हमेशा ताजगी पाने के लिए... - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 19 अगस्त 2012

हमेशा ताजगी पाने के लिए...


बदलते रहें अपनी कार्यशैली !!!


जीवन के बहुआयामी सुनहरे रंगों का साक्षात जो करना चाहता है उसे हमेशा ताजा और मस्त रहने के लिए यह जरूरी है कि उन सभी तत्वों को स्वीकारा जाए तो ताजगी से परिपूर्ण हो। बात चाहे विचारों की हो या कल्पनाओं को साकार स्वरूप देने की। जीवन को हमेशा इन्द्रधनुषी रंगों से भरा-पूरा रखने के लिए बिन्दास रहना और नई-नई पद्धतियों, नवाचारों, नवीनतम विचारों और नित नूतनता भरे प्रयोगों को अपनाते रहने की जरूरत है। भारतीय संस्कृति की जड़ों और परम्परागत आदर्श मूल्यों से जुड़े रहकर अपने लायक और कल्याणदायी आधुनिक आयामों को स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए। पर इसके लिए यह जरूरी है हमारा मन-मस्तिष्क कब्र या कूड़ाघर न होकर स्वच्छ आकाश की मानिंद व्यापक, स्वच्छ और खुला हो जहाँ पुरानी बातों और बुरे अनुभवों का कोई स्थान न हो बल्कि इतना खालीपन जरूर होना चाहिए कि इसमें नवीन विचारों और कल्पनाओं का आगमन होता रहे तथा इसके बावजूद यह भरे नहीं अन्यथा आगमन का क्रम बन्द होकर संग्रहण का दौर आरंभ हो जाता है और यही संग्रहण व्यक्ति में गंदगी और तनावों को भरने लगता है। पुराने से पुराने अनुभवों को नवीनता में ढालकर मन-मस्तिष्क को ताजगी से भरा रखें और अपने व्यक्तित्व के साथ परिधियों या स्व निर्मित सीमाओं का दुराग्रह छोड़ कर काम करें तभी उन्मुक्त होकर ताजगी के साथ कर्मयोग को पूर्ण जीवंत बनाए रखा जा सकता है।

जो लोग अपने जीवन की विभिन्न गतिविधियों को किसी  फ्रेम में ढाल लेते हैं या सीमाओं का घेरा खींच लेते हैं उनके लिए जीवन की उन्मुक्तता और वैचारिक उड़ान थम जाती है और उसी परिधि में चक्कर काटते रहते हैं। बहुतेरे लोगों की जिन्दगी इन्हीं भ्रमों में गुजरती जाती है और जब जाने का समय आता है अथवा कभी निरपेक्ष भाव से मूल्यांकन का अवसर आता है तब ऎसे लोगों का मन दुःखी और खिन्न हो जाता है लेकिन तब उनके पास अपनी कार्यशैली को बदलने या दूराग्रह-पूर्वाग्रह छोड़ने के लिए न पर्याप्त समय होता है न इनके परिवर्तन को समाज या परिवेश स्वीकार कर  पाता है। इसलिए जीवन मेंं कुछ-कुछ समय बाद अपनी प्रवृत्तियों और गतिविधियों का आत्म मूल्यांकन एवं विश्लेषण होते रहना चाहिए और इनके जो भी निष्कर्ष सामने आते हैं उन्हें स्वीकार करते हुए परिवर्तनशील रहना चाहिए। इसके साथ ही सम्पूर्णता का बोध जीवन में कभी नहीं होना चाहिए। एक बार सम्पूर्णता या परिपक्वता का बोध हो जाने पर व्यक्ति मरते दम तक वहीं अटका रहता है जहां जिस घड़ी उसे ये यह बोध हो जाता है। व्यक्ति का समग्र जीवन एकरसता और जड़ता से घिरा नहीं होना चाहिए बल्कि समाज के लिए अधिकतम कुछ कर गुजरने की भावना से नित नवीनता का अवलम्बन करते रहना चाहिए। हमेशा नए विचारों के साथ काम करना चाहिए ताकि जीवन भर ताजगी बनी रहे और हमारा ज्ञान भण्डार तथा व्यवहारिक ज्ञान कोष निरन्तर समृद्ध होता रह सके। हर व्यक्ति की अपनी अलग कार्यशैली होती है तथा औरों के साथ व्यवहार भी। कार्यशैली का यह बंधा-बंधाया ढर्रा ही तय करता है उसके व्यक्तित्व की सीमाएं और प्रतिष्ठा के मानदण्ड। यह सामान्य व्यक्तियों की बात है।

लेकिन जो लोग अपनी कार्यशैली और कार्य संपादन की वृत्तियों को नित नवीनता का समावेश करते हुए बदलते रहते हैं उनके लिए हर दिन ताजगी भरा होता है और यह ताजगी उनके जीवन के प्रत्येक कर्म के सुफल को बहुगुणित कर देने के लिए काफी होती है।  नवोन्मेषी प्रवृत्तियों वाले व्यक्तियों के जीवन में इस कदर सुगंध पसरने लगती है कि दूर-दूर तक इसका आभास होने लगता है। जो लोग मुक्तमना और मस्त होते हैं वे निरन्तर कार्यशैली बदलते हुए अपने बहुआयामी व्यक्तित्व का दिग्दर्शन कराते रहते हैं। यह दिग्दर्शन दिमागी सड़ान्ध भरे और पशुता से परिपूर्ण लोगों के लिए दुःखदायी और ईष्र्या का कारण हो सकता है लेकिन चन्द नकारात्मक और मलीन बुद्धि या मंदबुद्धि लोगों को छोड़ दिया जाए तो शेष बहुसंख्य कार्यशैली में बदलाव लाने वाले लोगों को समाज स्वीकार करने लगता है और इससे प्रतिष्ठा का ग्राफ भी बढ़ता है। ताजगी का यही सबसे बड़ा गुण है कि उसमें मिलावट नहीं होती और ऎसे में विचारों तथा कर्मों में शुचिता के भाव इतने भरे-पूरे होते हैं कि हर अच्छा आदमी मन से स्वीकारने लगता है। भले ही बुरे लोग न स्वीेकारें। यह बात तय मानकर चलें कि जो बुरे लोग हैं वे बुरे ही रहने वाले हैं। ऎसा नहीं कि यह आपके लिए बुरे हैं बल्कि हकीकत तो यह है कि ये उन सभी के लिए बुरे बने रहने वाले हैं जो लोग अच्छाइयों के साथ जीवन जी रहे हैं।

कई लोग पुराने लोगों और दूसरों से प्रेरणा प्राप्त कर उनकी पुरानी कार्यशैली को दोहराते रहते हैं। ऎसे लोग जीवन में कभी तरक्की नहीं कर सकते क्योंकि इस प्रकार की कार्यशैली में नवीनता और ताजगी की बजाय नकल का भाव छिपा होता है। आजकल बड़े-बड़े पदों पर बैठे लोग अपने नंबर बढ़ाने के लिए अपने समानधर्मा और समानकर्मा दूसरे लोगों से पूछ-पूछ कर नकलचियों सा व्यवहार करने लगे हैं और उन लोगों के नक्शेकदम पर चलने लगे हैं जो अपने जीवन में फ्लाप हो चुके हैं। इस प्रकार नकलचियों सा व्यवहार करते हुए जब कोई कर्म आरंभ होता है तब उसका कोई प्रभाव सामने नहीं आ पाता क्योंकि इस कर्म में पुरानी सडांध भरी हुई होती है। होना यह चाहिए कि हम अपनी नवीन कार्यशैली विकसित करें और उसका क्रियान्वयन करें ताकि समाज को कुछ नया प्रदान कर सकें। पर आजकल चिंतन और मनन के अभाव में व्यक्ति की सोच कुण्ठित होती जा रही है और लोग अपनी प्रतिष्ठा को बनाए रखने अथवा दूसरों की निगाह में आने के लिए उथले प्रयासों सहारे आगे बढ़ने के प्रयास करते हैं और यही कारण है कि अथाह गहराई पर स्थित मोतियों की खोजबीन की बजाय सतह के शैवाल पर निर्भर रहना पड़ता है जिसकी चिकनाई इतनी कि आज तक कोई इस पर ठहर नहीं पाया है। आज हम हैं, कोई और इस पर होंगे और फिसल कर धड़ाम हो जाएंगे।

इन सारी स्थितियों में अपने कद और कामों की प्रतिष्ठा चिरस्थायी बनाए रखने के लिए जरूरी है कि आत्मचिन्तन और विश्लेषण करें और शुचिता के साथ जीवन जीयें। सिर्फ ईमानदारी और  कत्र्तव्यनिष्ठा की कोरी बातें ही नहीं करें, इन्हें अपने आचरण में भी उतारें। जरूरी है कि पाखण्डों और आडम्बरों को तिलांजलि देकर नयापन लाएं अन्यथा कितने ही लोग चले गए, कितने ही रोज जा रहे हैं और जाने वाले हैं, उनमें हमारी भी गिनती होने वाली है।


----डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077

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