सुप्रीम कोर्ट ने गोपालगंज के कलेक्टर, जी कृष्णैय्या की 1994 में हुई हत्या में भीड़ को उकसाने के दोष के लिए पटना उच्च न्यायालय के द्वारा दी दई आजीवन कारावास की सजा को बरकरार रखा है और बिहार सरकार द्वारा आनंद मोहन की सजा को बढ़ाने/मृत्यु दंड देने और पटना उच्च न्यायालय के द्वारा उनके सहयोगियों को सबूत के अभाव में छोड़ देने के निर्णय पर फिर से पुनर्विचार करने की याचिका को खारिज कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने इसम मामले को रेयरेस्ट ऑफ रेयर मानने से इंकार कर दिया है और उच्च न्यायालय की सजा को बरकरार रखा है।
उल्लेखनीय है कि 5 दिसंबर 1994 को बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में जिस भीड़ ने डीएम की हत्या की थी उस भीड़ का नेतृत्व आनंद मोहन और उनके साथ सजा पाए नेता कर रहे थे। एक दिन पहले मुजफ्फरपुर में आनंद मोहन की पार्टी के नेता रहे छोटन शुक्ला की हत्या हुई थी। इस भीड़ में शामिल लोग छोटन शुक्ला के शव के साथ प्रदर्शन कर रहे थे। इस दौरान मुजफ्फरपुर के रास्ते पटना से गोपालगंज जा रहे डीएम जी. कृष्णैया पर भीड़ ने मुजफ्फरपुर के खबड़ा गांव में हमला कर दिया था। हमले में डीएम की मौत हो गई थी।
आनंद मोहन सहित सात लोगों को पटना की निचली अदालत ने गोपालगंज के तत्कालीन डीएम जी कृष्णैया की हत्या का दोषी पाया था। आनंद मोहन सिंह ने पटना उच्च न्यायालय के द्वारा उम्र कैद के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी लेकिन आनंद मोहन की अपील ठुकरा दी गई। जस्टिस एके पटनायक की अध्यक्षता वाली दो सदस्यीय खंडपीठ ने आनंद मोहन सिंह की याचिका को ख़ारिज करते हुए पटना उच्च न्यायालय के द्वारा दी गई सज़ा की पुष्टि की।
आनंद मोहन राजनेता बनने से पहले गैंगस्टर रहे हैं और बिहार खासकर कोसी क्षेत्र के लोगों को बखूबी याद होगा कि पूर्णिया और सहरसा क्षेत्र में जब ठेकेदारी के लिए आनंद मोहन सिंह और पप्पू यादव (दोनों बाहुबली और सांसद क्षेत्र के अपराधियों के सिरमौर रह चुके हैं) के बीच थोड़े-थोड़े अंतराल पर वर्चस्व के लिए गोलियां चला करती थी और वर्चस्व की इस लड़ाई में ना जाने कितने लोग मारे गए।
उल्लेखनीय है कि शिवहर से पूर्व सांसद, आनंद मोहन सिंह को 2007 में अतिरिक्त ज़िला एवं सत्र न्यायाधीश आरएस राय ने धारा 302 (हत्या) और 109 (अपराध के लिए उकसाना) के तहत मृत्युदंड की सज़ा सुनाई थी। बाद में पटना हाई कोर्ट ने दिसंबर 2008 में आनंद मोहन की मृत्यु की सज़ा को बदल कर आजीवन कारावास कर दिया था जिसके बाद उन्होंने इसके खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी।
आनंद मोहन के साथ ही निचली अदालत ने दो और नेताओं, पूर्व मंत्री अखलाक अहमद और अरुण कमार को भी मौत की सजा सुनाई गई थी। बाद में हाई कोर्ट ने मौत की सजा को उम्रकैद में बदल दिया। इसी मामले में अदालत ने आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद, मुन्ना शुक्ला, शशि शेखर और हरेन्द्र कुमार को उम्रकैद की सजा सुनाई थी, लेकिन हाई कोर्ट ने दिसंबर 2008 में सबूत के अभाव में इन्हें बरी कर दिया था।
