वहीं जीत ने बढ़ाया बहुगुणा का राजनैतिक कद
सितारगंज उपुचनाव में भाजपा की किलेबंदी पार्टी के अंदर ही मौजूद कुछ जयचंदों के कारण कांग्रेस को जीत का परचम लहराने में कामयाब साबित हुई। राजनैतिक लड़ाई को लेकर इतना बवंडर मचा कि सितारगंज के आस-पास की विधानसभाओं में भाजपा के विधायक अपनी राजनैतिक जमीन को निगलते हुए डरे नजर आए और यही सब सितारगंज में भाजपा को महंगा साबित हुआ। उत्तराखण्ड में हुए अब तक के तीन उपचुनाव में मुख्यमंत्री पद पर बैठा किसी भी राजनैतिक दल का प्रत्याशी चुनाव नहीं हार सका है और इस परंपरा को विजय बहुगुणा ने भी बरकरार रखा है, लेकिन भाजपा के खण्डूडी की तर्ज पर विजय बहुगुणा ने उसी तरह की राजनैतिक गोटियां बिछाकर जिस तरह विरोधी खेमें को चक्रव्यूह में फंसाने का काम किया उसे एक कुशल राजनेता के द्वारा रची गई राजनैतिक बिसात के रूप में देखा जा रहा है।
इससे पूर्व के दो उपचुनाव में मुख्यमंत्री पद पर बैठे राजनेताओं ने अपने क्षेत्र में ही चुनाव लड़कर विजयश्री हासिल की है, जिनमें सबसे पहले कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री एन.डी. तिवारी का नाम शामिल है, तिवारी ने 2002 के हुए विधानसभा चुनाव के बाद रामनगर सीट से उपचुनाव लड़कर विजयश्री हासिल की थी, कांग्रेस की सुप्रीमो सोनिया गांधी ने उत्तराखण्ड की राजनैतिक लड़ाई को देखते हुए तिवारी को मुख्यमंत्री पद पर बैठाया था, जिसके कारण रामनगर का उपचुनाव वहां की जनता के सामने आया, वहां से कांग्रेस के विधायक योगम्बर सिंह रावत ने तिवारी के लिए सीट छोड़ी थी। तिवारी का राजनैतिक कद ही था जो रामनगर विधानसभा के लिए हुए उपचुनाव में सिर्फ नामांकन के दिन ही वे वहां मौजूद रहे और विजयश्री हासिल कर ली। जबकि इसके बाद हुए 2007 के विधानसभा में सत्ता से कांग्रेस को बेदखल करने के बाद भाजपा सत्ता में आई और कांग्रेस की तर्ज पर ही भाजपा के अंदर राजनैतिक लड़ाई होने के कारण उत्तराखण्ड के विधायक अपने नेता का चयन नहीं कर पाए जिसके बाद भाजपा हाईकमाने ने उत्तराखण्ड की राजनैतिक लड़ाई के बीच दखलअंदाजी करते हुए बी.सी. खण्डूडी को उत्तराखण्ड का मुख्यमंत्री बना डाला, जिसके बाद खण्डूडी ने 2007 में धुमाकोट विधानसभा से उपचुनाव लड़कर विजयश्री हासिल की, खण्डूडी ने कांग्रेस के विधायक टी.पी.एस. रावत से सीट खाली कराकर वहां से वर्तमान स्वास्थ्य मंत्री सुरेन्द्र सिंह नेगी के खिलाफ उपचुनाव लड़ा, जहां से वह विजयश्री हासिल करने के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर करीब ढाई साल तक बने रहे। इसके बाद भाजपा के अंदर गुटबाजी इतनी चरम पर पहुंची की भाजपा हाईकमान को खण्डूडी को हटाकर डा. निशंक को प्रदेश का मुख्यमंत्री बनना पड़ा। भाजपा के बी.सी. खण्डूडी द्वारा कांग्रेस के विधायक से इस्तीफा दिलाने का जो खेल वर्ष 2007 में खेला गया था कांग्रेस ने उस खेल को 2012 में भाजपा विधायक किरन मण्डल से सितारगंज विधानसभा से इस्तीफा दिलाकर पूरा कर लिया।
सितारगंज उपचुनाव में विजय बहुगुणा के लिए नया क्षेत्र होने के कारण वहां राजनैतिक जमीन तैयार करना बेहद कठिन डगर थी, लेकिन बंगालियों को भूमिधरी का अधिकार देने के साथ-साथ कई विकास की योजनाएं जनता के बीच प्रस्तुत करने के बाद भी सितारगंज में मुख्यमंत्री को 20 दिनों से अधिक का समय परिवार समेत बिताकर वहां रहना पड़ा, जिसके बाद ही वहां बहुगुणा की विजय हो सकी। बहुगुणा की जीत के मायने कुछ उस तरह ही थे, जैसे हरीश रावत ने अल्मोड़ा लोकसभा को छोड़कर हरिद्वार लोकसभा से 2009 में चुनाव लड़कर विजयश्री हासिल की थी। रावत ने कुमांऊ के नेता होने के बाद हरिद्वार से चुनाव लड़कर साबित किया था कि वह प्रदेश में कहीं से भी चुनाव लड़कर जीत सकते हैं, लेकिन रावत की इस जीत के पीछे अल्मोड़ा लोकसभा से लगातार दो बार चुनाव हारना भी सामने था, लेकिन बहुगुणा भी टिहरी लोकसभा से दो बार चुनाव हारने के बाद वर्ष 2009 में टिहरी लोकसभा सीट से चुनाव जीते थे, लेकिन विजय बहुगुणा को गढ़वाल का नेता माना जाता है, लेकिन इसके बावजूद भी गढ़वाल में किसी भी विधायक ने बहुगुणा के लिए सीट छोड़ने पर हामी नहीं भरी और बहुगुणा को कुमाऊं मण्डल के उधमसिंहनगर की अतिपिछड़ी सितारगंज विधानसभा से उपचुनाव लड़ने के लिए भाजपा के किरन मण्डल से सीट खाली करवानी पड़ी। अब जीत के बाद बहुगुणा ने भी साबित कर दिया है कि वह गढ़वाल के साथ-साथ किसी भी विधानसभा से चुनाव लड़कर जीत हासिल कर सकते हैं। बहुगुणा की जीत मंे कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष यशपाल आर्य का महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है और यही कारण रहा कि बहुगुणा सितारगंज से जीत पाने में कामयाब हो सके।
(राजेन्द्र जोशी)
2 टिप्पणियां:
बहुत अच्छे.... जयचंद मिल ही गया हैं.... विभीषण भी जल्द ही मिलेगा
बहुत अच्छे.... जयचंद मिल ही गया हैं.... विभीषण भी जल्द ही मिलेगा
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