भाजपा को दो हार व एक जीत दिला चुका है यह फैक्टर
कठिन डगर में बड़े-बड़े सूरमाओं को चित्त कर सितारगंज विधानसभा उप चुनाव में भी विजय पताका फहराने के बाद मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के लिए अगले साढ़े चार साल के लिए सपाट दिख रही उत्तराखण्ड की सियासी पिच में अचानक एक रोड़ा उभर रहा है, नाम है मुन्ना। कांग्रेस से नाराज विधायक व सांसदों के हर वार को विजय ने बेकार कर दिया। सरकार को गिराने का उफान भरती भाजपा अब बचाव की मुद्रा में अपने कुनबे पर तार बाड़ लगा रही है। जीत दर जीत के बाद टिहरी उप चुनाव भी कांग्रेस की झोली में एकतरफा जाने की हवा बह रही थी, लेकिन अचानक भाजपा ने मुन्ना के लिए जो पलक पांवड़े बिछाये उसने कांग्रेस का सियासी गणित फिलहाल उलझा दिया है। गर डूबती भाजपा को मुन्ना का सहारा मिल गया तो एक बात तय है टिहरी उप चुनाव कांग्रेस के लिए सितारगंज साबित होने से रहा।
हिमालयपुत्र की विरासत को आगे बढ़ा रहे विजय ने 2012 विधान सभा चुनाव से पहले ही लगता सारे सियासी गणित बैठा दिये थे। प्रचार के दौरान पहले चुनाव अभियान समिति का मुखिया बनाकर उनके चेहरे को आगे किया गया फिर कांग्रेस की कमजोर सीटों पर बागी कांग्रेसियों के सर पर बहुगुणा ने हाथ रख दिया, परिणाम आते ही पूरे विश्वास के साथ उन्होने उत्तराखण्ड कांग्रेस प्रभारी चैधरी बिरेन्द्र के साथ राज्यपाल के समक्ष सबसे बड़े दल के रूप में सरकार बनाने को दावा भी कर दिया और तुरंत सबसे पहले निर्दलीय विधायक के साथ दिल्ली दरबार में हाजिरी लगाने के बाद कांग्रेस के विधायकों के दिल्ली डेरे के बावजूद मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली। हर गुट की बात मानकर एक-एक करके हर मोर्चे पर बहुगुणा सफल रहे। सवाल सिर्फ मुख्यमंत्री की कुर्सी का ही नहीं गैर कांग्रेसी से इस्तीफा दिलवाकर अपने आप कांग्रेस के लिए एक और खोजना था। सोनिया से किये वायदे के अनुसार बहुगुणा ने बीजेपी की एक सीट पर सेंध मारकर कांग्रेस को बहुमत के निकट ला दिया है। 34 की संख्या के साथ अब महज दो सीट की दरकार स्पष्ट बहुमत के लिए है। सबकुछ योजना के अनुसार हुआ तो 34 से 36 कब होगा इसकी भनक भी विरोधियों को शायद ही लग पाये। खैर इन सबके बीच बड़ी चुनौती है टिहरी लोकसभा उप चुनाव को जीतना और इसके लिए भी बहुगुणा ने विधानसभा चुनाव से पहले ही अपनी गोटी फिट कर दी थी।
टिहरी लोक सभा उप चुनाव पिछले डेढ़ दशक से तीन मुख्यकोणों के बीच सिमटता रही है, कांग्रेस,भाजपा और मुन्ना चैहान। पिछले दो चुनाव बिजय बहुगुणा ने जीते और बीते चुनाव में उनसे सीधा मुकाबला भाजपा नेता और अंर्तराष्ट्रीय निशानेबाज जसपाल राणा के बीच हुआ। दोनो लोकसभा चुनाव में बहुगुणा ने जीत हासिल की बसपा के सहारे। पहले चुनाव में अंमि क्षणों में मुस्लिम बसपा प्रत्याशी को लाल बत्ती दिलाने के वायदे के साथ अपने पक्ष मे ंकिया और चुनाव जीत गये। दूसरे चुनाव में भाजपा की बोट काट रहे बसपा के मुन्ना चैहान के सहारे जीत हासिल की और अब उप चुनाव में जीत हासिल करने का इंतजाम किया है, उसी जसपाल राणा के सहारे जो पिछली बार उनके साथ मुख्य मुकाबले मे थे लेकिन विधानसभा चुनाव के ठीक पहले बहुगुणा की अगुवाई में कांग्रेस में शामिल हो गये।
