स्वैच्छिक त्याग व विसर्जन करें ! - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

Breaking

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा । हृदय राखि कौशलपुर राजा।। -- मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी ।। -- सब नर करहिं परस्पर प्रीति । चलहिं स्वधर्म निरत श्रुतिनीति ।। -- तेहि अवसर सुनि शिव धनु भंगा । आयउ भृगुकुल कमल पतंगा।। -- राजिव नयन धरैधनु सायक । भगत विपत्ति भंजनु सुखदायक।। -- अनुचित बहुत कहेउं अग्याता । छमहु क्षमा मंदिर दोउ भ्राता।। -- हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता। कहहि सुनहि बहुविधि सब संता। -- साधक नाम जपहिं लय लाएं। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएं।। -- अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के । कामद धन दारिद्र दवारिके।।

शनिवार, 25 अगस्त 2012

स्वैच्छिक त्याग व विसर्जन करें !


तभी मिल पाएगा जीवनमुक्ति का सुकून !!


जिन्दगी भर पाने ही पाने की मनोवृत्ति से कहीं ज्यादा श्रेयस्कर है देने की प्रवृत्ति। जो अपने पास है उसे सुरक्षित रखते हुए अपनी जिन्दगी के लिए पर्याप्त होने का संतोष हो जाने पर हमें चाहिए कि इसका लाभ उन सभी लोगों को मिले जो इसके लिए पात्र और जरूरतमन्द हैं। बात धन-वैभव और सम्पदा से लेकर ज्ञान और अनुभवों की है जिन्हें बाँटने का अभ्यास ही जीवन में शाश्वत आनंद और संतोष के साथ सच्चे और अखूट सुकून का अहसास कराता है। जिनके पास  अपने लायक होने के साथ ही इतना सारा अधिक है कि उसका इस जीवन में पूर्ण उपभोग तक संभव नहीं है।  ऎसी स्थितियों में हमें चाहिए कि जो लोग लायक हैं उन्हें इसका लाभ मिले। इसके लिए हमारी दृष्टि उदात्त और व्यापक संवेदनशीलता लिए हुए होनी चाहिए। एक सामान्य व्यक्ति अपने जीवन में कभी भी इतनी उदारता और मानवीय दृष्टिकोण का परिचय नहीं करा सकता। यह उदात्तता ईश्वरीय गुण है और इसका दिग्दर्शन वही करा सकता है जिसे ईश्वरीय कृपा प्राप्त हो। हर व्यक्ति के पास देने को कुछ न कुछ जरूर होता है। छोटे से छोटा आदमी भी अपने भीतर एक न एक विलक्षणता अवश्य रखता है जो देने लायक होती है। बात सिर्फ रुपये-पैसे की नहीं है बल्कि यह कोई अनुभव, ज्ञान, सीख और एक लाईन का बोध वाक्य या उसके जीवन का कोई अनुकरणीय पहलू भी हो सकता है।

कई विषय ऎसे होते हैं जिन्हें देने से इनका अक्षय पात्र निरन्तर भरता रहता है और इसीलिये विद्या धन को अक्षय बताते हुए कहा गया है - ज्यों-ज्यों खर्चे, त्यों-त्यों बढ़े। ज्ञानदान, अन्नदान, वस्त्र दान, धन दान और इसी तरह के कई सारे दान हैं जिन्हें दिए जाने पर हमें पुण्य के साथ जीवनयापन का आनंद भी प्राप्त होता है जो हमारे जीवन को वास्तविक और चरम सुकून प्रदान करता है। अपने जीवन के लिए जरूरी संसाधनों और सामग्री के बाद शेष रह जाने वाली सामग्री और संसाधनों का स्वैच्छिक परित्याग और त्याग, विसर्जन वही कर सकता है जो मन और मस्तिष्क से भी भरा हुआ है। दिल-दिमाग से जो भरा हुआ रहता है वही त्याग और परोपकार का माद्दा रख सकता है। जिसकी जेबें और घर भरे हुए हों, उनके लिए यह जरूरी नहीं कि उनमें उदारता और सेवा का भाव हो ही। लेकिन जिन लोगों में मन में उदारता और परोपकार की भावना होती है उनमें समाज और जरूरतमन्दों के प्रति संवेदनशीलता निश्चय ही होती है। त्याग और विसर्जन वही कर सकता है जो भरा हुआ हो। समर्थ होने के बावजूद कोई त्याग न करे तो उसके जीवन का कोई अर्थ नहीं बल्कि उसकी जिन्दगी अर्थ संग्रह का पर्याय बनकर रह जाती है।
आज समाज में ज्ञान, सम्पत्ति और अनुभवों से समृद्ध लोगों की खूब भीड़ छायी हुई है और उनकी परम्परा में शामिल होने वालों की कतारें भी लम्बी लगी हुई हैं। जो अपने पास उपलब्ध है, जिससे हमारी सारी जरूरतें आसानी से पूरी हो रही हैं और इतना जमा है कि दशकों तक पूरी होती रहेंगी, फिर भी संतोष नहीं है और पीढ़ियों तक के लिए व्यवस्था का जुगाड़ करने में हम उन सारे मूल्यों को भुला बैठे हैं जिन्हें समाज के लिए हमें पूरा करना है।

