लो फिर आ गई गुरुपूर्णिमा... - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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मंगलवार, 10 जुलाई 2012

लो फिर आ गई गुरुपूर्णिमा...


शिष्यों की तलाश में बेसब्र हैं गुरु !!!


आखिर जिसका साल भर से इंतजार था वह गुरु पूर्णिमा आ ही गई। गुरुओं के डेरे सजने-सँवरने लगे हैं, अब हर कहीें ज्यादा से ज्यादा तादाद में भीड़ जमा करने और शिष्य बनाने का भूत सवार होता जा रहा है गुरुओं को। हर गुरु का एक ही सपना होता है कि उसके शिष्यों की संख्या दूसरे गुरुओं से कहीं ज्यादा हो जाए और शिष्य भी ऎसे-वैसे नहीं, बल्कि वे लोग हों जो पद-प्रतिष्ठा और धन-वैभव से सम्पन्न हों ताकि गुरुओं की पब्लिसिटी के लिए ब्रॉण्ड एम्बेसेडर की भूमिका अच्छी तरह निभा सकें और उन्हें देखकर दूसरे वीआईपी शिष्यों की संख्या में भी लगातार इजाफा होता रहे। एक जमाना था जब लोग वर्षों तक कठोर तपस्या करते थे, खूब जप-तप, साधन आदि करते थे और तब कहीं जाकर उन्हें गुरु का पता नसीब होता था। पर्वतों, घाटियों और नदियों के किनारों तथा हिंसक जानवरों से भरे रहने वाले हजारों कोस का लम्बा, कण्टकाकीर्ण और दुरुह सफर तय करने के बाद कहीं गुरुकुलों का पता मिलता था और इसके बावजूद शिष्य की पात्रता को देखने-परखने के बाद कहीं जाकर गुरु प्रसन्न होकर शिष्य बनाता था, दीक्षा देता था और उसके साधनात्मक जीवन का संरक्षक बनना स्वीकार करता था।

भारतीय संस्कृति और पौराणिक आख्यानों में हर कहीं गुरु की प्राप्ति को असहज बताया गया है और कई उदाहरणों से सिद्ध किया गया है कि सच्चे शिष्य को ही सच्चे गुरु की प्राप्ति होती थी। गुरु पाने भर के लिए लोग कितनी कठोर साधनाओं और परिभ्रमण का आश्रय लेते थे और तब कहीं जाकर गुरु मिलन की उनकी खोज पूरी होती थी और कइयों को तो जिन्दगी भर गुरु दीक्षा के योग्य नहीं मानते थे। गुरु और ईश्वर की प्राप्ति व्यक्ति के जीवन में सर्वाधिक दुर्लभ क्षण होते हैं। इतिहास में कई उदाहरण ऎसे हैं जिनमें गुरु की खोज में निकले लोगों को एक से दूसरे गुरु का पता बताकर आगे बढ़ा दिया जाता और ऎसे में इन लोगों के लिए गुरु की प्राप्ति अत्यन्त कठिनतम रास्ते तय करने के बाद ही कहीं सौभाग्य से हो पाती थी।

वो अलग जमाना था जब शिष्यों को गुरु की तलाश हुआ करती थी और इसके लिए कितने पापड़ बेलने पड़ते थे इसे वे ही जानते थे। आज जमाना अलग आ गया है। गुरुओं को अब शिष्योें की तलाश में पलक-पाँवड़े बिठा कर डेरे लगाने पड़ रहे हैं। आजकल हर कहीं गुरुओं को तलाश है शिष्यों की महाभारी भीड़ की। यह भीड़ ही है जो गुरु के कद का सार्वजनिक पैमाना हुआ करती है। इन गुरुओं का ईश्वर चिन्तन, साधना, भजन-ध्यान-योग, समाधि या अनुष्ठानों आदि से कुछ लेना-देना नहीं है। दो-चार चमत्कार क्या सीख लिये, निकल पड़े भगवान के नाम पर अपनी चाँदी काटने। वे गुरु अब रहे ही कहाँ जिनका सीधा संबंध ईश्वर से हुआ करता था और निष्काम सेवाव्रत के साथ जीवन जीते थे। न इन्हें बेशकीमती और विस्तृत आश्रमों या मठों से कुछ लेना-देना था, न महंगी लग्ज़री गाड़ियों और भोग-विलास के तमाम ऎश्वर्य देने वाले संसाधनों से, न शिष्यों की भीड़ से और न ही उन बड़े लोगों से जिन्हें आजकल जनता कभी भय और कभी स्वार्थ से पूजती और आदर देती है। गुरुपूर्णिमा गुरुओं के प्रति दिली श्रद्धा और आस्था का संगीत सुनाती रही है मगर हाल के वर्षों में गुरु पूर्णिमा को देख लगता है जैसे यह गुरुओं के लिए शक्ति परीक्षण का वार्षिक अखाड़ा ही हो।