बीते दोनों चुनावों में भाजपा के द्वारा कराये गये हर सर्वे में जीत की सबसे अधिक संभावना मुन्ना सिंह चैहान की ही थी,लेकिन बहुगुणा का सौभाग्य कहें या बिछायी गयी विसातों का कमाल भाजपा ने अपने पूर्व विधायक मुन्ना चैहान को टिकट ही नहीं दिया और कमजोर प्रत्याशियों को टिकट देकर बहुगुणा की जीत का मार्ग खुद ही खोल दिया। कमोवेश सितारगंज में भी बीजेपी ने प्रकाश पंत को चुनाव लडाकर इस बार भी ऐसा ही किया है। लेकिन लगता है कि लगातार मिल रही हार के बाद भाजपा ने शायद कुछ सबक सीखा है या फिर बीजेपी के थिंक टैंक अब जमीनी हकीकत को समझने लगे हैं। तभी तो चाहे हवा में ही सही लेकिन भाजपा कुनबे में से लगातार मुन्ना सिंह चैहान का नाम की गूंज हो रही है। सितारगंज के माफिक ही टिहरी उप चुनाव को जीतने के लिए बेफिक्र कांग्रेसियों के माथे पर पहली बार अब चिन्ता की शिकन दिखने लगी है। उत्तराखण्ड गठन के बाद अभी तक के सत्ता समीकरणों में सबसे प्रभावी रहा है मुन्ना फेक्टर।
राज्य गठन के समय बंटवारे की तमाम विसंगतियों के साथ बीजेपी केन्द्र और यूपी सरकार पर मुन्ना ने आक्रमण शुरू किया था ,उत्तराखण्ड राज्य गठन के 24 संशोधनों से युक्त विधेयक की प्रति लखनउ की विधानसभा में जलाकर। उत्तराखण्ड राज्य के मकसद अधूरे रहने के सवालों पर मुन्ना चैहान ने जनगोलबंदी की , तत्कालीन भाजपा की अंतरिम सरकार पर आन्दोलनों से आंक्रमणों की बौझार की,उत्तराखण्ड जनवादी पार्टी का गठन कर राज्य में भाजपा सरकार को हटाने की अलख जगायी लेकिन संसाधनों व वक्त की कमी के चलते चुनाव के अंतिम दौर में राजनैतिक विकल्प नहीं बना पायी। मुन्ना फैक्टर का लाभ मिला कंाग्रेस को और करीब छह फीसदी वोटों को लाकर जनवादी पार्टी ने राज्य निर्माण करने वाली भाजपा को विपक्ष में बैठाने का काम किया। मृतप्राय कांग्रेस को जीत की संजीवनी मिली तो भाजपा की भी गलतफहमी दूर हुई। रामलहर और राज्य निर्माण के सहारे मतदाताओ को अपनी जेब में समझने वाली बीजेपी को भी समझ में आया चाहे दल के भीतर या बाहर के हों धरातल के योद्धाओं के बगैर सत्ता में वापसी संभव नहीं। लिहाजा तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल विहारी बाजपयी की देहरादून में रैली कराकर मुन्ना चैहान और उनकी जनवादी पार्टी का विलय भाजपा में कराया गया। मुन्ना के साथ ही
