पसर गया है शोर-शराबा और पाखण्ड !!
धर्म के नाम पर ईश्वर की बजाय पाखण्ड का दामन थामा जा रहा है और इस वजह से आजकल मन्दिरों में वह परम्परापगत आत्मशांति, सुकून, दिव्यत्व और दैवत्व का अहसास समाप्त होता जा रहा है। पुरातन काल में मन्दिरों का निर्माण संबंधित देवी-देवताओं एवं उनके दैव परिवार के अनुरूप होता था तथा इनके यंत्रों के आधार पर प्रवेश द्वार से लेकर गर्भगृह और शिखर तक का निर्माण हुआ करता था। आज मन्दिर नहीं बल्कि मन्दिरों के नाम पर दर्शनीय और आकर्षक ढाँचों का निर्माण हो रहा है और उसमें भी देवता और देवियों की बजाय अर्थ प्राप्ति के सारे संसाधनों और भवनों का ध्यान पहले रखा जा रहा है। उस जमाने में श्रद्धालु अपनी कमाई से ईश्वर का धरम-ध्यान और दर्शन करते थे, आज अनगिनत संख्या में ऐसे मन्दिर हैं जो अंधाधुंध कमाई का साधन बन रहे हैं और अब इन स्थलों पर भगवान कमा कर भक्तों को दे रहे हैं। यह अलग बात है कि इसका कितना अंश इंसानियत और धर्म पर खर्च होता होगा। कई समाजों और संस्थाओं को भगवान के मन्दिरों ने निहाल कर दिया है और कई तो लाखों, करोड़ों और अरबों की संपत्ति के मालिक हो गए हैं। कइयों के लिए तो ये मन्दिर ही आजीवन व पीढ़ियों तक चलने वाले शॉपिंग कॉम्प्लेक्स बन चुकेे हैं।
एक तथ्य यह है कि जितनी शांति हमें पुराने मन्दिरों में मिलती रही है उतनी आधुनिक मन्दिरों में कल्पना भी नहीं की जा सकती। जो मन्दिर जितना नया होगा अथवा आधुनिकता के सरोकारों व संसाधनों की भारी-भरकम उपलब्धता होगी वहाँ दिव्य ऊर्जाओं की उतनी ही कमी होगी। पुराने मन्दिरों और नवीन देवालयों में यही सीधा और स्पष्ट अन्तर सामने आ रहा है। मन्दिरों के नाम पर अंधाधुंध निर्माण को ही धर्म मानकर चलने वाले लोग सीमेंट-कंक्रीट और लौह-लक्कड़ के पीछे पूरी जिन्दगी खपा रहे हैं। आजकल धर्म का संकीर्ण स्वरूप यह हो गया है कि मन्दिर बनाओ, मन्दिरों में दान करो, यही धर्म है। जबकि समाज की सेवा के सरोकारों का खात्मा होता जा रहा है। गौरक्षा में हम ज्यादा योगदान नहीं दे पा रहे हैं। जरूरतमन्दों की फौज हमारे सामने है और हम ईश्वर को रिझाने के लिए घण्टियाँ हिलाने में मस्त और व्यस्त हैं। यह धर्म का विकृत, पाखण्डवादी और हीन स्वरूप है जिसके कारण से मन्दिरों, मठों, आश्रमों और बाबाओं के असंख्य डेरों के बावजूद समाज पिछड़ा हुआ है और हम वहीं के वहीं ठहरे हुए हैं।
यह बात सच्चे मन से हमें स्वीकारनी होगी कि ईश्वर का निवास उसी स्थान पर होता है जहाँ पांच तत्वों का समान प्राचुर्य हो। पानी, हरियाली, खुला भाग, रोशनी और विस्तृत परिसर हो। इनके पास किसी भी प्रकार की दुकान, प्रतिष्ठान, सांसारिक गतिविधियाँ न हों। यही कारण था कि पुराने जमाने के मन्दिर नदियों, घाटियों के किनारे, पहाड़ियों पर तथा गांव-शहर से बाहर हुआ करते थे। आज मन्दिरों के नाम जहां बड़़े-बड़े भवन बने हुए हैं वहां खूब दुकानें हैं, शोरगुल है, पूरा संसार बसा हुआ है। कई मन्दिर तो एटीम रूम की तरह आकार पा चुके हैं। यह भी तथ्य है कि किसी भी देवी देवता का मन्दिर हो, अधिकांश पंचदेव उपासना प्रधान होते हैं। लेकिन आजकल इस परंपरा का ह्रास होता जा रहा है। देवी-देवता किसी भी जगह हों, उनके आस-पास, परिक्रमा स्थल तथा क्षेत्र भर में इनका पूरा परिवार रहता है। सिर्फ एक गर्भगृह में एक-दो भगवान बिराजमान कर देने से ईश्वर तत्व वहां कभी नहीं