यों भी आजकल हर कहीं गुरुओं के नाम पर कई-कई अखाड़े चल रहे हैं और इनमें जात-जात के चमत्कारी, योगी, ध्यानयोगी आदि किस्मों के गुरुओं का डेरा बना हुआ है। इन गुरुओं के लिए आम आदमी का कोई वजूद नहीं है बल्कि इनके लिए उन लोगों की ज्यादा अहमियत है जो धनाढ्य हों या सत्तासीन अथवा किसी न किसी प्रभाव वाले। आजकल गुरुओं के डेरे में आम आदमी कहीं नज़र आए या न आए, मगर इनमें बिजनैसमेन, भूमाफिया, अपराधी, तस्कर, फाइनेंसर और राजनेताओं से लेकर वो हर किस्म के शिष्य मौजूद हैं जिनका जीवन कहीं कहीं से अमर्यादित है और लोग इनके बारे में कभी मन से सकारात्मक टिप्पणी नहीं कर पाते।  गुरुओं को भी ऎसे ही शिष्य भाते हैं जिनकी चमचमाती गाड़ियां और वैभव उनके आश्रमों/डेरों के आस-पास हमेशा नज़र आने लगे। ‘ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या..’ का उद्घोष करने वाले और ईश्वर को पाने के लिए जीवन जीने का संकल्प लेने वाले इन बाबा, गुरुओं को संसार और सम्पदाओं से मोह क्यों होता जा रहा है, इसका जवाब न इन गुरुओं के पास है, न इनके चेले-चपाटियों के पास।

अब तो गुरुओं ने भी पब्लिसिटी और मीडिया-पब्लिक मैनेजमेंट के क्षेत्र में प्रवेश कर लिया है। गुरुपूर्णिमा से महीने भर पहले से पूरे देश की ही तरह अपने इलाके में भी गुरुओं के आमंत्रण विज्ञापनों और डिस्प्ले बोर्ड्स पर फब रहे हैं जैसे ये गुरु न होकर कोई नेता या अभिनेता ही होंं। कोई मार्ग ऎसा नहीं बचा है जहाँ गुरुओं की सुन्दर छवि के साथ गुरुपूर्णिमा उत्सव में आमंत्रण का आग्रह न हो। गुरुओं के शिष्यों या कहें अंधभक्तों की भारी फौज भी इस अभियान में जुटी हुई है। आखिर इन लोगों का भी तो धंधा गुरुओं के बूते ही चल रहा है। एनजीओ की तर्ज पर गुरुओं के लिए काम हो रहा है। लगता तो यों है जैसे सारे गांव और शहर के लोग दीक्षा पाने को उतावले हैं और बस इंतजार है तो गुरुपूर्णिमा का। लोगों को गुरुओं की भारी तादाद और चमत्कारिक गुरुओं की अपने इलाकों में पावन मौजूदगी के बावजूद बढ़ते जा रहे अपराधों, अशांति और भय, गरीबी, समस्याओं आदि पर आश्चर्य होता है। लोगों को इस बात पर भी आश्चर्य होता है कि जो लोग गुरुओं के पट्ट शिष्य के रूप में मशहूर हैं उनकी करतूतें कैसी हैं? गुरुजी के सामीप्य के बावजूद इन लोगों में कोई बदलाव क्यों नहीं आ पाया है?

गुरु भी अपने तिलस्मी व्यक्तित्व की छाप छोड़ते हुए हर बार कुछ न कुछ नया कर गुजरते हैं। कभी किसी दल-दल के साथ तो कभी किसी और के साथ प्रतिबद्धता दर्शाते हुए अपनी हस्ती बनाए रखते हैं। कितनी ही गुरुपूर्णिमाएं गुजर गई, हर साल शिष्यों की भीड़ भी आकार बढ़ाती जा रही है, गुरु भी नए-नए कलेवर और अंदाज में नए-नए आकर्षणों के साथ आ धमक रहे हैं, इसके बावजूद जमाना वहीं का वहीं ठहरा हुआ है। गुरुओं और चेलों सभी मेंं बस अपनी ऎषणाओं की पूत्रि्त का भाव हावी है और इनमें गुरुत्व या शिष्यत्व की शुचिता व दिव्यत्व दूर-दूर तक कहीं नज़र नहीं आता। लगता है जैसे धर्म को भुनाने की फैक्टि्रयाँ टकसाल का रूप लेती जा रही हैं। जो शिष्य नहीं बने हैं उनके लिए बेचारे गुरु बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। इसके लिए खूब विज्ञापनों का मायाजाल पसरा हुआ है। वे तो चाहते हैं आपका उद्धार करना। इस गुरुपूर्णिमा को जीवन की यादगार बनाएं और रुख कर लें किसी न किसी गुरु के डेरे का, जहाँ चकाचौंध और वैभव को देख कम से कम एक दिन तो दिल खुश हो ही जाएगा।


---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077

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