गायब होने लगी है जिन्दगी की सुगंध !
हर मनुष्य अपने पूरे जीवन में हर क्षण सुख-समृद्धि और आनंद की प्राप्ति का इच्छुक रहता है और इसी लक्ष्य को लेकर वह उन सभी प्रकार के सांसारिक कामों में पूरा मन लगाता है जहाँ से उसे इनकी प्राप्ति हो सकती है अथवा इनकी उपलब्धता के द्वार खुलते हैं। जीवन में आनंद की प्राप्ति के लिए मनुष्य अच्छे-बुरे, असली-नकली सारे कामों को अपनाने का आदी होने लगता है। पिछले कुछ दशकों से भोगवादी वृत्ति और भोग-विलासिता को ही जीवन लक्ष्य मानकर चलने वालों ने कई ऐसे आधुनिक नवाचारों को अपना लिया है जो असली हैं नहीं मगर असली की तरह दिखते जरूर हैं।
सुगंध केवल असली में होती है और वास्तविक सामग्री या व्यवहार से ही ईश्वर और मनुष्यों को प्रसन्न किया जा सकता है। किन्तु अब जमाना दिखावे का हो गया है जहां वो हर काम होने लगे हैं जो वास्तविक और सत्य भले न हों, असली होने का आभास कराने वाले होने जरूरी हैं। हमारा मकसद अब सही और असली काम करने की बजाय असली दिखना ही रह गया है और इस मनोवृत्ति का दिग्दर्शन हमारे पूरे जीवन और व्यवहार से होता है।
हमारी हर आदत और मानसिकता इस बात को स्पष्ट प्रकटा देती है कि हम क्या हैं और कैसे हैं। भले ही हम कितना छुपाव-दुराव रखें, हमारी अदाएं और नज़रें सब कुछ अच्छी तरह बयाँ कर देती हैं।
पहले असली खूब हुआ करते थे और नकली कम। अब स्थिति उलट गई है। नकलियों और नकलचियों की भरमार है और असली मार्केे वालों की संख्या निरन्तर घटती जा रही है। जमाने भर में खुद को सुन्दर और अच्छा दिखाना ही अब हमारा सर्वोपरि लक्ष्य हो चला है। यह अपने शरीर से शुरू होता है और परिवेश तक पसरने लगता है। कुछ बिरलों को छोड़ दिया जाए तो आजकल हर व्यक्ति खुद को जवान दिखाये रखने के फेर में उन सभी कृत्रिम साधनों और संसाधनों तथा तरीकों का इस्तेमाल कर रहा है। लगातार संख्या बढ़ाते जा रहे ब्यूटी पॉर्लरों और तरह-तरह के अत्याधुनिक नामों वाले पॉर्लरों से लेकर ऐसे सभी बदलावों को देख साफ समझा जा सकता है कि दिखावे के लिए हम कुछ भी कर सकते हैं।
अपने आपको बदल देने से लेकर जमाने भर को बदल देने तक के सारे कामों में हम माहिर होने लगे हैं। लोग जो हैं वह दिखना नहीं चाहते हैं, और जो हैं नहीं वैसा दिखना चाहते हैं। यह दोहरा-तिहरापन व्यक्ति के जिस्म से लेकर चरित्र तक में जड़ें गहरे तक जमा चुका है। औरों को दिखाने के लिए आदमी कभी मदारी हो जाता है और कभी बंदरिया नाच तक कर डालने में उसे जरा भी हिचक नहीं है। कृत्रिम उपकरणों और संसाधनों के साथ सौन्दर्य और फैशनपरस्ती के घालमेल ने लोगों को ऐसे मुकाम पर ला खड़ा कर दिया है जहाँ असली मनुष्य गायब होने लगा है और उसकी बजाय कभी आधा आदमी, आधा और कुछ नज़र आ रहा है। आदमी खुद को कृत्रिम बनाते हुए सौन्दर्यशाली भले दिखना चाहे, उसने अब अपने तमाम कर्मों में भी कृत्रिमता का समावेश कर लिया है। यहाँ तक कि आदमी ईश्वर को भरमाने में भी पीछे नहीं है।
भगवान के समक्ष दीपक भी रखेगा तो इसमें घी गायब होता है और बाती की बजाय बाती की शक्ल वाली लाईट जलाने लगा है। अब तो अगरबत्ती भी इलेक्ट्रानिक हो गई है। न सुगंध रह गई है न और कुछ। ऐसे में आदमी चाहता है कि ईश्वर उसके जीवन में सुगंध का पसार करे। नियति का स्पष्ट सिद्धान्त है - जैसा दोगे, वैसा पाओगे। ईश्वर भी कृत्रिम संसाधनों का प्रयोग करने वालों के जीवन में आभासी सुख-समृद्धि की छाया मात्र दिखाने लगता है। हमारी कृत्रिमता और आडम्बरी जीवन घर-परिवार तक ही सीमित नहीं रहा है बल्कि हम जहां कहीं रहते हैं, जहां काम करते हैं और जहां हमारा आवागमन बना रहता है वहां भी हमने कृत्रिमता बिखेर दी है।
आजकल घरों, दफ्तरों से लेकर उद्यानों और प्रतिष्ठानों तथा सार्वजनिक स्थलों पर सौन्दर्य दिखाने की गरज से हमने कृत्रिम संसाधनों का खूब प्रयोग करना शुरू कर दिया है। परिवेश को हरा-भरा दिखाने के लिए प्लास्टिक की फूल-पत्तियां और पौधे लगा रखे हैं। इनसे साफ पता चलता है कि ये असली नहीं हैं मगर हम सभी इस भ्रम में जी रहे हैं कि लोगों को ये असली लग रहे हैं। मामला सभी प्रकार के कृत्रिम संसाधनों का है। इनका उपयोग करते हुए हम खुद तो भ्रमित हैं ही, औरों को भी भ्रमित करने का नाटक कर रहे हैं। जबकि सभी लोगों को इनकी असलियत का पता है। एक-दूसरे को गुमराह करने और भ्रमित करते रहने का जो दौर हाल के वर्षों में शुरू हुआ है, वैसा हमारे यहाँ पहले कभी नहीं देखा गया। इस मायने में आज की पीढ़ी के लिए यह नवाचार ही कहा जाना चाहिए।
हकीकत तो यह भी है कि कृत्रिमता को अपनाते हुए और इन नकली संसाधनों का प्रयोग करते-करते हम खुद भी हर दृष्टि से नकली होते जा रहे हैं। हम सभी चाहते हैं कि दिखावा करें और वह सब कुछ पा जाएं जो असली के समर्पण से प्राप्त होता है। दिखावों को ही जीवन का लक्ष्य मानकर आडम्बरी जीवन जीने का हमारा यह दौर कभी नहीं थमा तो आने वाले समय में असली मनुष्य गायब हो जाएंगे और उनकी जगह जिन लोगों की मनुष्य के रूप में कल्पना की जाएगी उसमें सब कुछ नकली होगा और तब मनुष्य का हर क्षण कृत्रिमता और आडम्बरों से इतना भरा होगा कि मानवीय संस्कृति की विलक्षणताएं और आदर्श ढूंढ़े नहीं मिल पाएंगे।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें