अच्छी शुरूआत खुद से करें !!
मनुष्य शरीर धारण करने का अर्थ है मातृ भूमि की सेवा। मातृभूमि को माँ की तरह आदर-सम्मान देते हुए उसके हितों का चिंतन करना हमारा सभी का सर्वोच्च मकसद होना चाहिए। जो लोग मातृ और मातृभूमि का अपमान करते हैं या उनके लिए कुछ नहीं करते, वे कृतघ्न हैं और उन्हें जीवन में पग-पग पर दोष लगता है। हम जिस मिट्टी में पल रहे हैं, जिस मिट्टी का अन्न और पानी तथा हवा ग्रहण कर रहे हैं, ऎसे में हमारी प्राथमिक जिम्मेदारी है कि हम मातृभूमि की सेवा को सबसे बड़ा धर्म मानकर तन-मन और धन को न्यौछावर करने में कोई कसर बाकी नहीं रखें। आज लोग जननी और मातृभूमि को भुलाते जा रहे हैं इसका मूल कारण मनुष्यों में आसुरी वृत्तियों का समावेश होना है जो उन्हें कभी अच्छे कर्मों को करने के लिए प्रेरित करने की बात तो दूर, इससे वंचित रखने में पूरी शक्ति लगा देती हैं और यही कारण है कि जिस ईश्वर ने मनुष्य को धरा पर भेजा है, उसी ईश्वर और उसके द्वारा आरंभ किए सद् मार्ग को हम भुलाते जा रहे हैं। दोष किसी और का नहीं है, हमारा ही है। क्योंकि भारतीय परंपरा में मैकाले शिक्षा पद्धति और स्वार्थ केन्दि्रत जीवन का जब से प्रवेश हुआ है तभी से हम जीवन के सारे मूल्यों को भुला बैठे हैं और हमारा पूरा जीवन हर कहीं से पैसे और वैभव बटोरने में जुटा हुआ है।
जो लोग जहाँ पैदा हुए हैं उस धरा के लिए कितना कुछ कर पा रहे हैं। यह गंभीरता के साथ सोचने की बात है। मातृभूमि को भी अपेक्षा होती है कि उनके वहां पले और बड़े हुए धरतीपुत्र उसकी सेवा का भाव रखें। आजकल तो मातृभूमि को ही भूलते जा रहे हैं। शहरीकरण और आदमी के बाजारीकरण के मौजूदा दौर में मातृभूमि निरन्तर उपेक्षित होती जा रही है। हममें से हर किसी को सोचना होगा कि हम हमारी मातृभूमि के लिए कितना कुछ कर पा रहे हैं। मातृभूमि ने हमें कितना दिया है और हम कितना दे पा रहे हैं। इस तुलनात्मक विश्लेषण मात्र से हमारी आँखें खुल जानी चाहिएं। हमारे मन में माता-पिता, गुरुजनों और बुजुर्गों के प्रति परंपरागत संवेदना और आदर-सम्मान का भाव गायब हो चला है। यही नहीं हमारे स्वार्थ पूरे न हों तो हम हमारे आत्मीय संबंधों को भी खत्म कर दें। यही वजह है कि आज हमारा समाज भयावह दौर से गुजर रहा है जहां न आत्मीय रिश्ते कायम हैं न सेवा और संवेदना के साथ परोपकार का कोई भाव। मातृभूमि की सेवा पहले जहां सबसे पहली प्राथमिकता हुआ करती थी, आज सबसे अंतिम हो गई है। यही कारण है कि हमारी सामाजिक, सांस्कृतिक और शाश्वत बुनियादें हिलने लगी हैं जिसका सीधा असर हम पर तो पड़ ही रहा है, हमारी आने वाली पीढ़ी भी इससे बच नहीं पाएगी।
इस सबका मूल कारण भारतीय संस्कृति और परंपराओं की जानकारी तथा विलक्षणताओं और विशेषताओं से हमारा अनभिज्ञ होना है और इस वजह से हममें संस्कारहीनता आती जा रही है जो आने वाले समय में पूरे यौवन पर होगी तब समाज और देश की हालत क्या होगी, इस बारे में सोचना भी रौंगटे खड़े कर देने वाला होगा। हम चाहें तो मातृभूमि की सेवा के लिए अनन्त अवसर हमारे सामने हैं लेकिन हमारी विवशता यह है कि हमारा विश्वास भीड़ में हो चला है। जैसी भीड़ आएगी, वैसे ही हम भेड़ों की तरह पीछे-पीछे चलना शुरू कर देंगे। हम यह भी चाहते हैं कि पहल कोई और करे ताकि हम पिछलग्गूओं की तरह भीड़ में शामिल हो जाएं। हमारी इसी हीनता ने हमें संकीर्ण कर दिया है और समाज को खूब पीछे धकेल दिया है। हर व्यक्ति के पास मातृभूमि की सेवा के विचार और कार्य करने की शक्ति है, इसका उपयोग करते हुए हमें ही पहल करनी होगी। जब तक औरों की ओर ताकने की हमारी प्रवृत्ति बनी रहेगी तब तक हम कुछ कर पाने का सिर्फ विचार ही कर पाएंगे और ऎसे ही विचार करते-करते एक दिन खाक में मिल जाने वाले हैं।
विश्व का नेतृत्व करने की क्षमता रखने वाले भारत के भरतों का यह हाल होगा, ये हमारे पूर्वजों ने कभी नहीं सोचा होगा। हमें लानत है हमारे मनुष्य होने पर, जो शरीर तो मनुष्यों का धारण कर लिया है और आचरणों में हम जानवरों की आदतों को ढाल रहे हैं। जो जहां है वहां किसी न किसी रूप में मातृभूमि की सेवा करे, तभी समाज और राष्ट्र को नई दिशा दी जा सकती है। आज हम दुनिया को बदल देने तक की बातें करते हैं, रोजाना कई घण्टों की बकवास और अनर्गल चर्चाओं में रमे रहते हैं, लेकिन क्या करना है और क्या कर सकते हैं, इस बारे में कभी चिंतन नहीं करते। हमारे अवतरण को बरसोंं हो जाते हैं लेकिन विचारों के घोड़ों को संकीर्ण मैदानों में दौड़ाते-दौड़ाते हर बार हम वहीं आकर रुक जाते हैं जहां से शुरू हुए थे। इस भीरू प्रवृत्ति और कायरता-नपुंसकता को अभी नहीं त्यागा गया तो आने वाला समय न हमारे लिए अच्छा है, न समाज के लिए। जिस देश में नपुंसकों की संख्या बढ़ जाती है वह देश दासत्व के सारे रास्ते अपने आप खोलने लगता है। हमें ही तय करना होगा कि हमें क्या पसंद है।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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