीता आदि ग्रंथों का पठन-पाठन, मनन एवं चिन्तन, भागवत कथा का नियमित श्रवण करने से वासना का त्याग होता है और मदिरा पान, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि षड़विकार और पापों का नाश होता है तथा प्राणी पुण्योपलब्धि करता है। जीवन का लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति होना चाहिए। यह शरीर रथ है, बुद्धि शरीर रूपी रथ को चलाने वाली है। जीव अकेला आता है, अकेला जाता है। कोई साथ नहीं देता। इसलिए स्व विवेक से परमार्थ में जुटना और निष्काम सेवा करने का व्रत अपनाया जाना चाहिए।

कलियुग से बचने के लिए भगवान नाम मूलाधार है। जुआ, वैश्यावृत्ति, माँस-मदिरा, पशुओं का वध एवं स्वर्ण में कलियुग का वास होता है। झूठ सबसे बड़ा पाप है। ज्ञान एवं जीवन की सद्गति सद्कर्मों से ही होती है। इसलिये मनुष्य को प्रयत्नपूर्वक बुरे कर्मों को तिलांजलि देकर अच्छे कर्मों को आचरण में अपनाना चाहिए। परमात्मा से जुड़कर ही जीव शाश्वत आनंद पा सकता है। इसके बगैर आनंद की कल्पना तक संभव नहीं है। आज जीवात्मा समस्याओं, दुःखों, संत्रासों आदि में भटक रहा है। ऎसे में उसे भगवान की शरण में ही सभी सुख प्राप्त हो सकते हैं। सुदामा और श्रीकृष्ण की मित्रता के प्रसंग चिंतन-मनन करते हुए इस आदर्श मैत्री का अनुसरण करना चाहिए।  मित्रता में किसी प्रकार का भेदभाव या कपट नहीं होना चाहिए। जैसे दूध में पानी मिलाओ या पानी में दूध, दोनों परस्पर समरस और अभेद हो जाते हैं। मैत्री सामाजिक समरसता का पैगाम देती है।

सुदामा का जीवन यही प्रेरणा देता है कि जिसके पास संतोषरूपी धन है वह सबसे बड़ा संतुष्ट व्यक्ति है। यही भागवत का संदेश है। निरहंकार जीवन्तता का आभास कराता है जबकि अहंकार जड़ता और अँधेरे का सूचक है। इसलिए अहंकार को जीवन से प्रयत्नपूर्वक समाप्त करना चाहिए। जीवात्मा के परमात्मा से मिलन का अभूतपूर्व आनंद ही वस्तुतः रास है। यह रास जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आनंद की रस वृष्टि करता है। इसलिए जीवन का कोई क्षण और कोई कर्म ऎसा न हो जिसमें परमात्मा का स्मरण न हो। परमात्मा का स्मरण ही आनंद और सफलता का केन्द्र है।



---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077

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