रहता, सिर्फ पाषाण या धातुओं की मूर्त्तियाँ ही होती हैं जिनमें कभी प्राण प्रतिष्ठा हो ही नहीं सकती। बहुसंख्य मन्दिरों में परिक्रमा स्थल तक का अभाव है और ऐसे में इन मन्दिरों में अधिष्ठातृ देव भी ऊर्जाहीन पड़े रहते हैं, इनकी चाहे बरसों तक पूजा-अर्चना क्यों न करते रहें, कोई फल प्राप्त नहीं होता। इसी प्रकार प्रकृति के पंचतत्वों में से किसी भी तत्व का अभाव होने पर भी देवता वहाँ नहीं रहते। हम ईश्वर के होने का भ्रम बनाये रखें, इससे किसी को क्या एतराज है। जैसे हम जहाँ भी आवास करते हैं वहाँ अकेले की बजाय पूरे परिवार के साथ रहते हैं, और ऐसे में यही बात ईश्वर पर लागू होती है। ईश्वर को स्थान दे दें और उनके परिवार को बेदखल कर दें, फिर वह ईश्वर खुद भी वहाँ नहीं रहता और दूसरी जगह पलायन कर जाता है। आजकल कितने ही मन्दिर ऐसे हैं जहाँ ईश्वरीय तत्व की कभी अंश मात्र भी अनुभूति नहीं हो पाती।
मन्दिरों का महत्त्व इसलिए नहीं है कि वहाँ लाखों-करोड़ों और अरबों के निर्माण हो जाएं, पूरा संसार मन्दिरों के आस-पास बस जाए और खूब आवक बनाये रखने के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ हमेशा बनाये रखने के जतन किए जाएं। इन स्थितियों में ये मन्दिर दर्शनीय और पर्यटन धाम जरूर हो सकते हैं मगर ईश्वर के घर कभी नहीं। वह जमाना था जब मन्दिर के पास पहुंचते ही या प्रवेश करते ही भीतर से सुकून प्राप्त होता था। उसका कारण यह था कि उन मन्दिरों से जुड़े लोगों की बुद्धि निर्माण और धनसंग्रह की बजाय मन्दिरों को निरन्तर साधनात्मक गतिविधियों, यज्ञ-यागादि से दिव्यत्व और ऊर्जित रखा जाता था, और इसी दैवीय ऊर्जा की वजह से जो भी आता, उसे अनिर्वचनीय सुकून प्राप्त होता था। अब वो सुकून गायब हो गया है और मन्दिर दर्शनीय एवं पर्यटन स्थल बनते जा रहे हैं जिनमें साधनाओं और अनुष्ठानों की जगह ले ली है धनसंग्रह और निरन्तर निर्माण के पाखण्ड ने। दोष निर्माण बुद्धि वालों का ही नहीं है, उन संतों और पंडितों का भी है जिनके लिए मुद्रा के आगे सच गौण हो जाता है।
जिस अनुपात में निर्माण और इतर गतिविधियां होती हैं उसी अनुपात में साधना और अनुष्ठानों को किया या कराया जाए तभी मन्दिरों में दिव्यता और ईश्वरतत्व का अहसास किया जा सकता है। इसके बगैर हम अपने मन्दिरों से कितना ही कमा लें, कितनी ही होटलें बना लें, बाजार लगवा दें और ईश्वर का जितना दोहन कर सकते हैं, कर लें, मन्दिरों का आने वाले समय में कोई ज्यादा प्रभाव पड़ने वाला नहीं। इसके साथ ही मन्दिरों में जमा होने वाली धनराशि और उस क्षेत्र के सामाजिक विकास और प्रतिभाओं को प्रोत्साहन तथा उन कार्यों पर खर्च की जानी चाहिए जिनकी की समाज को जरूरत है। आजकल हम ईश्वर के नाम पर पैसा बना रहे हैं और निर्माण बुद्धि तथा चकाचौंध में रमे रहने को धर्म समझ बैठे हैं, यह हमारा और समाज का भी दुर्भाग्य है। कई बड़े-बड़े महंत- मठाधीश भी साधनाओं भरे जीवन को छोड़-छाड़कर मन्दिरों के अत्याधुनिक निर्माण में भिड़े हुए हैं और करोड़ों-अरबों की बात करते हुए धनसंग्रह और लोकेषणा के लिए उन लोगों की जी हूजूरी और जयगान में जुटे हुए हैं जिनका धर्म से दूर-दूर तक का कोई रिश्ता नहीं है और ये लोग धर्म के नाम पर ऐसे-ऐसे अधर्म कर रहे हैं जिनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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