संरक्षक बनते जा रहे हैं शोषक-भयंकर ! - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 7 जुलाई 2012

संरक्षक बनते जा रहे हैं शोषक-भयंकर !


अपना धर्म भूल गए मुखिया


एक समय था जब मुखिया के व्यक्तित्व और कर्मयोग से पूरे परिवार की पहचान हुआ करती थी। यह मुखिया घर-परिवार, समाज, शासन और समुदायों के विभिन्न अंगों, प्रबन्ध संस्थाओं व संगठनों से लेकर सत्ता और राष्ट्र तक कहीं का भी हो सकता है। मुखिया चाहे कहीं का भी हो, मुखिया का अपना धर्म है। तभी कहा गया है - मुखिया मुख सो चाहिए...। जो मुखिया हैं उन्हें चाहिए कि वे मुखिया की तरह बने रहें। मुखिया मुखिया की तरह दीखना भी चाहिए। यों भी व्यक्ति के पूरे जिस्म का सर्वाधिक आकर्षक और दर्शनीय हिस्सा है मुँह। चेहरा अन्दर तक की टोह रखता है इसीलिये कहा जाता है कि लाख छिपाओ छिप न सकेगा....। जो पेट में दर्द करता है, दिल में चुभता है और मस्तिष्क में अन्दर ही अन्दर घुमड़ता है वह सब कुछ चेहरे पर आ ही जाता है।

ऐसे में मुख की तरह मुखिया भी उस क्षेत्र या समूह विशेष का प्रतिनिधित्व करता है जिसका वह नेतृत्व करता है। पहले जमाने में मुखिया की हर गतिविधि शुचितापूर्ण, राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत, अनुशासित, धीर-गंभीर और शालीन हुआ करती थी और ऐसे में मुखिया धर्म सारे समूह को और अपने मातहतों को एक सूत्र में बाँधकर विकास देने में सक्षम था। तब मुखियाओं का चयन भी सोच-समझकर और कठिन परीक्षाओं से गुजरने के बाद होता था और इसलिए गुणवत्ता की कसौटी पर इन्हें अच्छी तरह परखा हुआ होता था। पर आज मुखिया के रूप में कैसे-कैसे लोग हमारे सामने फिल्म के रोल की तरह आ रहे हैं इस बारे में किसी को कुछ भी बताने की जरूरत नहीं है। बात हम घर-परिवार से लेकर दफ्तर, प्रतिष्ठान और संगठन, समाज या संस्थान या प्रदेश एवं देश तक की क्यांे न करें। हर कहीं बिराजमान हैं किसम-किसम के मुखिया। इनमें कई जगह मुखिया खरे उतर रहे हैं तो कहीं खोटे। कुछ मुखिया उदासीन सम्प्रदाय के लोगों की तरह जीवन भर नाकार बने रहते हैं। इसमें उनका या हमारा दोष नहीं है, फैक्ट्री में जैसा माल आएगा, वैसा ही तो प्रॉडक्शन सामने आएगा न।

मुखिया का सबसे बड़ा गुण संरक्षण और समन्वय है। जो मुखिया अपने संस्थान को कुटुम्ब मानकर चलता है उसके साथ कोई संकट नहीं आता। लेकिन आजकल मुखियाओं को कैंकड़ा कल्चर, डंकी कल्चर, मंकी कल्चर, डॉग कल्चर और गिद्ध कल्चर ने घेर रखा है। जो जहाँ मुखिया बन बैठा है वह मानता है कि उसके नीचे काम करने वाले सारे लोग उसके गुलाम हैं और उन्हीं को चूसते हुए मुखियाजी को अपनी सेहत से लेकर पीढ़ियों तक की समृद्धि का इंतजाम करना है। बात अगर हम दफ्तरों के मुखियाओं की करें तो साफ पता चल जाएगा कि इनमें से कितने मुखिया के रूप में असली धर्म निभा रहे हैं। ये मुखिया पुरुष भी हो सकते हैं और महिला भी। कुछेक को छोड़कर सारे मुखिया ऐसे हो चले हैं जिन्हें अपनी चवन्नी चलानी है, अपने नम्बर बढ़ाने हैं और इसके लिए वे हर बेगार कराने, लूट-खसोट और शोषण के तमाम हथकण्डों को अपनाने के लिए स्वतंत्र हैं।

