खर-दूषणों और नरपिशाचों को !!!
सृष्टि में सात्विक, राजसिक और तामसिक सभी प्रकार के लोेगों का अस्तित्व हर युग में रहा है। यह दिगर बात है कि सतयुग, त्रेतायुग और द्वापर युग के बाद कलियुग आते-आते सज्जनों और सात्विक लोगों में उत्तरोत्तर कमी आती गई और कलि के प्रभाव से मौजूदा युग में सात्विक और राजसिक लोग बहुत कम संख्या में नज़र आते हैं लेकिन तामसिक लोेगों की भीड़ ही हर कहीं छायी हुई रहने लगी है। ऎसा नहीं है कि इस युग में सात्विक और राजसिक लोेग नहीं हैं। हकीकत ये है कि ऎसे लोग या तो गुप्त हैं अथवा सम सामयिक प्रदूषित धाराओं और विकृतियों से भरी-पूरी उप धाराओं की वजह से हाशिये पर अथवा एकान्त में हैं। अच्छे और बुरों, सुर-असुर और सकारात्मक-नकारात्मक लोगों की न्यूनाधिक संख्या हर क्षेत्र में है। घर-परिवार और समाज से लेकर क्षेत्र और देश-दुनिया तक यही समीकरण बना हुआ है। हमारे अपने क्षेत्र में भी तरह-तरह के लोग विद्यमान हैं। इनमें भी कई लोग ऎसे हैं जिनके लिए कहा जा सकता है कि एक मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है। फिर जहां-जहां एकाधिक ऎसी मछलियां हैं वहां का पूरा माहौल कितना त्रासदायी और नकारात्मक होता है इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। तालाब को गंदा करने वाली मछलियां किसी पुराने जमाने में होती थी, अब तो तालाब से लेकर समन्दर तक को गंदा और प्रदूषित करने वाले ऎसे-ऎसे मगरमच्छ, घड़ियाल और गैण्डे बिराजमान और भ्रमणरत हैं जिनकी वजह से खुद तालाब भी शरमाने और लज्जित होने लगा है।
दुख इस बात का है कि प्रदूषण फैलाने वाले खर-दूषणों की संख्या रक्तबीज की तरह बेतहाशा बढ़ती जा रही है और इनकी नापाक मौजूदगी तकरीबन सभी स्थानों पर अस्तित्व बनाए हुए है। समानधर्माओं का सह अस्तित्व भी इस प्रकार का है कि इन खर-दूषणों में पारस्परिक मेल-मिलाप का जो दौर इन दिनों देखने को मिल रहा है वैसा मजबूत गठजोड़ बीते जमाने में कभी नहीं देखा गया। आपसी स्वार्थों, हरामखोरी और शोषण की जो प्रवृत्ति हाल के वर्षों में हमारे सामने आयी है उसने मानवीय मूल्यों का गला की काट कर रख दिया है। लूट-ख़सोट के सारे पैमानों को पूरा करने वाली अपसंस्कृति के हरकारों ने पूरी की पूरी भारतीय संस्कृति, सभ्यता और परम्पराओं का जो हश्र किया है उसके लिए आने वाली पीढ़ियां उन सभी लोगों को कभी माफ नहीं करेंगी जो धन-सम्पदा, पद-प्रतिष्ठा और जायज-नाजायज खुरचन या सड़ी-गली बदबूदार झूठन चाटने के फेर में ऎसे-ऎसे काम और व्यवहार कर रहे हैं जिनसे मानवीय संवेदनाओं के पुरातन भाव लज्जित हो रहे हैं। इन नरपिशाचों के व्यवहार से कहीं नहीं लगता कि ये किसी भी कोण से मनुष्य होने के काबिल भी हैं। समझदार लोगों की मानें तो ऎसे लोगों को मनुष्य की बजाय लूटेरे और आक्रान्ताओं की श्रेणी में रखना ज्यादा उपयुक्त होगा। बीते जमानों में जो काम चोर-उचक्के और डकैत किया करते थे, उसे आज के ये रक्तबीज नवाचारों के साथ इस प्रकार कर रहे हैं कि इनके चारों ओर ओढ़े हुए आवरणों की वजह से कोई शंका नहीं कर पा रहा है। पुराने जमाने के ऎसे लोगों को उन संबोधनों से कोई परहेज नहीं था भले ही लोग उन्हें डाकू-लुटेरे और चोर-उचक्के कह कर क्यों न पुकारें। जो काम वे करते थे उसे वे स्वीकार करते थे और समाज में उन्हें इसी रूप में स्वीकारा जाता था। आज नए चेहरों और आवरणों में ऎसे-ऎसे लोग हमारे बीच हैं जो काम उन जैसा ही कर रहे हैं मगर संभल-संभल कर।
