सामाजिक सरोकार ही सँवारते हैं... - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 30 अगस्त 2012

सामाजिक सरोकार ही सँवारते हैं...


व्यक्तित्व और संसार !!!


संसार में अवतरित होने वाला प्रत्येक जीव उस मिट्टी और परिवेश के लिए हैं जहां उसका जन्म होता है। इसीलिए मातृभूमि को सबसे ऊँचा दर्जा दिया गया है। जिस जमीन से हम अन्न, जल और हवा ग्रहण करते हुए अपने जीवन की यात्रा शुरू करते हैं उस जमीन का कर्ज चुकाना प्रत्येक जीव का परम कर्त्तव्य है। जो ऐसा कर पाते है वे उऋण होकर ऊर्ध्वगति प्राप्त करते हैं और जीवन लक्ष्यों में आशातीत सफलता का इतिहास रचते हैं। इसी प्रकार के लोगों को वह जमीन भी युगों तक याद रखती है और वहां की हवाएं भी उनका जयगान करती रहती हैं। जबकि दूसरी किस्म उन लोगों की हुआ करती है जिनका जीवन नाम मातृभूमि की सेवा से कोई सरोकार नहीं रखता बल्कि जीतना ज्यादा से ज्यादा ये दोहन और शोषण कर सकते हैं, करते रहने को ही जिन्दगी का अहम मकसद मानते रहते हैं। इन लोगों को न समाज से मतलब है न परिवेश से और न ही मातृ भूमि से। ये लोग धन-सम्पदा और पद प्रतिष्ठा के मिथ्या भ्रमों और आडम्बरों में रमें रहकर ताज़िन्दगी तात्कालीक सुख पाने के लिए कोल्हू के बैल की तरह भ्रमण करते रहते हैं।

इन दोनों ही तरह के लोगों के अस्तित्व के बीच सबसे बड़ी बात यह है कि आदमी के सामाजिक सरोकार और समुदाय के प्रति समर्पण ही उसके जीवन का सबसे प्रतिष्ठित पहलू होता है और यही तय करता है आदमी में इन्सानियत का वजूद तथा समाज के लिए जीने और मरने की जिजीविषा। यूं देखा जाए तो हरेक व्यक्ति का दूसरे से किसी न किसी रूप में सीधा या परोक्ष सम्पर्क होता है और इन्हीं श्रंृखलाओं से समाज का निर्माण होता है। हर इकाई सामाजिक समर्पण के लिए आत्मीय भाव से समर्पित होनी जरूरी है तभी समाज का भला हो सकता है और आने वाली पीढ़ियाँ प्रेरणा प्राप्त कर सकती है। मगर हकीकत में देखा जाए तो बहुसंख्य लोग व्यक्तिगत लिप्सा में इतने लिप्त हो गये हैं कि इन्हें समाज और क्षेत्र से कहीं ज्यादा अपने और अपने परिवार की पड़ी होती है और ऐसे में इनका दृष्टि पटल उदात्त होने की बजाय संकुचित हो जाता है और तब इनका पूरा जीवन मैं और मेरे परिवार के इर्द गिर्द चक्कर काटता हुआ सीमित परिधियों का सुख पाता हुआ अन्ततः समाप्त हो जाता है।

व्यक्ति वही सफल है जिसका जीवन औरों के लिए समर्पित है और संवेदनशीलता का ग्राफ मनुष्यता के समानान्तर चलता चला जाता है। अपने आस-पास से लेकर क्षेत्र में होने वाली सभी गतिविधियों के प्रति हमारी आत्मीय संवेदनशीलता नितान्त जरूरी है। इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि हम सामाजिक परिस्थितियों को सम्बल देने के लिए सकारात्मक सोच और सामूहिक विकास की अवधारणाओं को साकार करते हुए आगे बढें। हम जहां रहते हैं, जहां काम करते हैं और जहां आते-जाते रहते हैं, उन सभी स्थानों पर हमारी छवि परोपकारी और सेवाभावी व्यक्तित्व के रूप में परिलक्षित होनी चाहिए। असल में आदमी वही है जिसके सम्पर्क में आने वाला हर जीव उल्लास और आनन्द का सुकून प्राप्त करे। यदि हम ऐसा नहीं कर पा रहे हैं तो दोष किसी और का नहीं बल्कि हमारा ही है कि हम आदमी होने या बनने के लायक कोई जतन नहीं कर सके हैं।

हमारे जीवन की धाराओं को निरन्तर वेगवान बनाये रखने के लिए जरूरी है कि हम सामाजिक सरोकारों के महत्त्व को समझें और इनसे जुड़ी हर गतिविधि में भागीदार बनें। अभी हम यह नहीं कर पाये तो आने वाला समय न हमें याद रखने वाला है और न ही माफ करने वाला। हम हमारे व्यक्तित्व को सँवारना चाहे तो हमें सबसे पहले सामाजिक उत्तरदायित्वों और सामाजिक सरोकारों को समझ कर इनमें सहभागिता के कदम बढाने होंगे, तभी हम कुछ होने और करने को गौरव तथा गर्व हासिल कर सकते हैं।


---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077

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