सभी तरफ गुलामों का साम्राज्य पसरा हुआ है। छोटे गुलाम, मध्यम गुलाम और बड़े गुलाम। फिर इन सभी के साथ साहब लगा दो तो यह पदवियाँ और अधिक फबने लगती हैं। ज्यादातर मुखिया अपने धर्म से गिर गए हैं और इनका एकमेव उद्देश्य मनमाना शोषण रह गया है। मुखियाओं के भीतर से मानवता, नैतिकता, पारदर्शिता और संवेदनशीलता गायब हो चली है और इसका स्थान ले लिया है विकृत मानसिकता, भय और भ्रष्टाचार ने। किसी भी संस्थान या सरकारी - गैर सरकारी बाड़ों की बात करें, अधिकतर में कमोबेश यही हालात हैं। मुखिया की दादागिरी, मनमानी और शोषक प्रवृत्ति के चर्चे आम हैं। मुखिया जब अपने परंपरागत धर्म को भुला देता है तब उसके प्रति श्रद्धा समाप्त हो जाती है और उसका स्थान ले लेता है भय। वहाँ सदैव पसरी होती हैं आशंकाएं। ज्यादातर मुखिया अपने संरक्षकीय दायित्व को विस्मृत कर बैठे हैं और भक्षकीय भूमिका में ज्यादा हो गए हैं। अब जहाँ कहीं कोई मुखिया जाता है या दिख जाता है, लोग इसे उन नज़रों से देखने लगते हैं जैसे कोई भीषण खूंखार नरभक्षी जानवर जंगल की सीमाएँ तोड़ कर बस्ती में घुस आया हो या उसके बारे में पहले से यह प्रचारित हो गया हो कि यह विक्षिप्त हो गया है और कहीं भी कुछ भी कर सकता है।

पहले जहाँ मुखिया का संरक्षण और सान्निध्य सुकून का अहसास कराता था वहाँ अब मुखिया का करीब आना भय और आशंकाओं को जन्म देता है।  आजकल के मुखियाओं में लोगों को लोमड़, सूअर, कुत्ते-बिल्ली, गधे, खच्चर, साँप-बिच्छुओं, अजगरों, सिंगों और नाखून वाले हिंसक जानवरों, संकर प्रजातियों के गिद्धों से लेकर उन सभी जानवरों की गंध आने लगी है जिन्हें मनुष्यों के लिए सदैव अस्पृश्य कहा गया है। शास्त्रों में इनका गलती से भी स्पर्श हो जाने पर नहाने का विधान है। गंभीरता के साथ चिंतन करना होगा कि एक मनुष्य को दूसरे का सामीप्य पाकर प्रसन्न होना चाहिए उसकी बजाय आदमी को देखकर आदमी भय खाता जा रहा है। वह मुखिया ही क्या जिसे देखकर या जिसका सान्निध्य पाकर सामने वालों में भय हो। लेकिन मदांध मुखियाओं के लिए यह सोचने का समय पूरे जीवन में शायद ही कभी आ पाता होगा क्योंकि इनका हर क्षण निन्यानवें और चार सौ बीसी के फेरों में रमा रहता है और ऐसे में कब आँखें मूँद जाएं, यह इन बेचारों को पता भी नहीं चलता। जो कहीं भी मुखिया धरम निभा रहे हैं वे अपने गिरेबान में झाँकें और देखें कि वे कहीं मुखिया की बजाय दुखिया तो नहीं होते जा रहे हैं। जो मुखिया धर्म भूल गए हैं उनकी सद्बुद्धि की कामना करें या ईश्वर से कहें कि ऐसे लोगों को वापस बुलाकर भारतभूमि की बजाय दूसरी जगह कोई व्यवस्था करे।


---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077

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