ये लोग ऎसे-ऎसे कुबेर भण्डारों पर कब्जा जमाए बैठे हैं जहां से सेंधमारी करते हुए धीरे-धीरे पूरा खजाना ही खाली हो जाता है और किसी को भनक तक नहीं पड़ती। ऎसे सारे काम ये लोग इस सलीके से करते हैं कि करें कुछ, और जमाने में प्रतिष्ठा किसी और रूप में। चतुराई से सब कुछ कर गुजरने वाले इन लोगों को कुछ कह दो तो फिर ऎसे गुर्राने लगते हैं जैसे ईमानदारी और कत्र्तव्यनिष्ठा का कोई बड़ा ठेका ही ले रखा हो। फिर इनकी भूँक में वे लोग भी आ जुटते हैं जो इनकी ही तरह मानवीय संवेदनाओं और आदर्शों के क्रियाकरम में दिन-रात एक कर रहे होते हैंं। कहा जाता रहा है - चोर-चोर मौसेरे भाई, डकैत-डकैत सगे भाई। हैरत की बात यह है कि समाज के लिए असामाजिक हरकतों को प्रश्रय देने वाले खर-दूषणों को भले ही असामाजिक करार दिया जाए मगर इनका भी हर कहीं अपना समाज बन जाता है जो समाज की छाती पर मूँग दलने से पीछे नहीं रहता। जहाँ मौका मिलने लगता है ये लोग हाथ का जमकर इस्तेमाल किए बिना नहीं चूकते। हाथ मारने, हाथ साफ करने, हाथ पसारने, हाथ थामने, हाथ दिखाने, हाथ रखने, हाथ मिलाने से लेकर अपने हाथों वे सारे काम कर गुजरते हैं जिनसे मुफतिया माल पा लेने की उम्मीद हो या बिना किसी पुरुषार्थ के बैठे-बिठाये कोई लाभ दिख जाए। कभी पहाड़ के नीचे आए ऊँट की तरह ये हाथ ऊँचे या खड़े कर देने से भी नहीं हिचकते। इनके लिए हया या आबरू कोई मायना नहीं रखती, अपने लाभ के लिए कुछ भी कर सकते हैं, कुछ भी करवा सकते हैं। इन बेशर्मों की लम्बी श्रृंखला भी हुआ करती है जो हर कहीं एक-दूसरे को मदद करने और पाने को उतावली रहती है। ऎसे विकृत और मनोमालिन्य से भरे लोगों की निरन्तर बढ़ती जा रही मौजूदगी के लिए आप और हम सभी जिम्मेदार हैं जिन्होंने लगातार इनकी हरकतों की उपेक्षा की और इनके नापाक इरादों व हथकण्डों को सहते चले गए।
इस वजह से इनकी दुष्टता और असामाजिकता का ग्राफ इतना बढ़ चला है कि ये लोग अब पूरे परिवेश को भ्रमित और दूषित करने को आमादा हो गए हैं। उनकी इस यात्रा में सारे के सारे खर दूषण शामिल हैं। आधे-अधूरों और अधमरों से लेकर पूर्णता का भ्रम पाले बैठे लोग भी इनके साथ हैं जिन्हें हम भी भ्रम, भूल या भय से आदर और सम्मान नवाज़ते रहे हैं। आदमियों की कई-कई किस्मों के साथ वे लोग भी इन भ्रष्ट और बेईमानों के साथ वृहन्नलाओं की तरह नाच-गान करने के आदी हो गए हैं जिन्होंने अपनी सारी हरकतों को तमाशा बना डाला है। बहुरुपियों की तरह नापाक और विचित्र हरकतों में रमे हुए इन खर-दूषणों ने मामा मारीच से लेकर मामा शकुनि तक को भी कहीं पीछे छोड़ दिया है। समाज के जागरुक लोगों का यह दायित्व है कि जहां कहीं ऎसे सेंधमार और असामाजिक लोगों को देखें, इनकी हरकताें पर टोकें, इनकी फिक्र भी करें और जहां कहीं मौका मिले, इनका भरपूर जिक्र भी करें ताकि इनकी असलियत सामने आकर पोल खुल सके। पद-प्रतिष्ठा और सम्मान के आवरणों में अपने आपको सुरक्षित मानकर चल रहे ऎसे लोगों और उनकी हरकतों को आज बेनकाब नहीं किया गया तो ये लोग आने वाले समय में पूरे समाज को अपनी धुंध से इतना ढंक लेंगे कि आदमी को आदमी नहीं दिखेगा। समाज की सबसे बड़ी सेवा आज के समय में यही है कि जो बुरा और दुष्ट है, उसे वैसा ही संबोधित किया जाए, उसके बारे में हकीकत बतायी जाए और समाज को इनसे मुक्ति के मार्गों के बारे में बताया जाए। इन बुरे लोगों की मुक्ति से ही अपना समुदाय और क्षेत्र तथा राष्ट्र उन्नत हो सकता है और हम इन नरपिशाचों के घेरों से मुक्त।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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