आनंद मोहन सिंह अपने प्रारम्भिक जीवन काल में चंद्रशेखर सिंह से बहुत अधिक प्रभावित रहे। स्वतंत्रता सेनानी और प्रखर समाज वादी नेता परमेश्वर कुंवर उनके राजनीतिक गुरू थे। आंनद मोहन सिंह ने 1980 में क्रांतिकारी समाजवादी सेना का गठन किया लेकिन लोकसभा चुनाव हार गये।
आनंद मोहन 1990 में बिहार विधानसभा चुनाव में जनता दल से विजयी हुए। आनंद मोहन सिंह ने 1993 में बिहार पीपुल्स पार्टी की स्थापना की। उनकी पत्नी लवली आनंद ने 1994 में वैशाली लोकसभा सीट के उपचुनाव में जीती औऱ अपने विरोधी किशोरी सिन्हा को धूल चटा दी। किशोरी सिन्हा बिहार की राजनीति में छोटे बाबू (सत्येन्द्र नारायण सिंह) के नाम से मशहूर परिवार से ताल्ल्क रखती थीं और राजपूत वोटों पर उनकी मजबूत पकड़ थी। उस समय लालू यादव ने अपनी सारी ताकत वैशाली सीट को जीतने के लिए लगा दी थी लेकिन लोगों का गुस्सा लालू के खिलाफ था और उस चुनाव में जिसे पूरे भारत सहित विश्व की मीडिया में काफी तरजीह दी गई थी, लालू के प्रत्याशी को हार का मुंह देखना पड़ा था।
चुनाव जीतते ही आनंद मोहन सातवें आसमान पर जा पहुंचे थे और वे बिहार के मुख्यमंत्री बनने के सपने तक देखने लगे थे। 1995 में उनकी बिहार पीपुल्स पार्टी ने नीतीश कुमार की समता पार्टी से बेहतर प्रदर्शन किया था। आनंद मोहन 1996,1998 में दो बार शिवहर से सांसद रहे।
आनंद मोहन ने 1998 में लालू से समझौता करके अपने समर्थकों को भी नाराज कर दिया और नतीजा ये हुआ कि समर्थक उससे दूर चले गए। जो व्यक्ति बिहार के राजनीतिक आकाश पर, ध्रुवतारा की तरह जितनी तेजी से चमका था उतनी ही तेजी से खत्म भी हो गया और अब सारी जिंदगी जेल में गुजारनी होगी। आजाद भारत के इतिहास में लगता है कि यह पहला अवसर होगा
जब किसी सांसद को जो आपराधिक चरित्र का रहा हो, उसकी सजा पर सुप्रीम कोर्ट से मोहर लग गई हो।
लेकिन ऐसा देखा गया है कि जब कोई राजनीतिज्ञ सत्ता के साथ होता है तो चाहे उसने कितने बड़े अपराध क्यों ना किए हों उसके खिलाफ कभी फैसला नहीं होता, या फैसला लेने में इतनी देरी लगा दी जाती है कि उसका कोई मायने नहीं रहता। जो भी अधिकारी नेताओं के खिलाफ जांच में प्रगति दिखाते हैं उनकी ऐसी जगह पोस्टिंग की जाती है कि फिर से कोई अधिकारी ऐसे मामलों को देखने की हिम्मत नहीं करता। शायद लोकतांत्रिक सत्ता का यह काला पक्ष है।
न्यायमूर्ति ए के पटनायक की अध्यक्षता वाली दो सदस्यीय खंडपीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि अन्य आरोपियों को सबूत के अभाव में बरी किया जाता है। इन छह आरोपियों में आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद, बिहार के पूर्व मंत्री अखलाक अहमद, पूर्व विधायक अरुण कुमार, विधायक विजय कुमार शुक्ला उर्फ मुन्ना शुक्ला (वर्तमान में, लालगंज, वैशाली से जनता दल यूनाइटेड के अपराधिक चरित्र के विधायक), शशि शेखर ठाकुर एवं डॉ. हरेन्द्र कुमार शामिल है।
आपराधिक चरित्र के नेताओं के लिए देर से ही सही यह एक सबक है। इस फैसले से, गरीब परिवार से ताल्ल्क रखने वाले गोपालगंज के डीएम जीएम कृष्णैय्या की आत्मा को थोड़ी सी राहत जरू मिली होगी।
(हरेश कुमार)
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