बाघ संरक्षण योजना की तर्ज पर प्रोजेक्ट लेपर्ड की सुध अब जंगलात के अफसरों को आई है। दरअसल ताबड़तोड़ शिकार और गुलदार-मानव संघर्ष के मामलों से इस प्रजाति के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। इससे चेते वन विभाग ने अब संरक्षण की ठोस कार्ययोजना का खाका खींचना शुरू किया है। इसके लिए वन प्रभागों से मानव-गुलदार संघर्ष और आबादी क्षेत्रों में गुलदारों के मवेशियों पर हमले आदि का विवरण मांगा गया है। साथ ही संरक्षण व संघर्ष रोकने के उपायों पर वनाधिकारियों की राय मांगी गई है। वर्तमान में राज्य में करीब दो हजार गुलदार होने की बात कही जा रही है। साथ ही वन्य जीव अपराधों की रोकथाम करने वाली सरकारीध्गैर सरकारी एजेंसियों का मानना है कि करीब 100 गुलदार प्रतिवर्ष या तो शिकार में मारे जा रहे हैं अथवा अपनी स्वाभाविक मौत मर रहे हैं। जिनके शव जंगलात के अधिकारी बरामद कर लेते हैं, वह आंकड़े दर्ज हो जाते हैं, अन्यथा अधिकांश मामलों में गुलदार के अंगों की तस्करी हो रही है। पिथौरागढ़ में दुर्लभ स्नो लेपर्ड की हत्या का मामला सामने आने के बाद यह बात भी प्रमाणिक हो चुकी है कि सीमांत जिले के ग्लेशियर वाले क्षेत्रों में स्नो लेपर्ड की मौजूदगी है। अभी तक वन विभाग स्नो लेपर्ड होने की पुख्ता सूचना देने से कतराता रहा है। अलबत्ता गढ़वाल में कैमरा लगा कर स्नो लेपर्ड की गिनती का प्रयास चल रहा है। जहां अभी तक दो चित्र कैमरे में कैद किए गए हैं, लेकिन विशेषज्ञ यह बता पाने में अस्मर्थ हैं कि दोनो चित्र दो स्नो लेपर्ड के हैं अथवा एक के। यह प्रजाति भी तेजी से विलुप्त हो रही प्रजातियों में से एक है।
इसके अलावा बड़ी बिल्ली की गुलदार प्रजाति पर भी संकट है। जिस तेजी से शिकार की घटनाएं बढ़ी हैं और जंगलों से गुलदार आबादी में दखल कर रहे हैं, उसने वन विभाग की चिंताएं बढ़ा दी हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में बाघ के मुकाबले गुलदार की खालों की भी कम मांग नहीं है। यही कारण है कि इस प्रजाति के संरक्षण की जरूरत महसूस की गई है। वैसे अरसे से वन्यजीव विशेषज्ञ प्रोजेक्ट लेपर्ड बनाने की वकालत करते रहे हैं लेकिन वन विभाग ने कभी इस बाबत गंभीरता नहीं दिखाई। अलबत्ता अब इस ओर विभाग का ध्यान गया है। गुलदार संरक्षण के उपायों पर वनाधिकारी अध्ययन कर रहे हैं।
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