यही नहीं तो हम उन सभी रास्तों को भी बंद कर चुके हैं जिनसे होकर पुण्य, संतोष और सुकून का सतत प्रवाह हमारी ओर बना रहता था। यही वह वजह है कि हमारे पास अकूत सम्पदा और समृद्धि होने के बावजूद हमारे चेहरे से मुस्कान गायब है। आज हमें लक्ष्मी और अलक्ष्मी में भेद का ज्ञान होना जरूरी है। जिन लोगों के पास अनाप-शनाप पैसा-रुपया है और जिन्होंने पूरी जिन्दगी का एकमेव लक्ष्य यही बना रखा है कि जैसे भी हो संग्रहण का दायरा बढ़ता रहे, वे लोग सब कुछ होते हुए भी न इच्छित खा सकते हैं न अपने पर खर्च कर सकते हैंंं, और न ही बेचारे पूरी नींद निकाल सकते हैंं। इनका पूरा जीवन संग्रह ही संग्रह में गुजरता रहता है और यही कारण है कि इन लोगों के चेहरों से मुस्कान हमेशा गायब रहती है। इनकी मुस्कान तभी देखी जा सकती है जब संग्रह में किसी भी प्रकार का इजाफा होने की सूचना मिले। अन्यथा आम तौर पर इन्हें कभी प्रसन्न या मुस्कुराते हुए नहीं देखा जा सकता। निश्छल मुस्कान के अभाव में व्यक्ति के जीवन का कोई मूल्य नहीं है बल्कि उसे चलती-फिरती बैंक ही माना जाना चाहिए जिसमें धनराशि का एकतरफा आगमन ही बना रहता है, वहां से निर्गमन की जरा भी इच्छाशक्ति शेष नहीं रहती। ईश्वर ने जो भी प्रतिभा दी है, जो संसाधन और सामग्री दी है, वह समाज के उपयोग में आनी चाहिए। आज यह सब कुछ लोगों की मुट्ठी में कैद है। जब तक ये मुट्ठिया बंद रहेंगी तब तक समाज की तरक्की की बात करना बेमानी है। अपने पास जो है वह समाज के काम नहीं आए, तो उस सामग्री का होना या न होना कोई मायने नहीं रखता। मजा तो तब है जब समाज के पात्र लोगों और जरूरतमन्दों तक हमारे सामथ्र्य की गंध और सम्बल प्राप्त हो।  असल में समर्थ वही है जो औरों के लिए जीवन जीने का माद्दा रखे और आगे बढ़े। इसके लिए समाज के समर्थ लोगों को उदारतापूर्वक स्वैच्छिक त्याग की भावना से आगे आने की जरूरत है।

आज समाज सेवा के क्षेत्र में अनन्त संभावनाएं हैं जिनमें भागीदारी निभायी जा सकती है। समाज को पिछड़ेपन के कलंक से घिरा रहने देकर हम अपनी तरक्की की कल्पना करें, यह मानुषी सृष्टि का अपमान है। जो लोग जिस क्षेत्र में हैं उन्हें चाहिए कि जीवनमुक्ति का सुकून पाने के लिए अपनी ओर से प्रसन्नतापूर्वक त्याग और विसर्जन की भावना से आगे आएं और समाज को वह सब दें जो उन्होंने समाज और मातृभूमि से प्राप्त किया है। इसी भावना से किया गया जीवनयापन ऎसा संतोष दे जाता है जो संतोष जीवन भर हमेंं प्राप्त नहीं होता। हम दुनिया जहान का सब कुछ पाने के लिए  श्वानों की तरह दौड़ लगाते रहते हैं फिर भी जिन्दगी भर हमें न सुख मिल पाता है न संतोष। संतोष और शाश्वत सुख न अनाप-शनाप धन-दौलत से मिल सकता है न संसार के तमाम भोग-ऎश्वर्य और विलासिता से।  मनुष्य के जीवन में यदि संतोष, सुख और सुकून प्राप्त हो सकता है तो सिर्फ और सिर्फ लोक सेवा, समाज सेवा और त्याग से।


---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077

कोई टिप्पणी नहीं: