वॉकिंग और टॉकिंग फोबिया से बचें ! - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 16 अगस्त 2012

वॉकिंग और टॉकिंग फोबिया से बचें !


ये ही करते हैं समाज को तबाह !!


मनुष्यों की हर कहीं छायी रहने वाली भीड़ में आजकल निरूद्देशीय लोगों की बहार आयी हुई है। ऐसे लोग भारतवर्ष में कोने-कोने में पाए जाते हैं। अपने इलाके में भी ऐसे लोगों की पावन मौजूदगी है जिन्हें जाने किस पूर्वजन्मी पुण्य की बदौलत भगवान ने मनुष्य का शरीर नवाजा है वरना इनकी एक भी हरकत ऐसी नहीं है कि इन्हें मनुष्य बनाने या होने के लायक समझा भी जाए। आश्चर्य और दुर्भाग्य इस बात का है कि ऐसे लफ्फाजों के कई-कई गिरोह उन सभी गलियारों में नज़र आते हैं जिन्हें समाज में प्रतिष्ठित कहा जाता है। इसे इन सिरफिरों और आवाराओं की घुसपैठ कहें या समाज के ठेकेदारों और निर्माताओं की भूल, मगर इतना तो तय ही है कि आजकल हर क्षेत्र में ऐसे-ऐसे लोग घुस आए हैं जिनका न कोई विज़न है, न बौद्धिक बल या कोई हुनर। सिर्फ कमा खाने भर और पेट भरने को ही जिन्दगी समझ बैठे इन लोगों ने सारे समाज में प्रदूषण फैला कर मानवीय मूल्यों में ऐसा जहर घोल रखा है कि इसके असर को समाप्त करने के लिए पीढ़ियों तक काम करना पड़ेगा।

वह जमाना बीत गया जब आदमी के नाम पर आवारगी करने वालों को समाज की ओर से हतोत्साहित किया जाता है और ऐसे लोगों को समाज में तिरस्कृत होना पड़ता था। आज मूल्यों का ह्रास होने के साथ ही सामाजिक आदर्शों की जड़ों को निरंतर कुरेदते रहने वाले लोगों की संख्या में बेतहाशा इजाफा होने लगा है। इसके साथ ही ऐसे लोगों के ढेरों समूह बनते जा रहे हैं और इन हालातों में सज्जनों में संगठन के अभाव तथा असामाजिकों के संगठनों की भरमार ही मुख्य वजह है कि जिसके कारण सामाजिकता का संतुलन बिगड़ता जा रहा है और मानवीय सृष्टि की बुनियादें हिलने लगी हैं। बात अपने क्षेत्र की हो या देश की। हर कहीं नाकाराओं की संख्या इतनी बढ़ती जा रही है कि गलियों, चौराहों से लेकर हर कहीं वॉकिंग और टॉकिंग फोबिया से ग्रस्त लोग मोयलों की तरह छाये हुए हैं।

आदमी के पास आजकल दो ही काम रह गए हैं। बेवजह घूमना और बिना जरूरत के बोलना। आदमी अपने सारे हुनरों को भुला कर अब इन दो गुणों को पूरी तरह अपना चुका है। अपने आस-पास नज़र दौड़ाएं और देखें तो यह जानकर हैरत होगी कि हम ऐसे खूब सारे लोगों से घिरे हुए हैं जो वाकिंग और टॉकिंग फोबिया के असाध्य मरीज हैं। सवेरे उठने से लेकर सोने तक इनका यह फोबिया चरम पर होता है। यह फोबिया इतना हावी है कि इनके बगैर इनकी जिंदगी अधूरी ही लगती है। यह फोबिया इस प्रजाति के लोगों की देहपात होने तक जारी रहता है। यह फोबिया इतना खतरनाक है कि एक बार लत पड़ जाने के बाद चाहे कितनी मेहनत की जाए, मरने पर ही छूट पाता है। वॉकिंग फोबिया वालों के लिए घूमने का कोई मकसद नहीं होता बल्कि इन्हें घूमने के लिए ही घूमना है। कुछ के घूमने के ठिकाने होते हैं जबकि कुछ कहीं भी घूम सकते हैं। बीच-बीच में मुफत में खाने-पीने का इंतजाम होने की स्थिति में ये चाहे जहां विश्राम पा लिया करते हैं, इसके बगैर ‘सारी दुनिया का बोझ हम उठाते हैं...’ के नारे पर जिन्दा इन लोगों को कहीं विश्राम नहीं मिल पाता।

वॉकिंग फोबिया वाले लोगों में कई अपने डैªस कोड रखते हैं जबकि शेष के लिए कुछ भी चल जाता है। इन लोगों के लिए भ्रमण का कोई अर्थ नहीं होता। चाहे जहां चले जाएंगे, जहां कुछ मिलने की आस हो तो रास्ते में भी रुक जाएंगे। इन लोगों को कोई भी लोभ-लालच देकर पशुओं की तरह कहीं भी लाया- ले जाया जा सकता है या इनसे कोई सा काम करवा लिये जाने की पूरी-पूरी संभावनाएं हमेशा बनी रहती हैं। बेवजह घूमना और गैर जरूरत बोलना ये दो काम ऐसे हो गए हैं जिन्हें अपनाने वालों की तादाद निरन्तर बढ़ती ही जा रही है। आदमी और कुछ करने में समर्थ हो या न हो, मगर बोलने और घूमने में उसका कोई मुकाबला नहीं। आवाराओं की तरह यहाँ-वहाँ घूमते रहने वाले लोगों की यह आदत भले ही जमाने को अच्छी या बुरी लगे, मगर इनके घर वाले इसी में संतोष कर लिया करते हैं कि चलो घर में रहता तो फालतू बातें सुन-सुन कर कान पका देता।

लगातार वॉकिंग फोबिया वाले लोगों की संख्या पहले कम हुआ करती थी लेकिन जैसे-जैसे वाहनों की संख्या में इजाफा होता गया, वैसे-वैसे इस किस्म के लोग अब हर मोड़ पर दिखने और मिलने लगे हैं। जहां ये दो-चार मिल जाएं वहां अर्से तक बैठकर ऐसे बतियाते हैं जैसे देश पर आए संकट का कोई हल ढूंढ़ने के लिए कोई गंभीर मंत्रणा कर रहे हों। जहां-तहां सड़कों पर बैठे गायों के झुण्ड को देख कर उनसे इनकी तुलना की जाए तो इनकी जिन्दगी के सारे लक्ष्यों को अच्छी तरह समझा जा सकता है। इसी तरह टॉकिंग फोबिया वाले भी हमारे पूरे समाज की चिन्ताओं में दुबले हुए जा रहे हैं। आदमी की एक अजीब किस्म पैदा हो गई है जो लगातार नान स्टॉप बोलते जाने में इतनी कुशल है कि इसके आगे सब कुछ बौना हो गया है। इन लोगों के लिए क्या बोलना है, यह मायने नहीं रखता बल्कि कुछ न कुछ बोलते रहना ज्यादा जरूरी है ताकि सामाजिक स्तर पर इनके पावन अस्तित्व को स्वीकारा जाता रहे।

इस बोलने की चतुराई में ही इन्हें अपने प्रतिष्ठित और लोकप्रिय होने का भ्रम पैदा होकर अहंकार का दामन मिल जाता है और फिर ये लोग किसी के भी बारे में अनाप-शनाप बकवास करने के आदी हो जाते हैं जैसे कि इन्हें लोगों पर टीका-टिप्पणियों का कोई आजीवन लाईसेंस ही मिल गया हो। अपने क्षेत्र में ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है जिन्हें बोलने और भ्रमण का शौक है। ऐसे लोग कई-कई शक्लों में हमसे रोजाना टकराते रहते हैं। हममें से हर कोई ऐसा है जो इन महान लोगों के सम्पर्क या सान्निध्य में कभी न कभी रहा होता है और इन लोगों की हरकतों से भी वाकिफ है।

ये ही वे लोग हैं जो जमाने भर का कचरा जमा करते हुए इधर-उधर बिखरते हुए अपना टाईमपास कर रहे हैं। इन लोगों से समुचित दूरी बनाए रखना जरूरी है अन्यथा हमारे शुद्ध मस्तिष्क में भी कचरे का संक्रमण हो सकता है। जहाँ कहीं ऐसे प्रदूषित लोगों को देखें, इनसे किनारा करते हुए आगे बढ़ते रहें वरना तनिक भी लिहाज करके कोई रुक गया तो फिर उसकी जिन्दगी के लिए ये स्पीड़ ब्रेकरों से भी खतरनाक साबित हो सकते हैं। इनके संक्रमण से बचे हुए सभी लोगों को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि ये ही वे लोग हैं जो पूरे समाज में गंदगी फैला रहे हैं और मिथ्या प्रतिष्ठा के लिए वह हर काम करने को तैयार रहते हैंे जो मनुष्य के गुणों से कहीं मेल नहीं खाते।


---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077

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