यमुना घाटी, गंगा घाटी,भागीरथी घाटी,भिलंग घाटी समेत ऐसे तमाम क्षेत्रों में जहां भाजपा मुख्य मुकाबले से बाहर रही थी के दिग्गज कमल के साथ हो लिये, लिहाजा 2007 में भाजपा की सरकार बन गयी। सरकार बनते ही भाजपा को फिर से शायद गलतफहमी हो गयी और बीजेपी के तमाम लोकप्रिय नेता हासिए पर रख दिये गये। सरकार आगाज ही संग्राम के साथ हुआ, कोश्यारी को राष्ट्रीय राजनीति में धकेला गया तो केदार सिंह फोनिया औ मुन्ना ंिसह चैहान जैसे सबसे अधिक अनुभवी विधायकों को कैबिनेट में शामिल नही किया गया लिहाजा पांच साल के दौरान बदनियती और घोटाले के आरोप तो विपक्ष ने खूब लगाये लेकिन उससे भी बढ़कर बीजेपी सरकार अपरिपक्वता की ऐसी मिसाल पेश कर गयी जिस पर हो सकता है भविष्य के स्कूली पाठ्यक्रमों में राजनीति शास्त्र के अध्ययन में शामिल करके इनसे बचने के गुर भी सिखा दिये जांय। यही कारण था कि कांग्रेस विरोधी लहर और टीम अन्ना का सिर पर हाथ होने के बावजूद भाजपा उत्तराखण्ड में विधानसभा की जंग हार गयी। सितारगंज में बाहरी प्रत्याशी को चुनाव लड़ाने का हश्र देखने के बाद टिहरी लोकसभा के उप चुनाव में भी ऐसी गलती न हो शायद यह भाजपा को समझ आ रहा है। जसपाल राणा को खो चुकी भाजपा के पास जो नेता संभावित प्रत्याशी के तौर पर फिलहाल हैं उनकी टिहरी लोकसभा की सरहद से निकटता तो है लेकिन सरहद के भीतर पैठ ना के बराबर है। पूर्व मंत्री मातवर कण्डारी जनपद रूद्रप्रयाग के निवासी हैं और उनकी लोकसभा पौड़ी में है। नरेन्द्रनगर राजमहल में कभी कभार दर्शन देने वाली राजमाता मालारानी विजय लक्ष्मी का नाम भ चर्चा में है उनकी अपनी विधानसभा नरेन्द्र नगर भी पौड़ी लोक सभा का अंग है।
लगातार दो चुनाव नरेन्द्रनगर से हारने वाले लाखी राम जोशी दो बार टिहरी विधानसभा से विधायक रहे हैं लिहाजा सरहद के भीतर की कुछ विधानसभाओं में उनके जरूर उनके समर्थक हैं पर उनकी खुद की विधानसभा भी पौड़ी में है। मूल रूप से पौड़ी गढ़वाल के निवासी और देहरादून के मेयर विनोद चमोली का राजनैतिक कार्यक्षेत्र टिहरी लोकसभा की चार सीट जरूर हैं पर बाकी दस विधानसभाओं में वह भी अनजाना चेहरा ही हैं, ले दे कर एक नाम और है जिसकी चर्चा होती है वह है पूर्व मुख्यमंत्री जनरल बीसी खंण्डूरी का। पूर्व मुख्यमंत्री होने के नाते वे प्रदेश के नेता तो हैं लेकिन उनके कार्यकाल में टिहरी लोकसभा को मंत्रिमंडल में स्थान न मिलने से नाराजगी न सिर्फ कार्यकर्ताओं में थी बल्कि जनता ने तो चुनाव में भी इसी उपेक्षा के कारण अपने गुस्से का इजहार किया। खण्डूडी खुद भी पौड़ी के मूल निवासी हैं और कोटद्वार जाने का सिला झेलने के बाद 2014 से पूर्व एक और मात वे शायद ही बर्दाश्त कर पायें और अगर ये जंग उन्हे खुद अपनी ही भाभी सुधा बहुगुणा से लड़नी पड़े तो बड़ा डर यह भी है कि दोनों प्रत्याशियों के बाहरी होने के कारण जनता तीसरे पर ही दांव न लगा दे। कुल मिलाकर भाजपा के लिए एक ही विकल्प है मुन्ना चैहान। हर लोकसभा चुनाव 80 हजार के आसपास व्यक्तिगत वोट बटोरने वाले मुन्ना चैहान अगर भाजपा से चुनाव लड़े तो भाजपा के साथ उनके मिलने वाले मत भी भाजपा के पक्ष में होंगे। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि मुन्ना फैक्टर के कारण दो बार उत्तराखण्ड की सतता को गंवा चुकी भाजपा और एक बार सत्ता हासिल कर चुकी भाजपा पर क्या मुन्ना चैहान एतबार करेंगे?
---राजेन्द्र जोशी---
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