दोहरे-तिहरे चरित्र वाले !!!
जमाना अब वास्तविकता से कहीं आगे निकल चुका है जहाँ अपने काम निकलवाने और निकालने के लिए अभिनय का सहारा हर कहीं लिया जाने लगा है। अपने स्वार्थों की सिद्धि के लिए आदमी आजकल जिन कलाबाजियों में माहिर हो चला है वे सभी आज अभिनय की श्रेणी में आते हैं। भले ही आज हमें अभिनय के लिए उपयुक्त मंच न मिले हों, मगर हमने जनजीवन व समूचे परिवेश को ही अभिनय में इतना ढाल दिया है कि आम आदमी अब जो कुछ देख रहा है, भुगत रहा है, समझ रहा है वह सब कुशल अभिनय के सिवा कुछ नहीं। वास्तविकताओं के सारे पैमाने ध्वस्त हो गए हैं और उनकी जगह ले ली है अभिनय ने। यह अभिनय की अपनी मानवी शैली ही है जो आदमी इन कलाबाजियों, करतूतों और हथकण्डों के सहारे हर कहीं हाथ मार लेता है, वह सब कुछ पा लेता है जो उसे अभीप्सित है। चाहे वह उसके भाग्य में हो या न हो। पहले आदमी जी तोड़ मेहनत करने के बाद अपने लक्ष्य को पा लेता था, आज वह मेहनत करना नहीं चाहता, बिना मेहनत के ही सारे जमाने के सुख और सुविधाओं को पा लेने को उतावला बना रहता है।
ऎसे में नौटंकियों और अभिनयों के सहारे वह बिना मेहनत के ही सारे आसमाँ को अपने कब्जे में कर लेने की जुगत भिड़ाता रहता है। उसके जीवन में अभिनय ही वह शॉर्टकट हो गया है जिसे अपना कर वह उन सभी गलियारों में दिन-रात स्केटिंग करता रहता है जहाँ उसे कुछ न कुछ पा जाने का सुकून मिलता है। अभिनय का हुनर ऎसा रामबाण है जो हर कहीं चल जाता है। इस हुनर का इस्तेमाल हर कहीं अचूक प्रभाव छोड़ता है और वह सब कुछ दिला सकता है जो हमें अपनी झोली भरने के लिए चाहिए होता है। वह जमाना बीत गया जब आदमी अच्छे कामों से खुश होता था और यह खुशी ही उन सारे कामों की सफलता का आधार हुआ करती थी जो लोगों को वांछित हुआ करती थी। आज आदमी अच्छे कामों या इंसानियत के मानदण्डों, नैतिकता या मानवीय मूल्यों से प्रसन्न नहीं होता बल्कि उन सभी वस्तुओं से खुश होता है जो उसे समृद्ध होने का सुकून देती हैं और जिन्हें देख जमाना उनकी प्रतिष्ठा के सारे पैमाने तय करता है। यह पैमाना आदमी के व्यक्तित्व, मूल्यों और आदर्शों अथवा पारिवारिक संस्कारों या कर्तृत्व की बजाय उसकी उन सम सामयिक दक्षताओं पर निर्भर हुआ करती है जिन्हें आजमा कर आदमी दूसरों से वह सब कुछ हथिया लेता है जो उसके मन में होता है।
समझदार होने के बाद आदमी दो धाराओं को अपना लेता है। एक मार्ग वह है कि जहाँ व्यक्ति अपने परिश्रम और मौलिक हुनर को अपनाकर आगे बढ़ता रहता है, अपने संस्कारों से समाज का हित करता चला जाता है और जीवन के मूल्यों को अपनाते हुए जन-जन के हृदय में प्रतिष्ठित होता है। दूसरा मार्ग वह है जहाँ हम अपने संस्कारों और मौलिकता को ध्वस्त करते हुए सम सामयिक धाराओं से भरे हुनर को अपना लेते हैं जहाँ एक-दूसरे की झूठी प्रशस्ति गा-गाकर, मनुष्यता को गिरवी रखते हुए उन सभी कामों को कर लेने का माद्दा पैदा कर लेते हैं, वो हर काम करने को तत्पर रहते हैं जिन्हें संस्कारवान व्यक्ति पूरी जिन्दगी नहीं कर पाता है। आज आदमी अपने आप में कुछ और है, घर में कुछ और। कहीं बाहर जाएगा तो वह और बदला हुआ नज़र आएगा। हर रिश्ते में आदमी का बदला हुआ किरदार नज़र आने लगा है। आत्मकेन्दि्रत स्वार्थों और अपने-अपने इन्द्रधनुषों को आकार देने के लिए आदमी अपने रोजमर्रा के रिश्ते-नातों और व्यवहार में भी कृत्रिमता का इतना लबादा ओढ़े हुए है कि हर एक के साथ उसका अभिनय अलग-अलग दिखता और महसूस होता है। आदमी का यह अभिनय इस मायने में जरूर अलग है कि आज उसके अभिनय को पहचानना मुश्किल हो गया है क्योेंकि आज का अभिनय कुटिलताओं और पाखण्डों से खूब भरा हुआ है। अधिकांश लोग अब इतने डुप्लीकेट होते जा रहे हैं कि वे सोचते कुछ और हैं और करते या दिखते कुछ अलग। आदमी का चरित्र दोहरा-तिहरा ही नहीं बल्कि अब बहुआयामी होता जा रहा है जहाँ न कोई सिद्धान्त हैं व न कोई स्वस्थ और सुन्दर रास्ते।
ज्यादातर लोगों के लिए एक ही रास्ता बचा हुआ है, चाहे जैसे भी हो सके सारी दुनिया का अपने हक़ में इस्तेमाल कर लें। यही रास्ता है जिसकी वजह से आदमी मजबूर हो गया है अभिनय दर अभिनय के लिए। वह मौकापरस्ती का सबसे बड़ा जानकार है और इसलिए टोह लेने से लेकर घुसपैठ कर लेने, मुुकाम बना लेने, खंजर घोंप कर भी आगे बढ़ जाने में माहिर हो जाता है। जैसा बिम्ब सामने दिखता है वैसा अभिनय कर लेता है। अभिनय के सैकड़ों हुनर वह मौके-बे मौके आजमाने लगा है और इनका लाभ भी पाता रहता है। इन लोगों के अभिनयों ने मदारियों के हुनर और बंदरों, भालुओं आदि के तमाशों और अभिनयों को खूब पीछे छोड़ कर नए किस्म का ही अभिनय दिखा दिया है जहाँ हर काम के लिए अलग तरकीब का इस्तेमाल होता है। आजकल किन-किन तरकीबों का इस्तेमाल हो रहा है, इस बारे में कुछ बताने की जरूरत इसलिए नहीं है क्योंकि हमारे अपने इलाकों में भी ऎसे खूब महान-महान लोग विद्यमान हैं जिनका पूरा जीवन ही अभिनय हो गया है। इनके लिए सारे मौसम, सारे रंग और सारा जहाँ अपना है या ऎसा है जिसे अभिनय के जरिये अपना बना लिया जा सकता है। फिर अभिनय की ताकत ही कुछ ऎसी है कि इसके आगे अच्छे-अच्छे शहंशाह भी पस्त हो गए फिर उन आदमियों की जात की तो बात ही क्या है जिसमें बिकने वाले लोग हों, आदमियों की मण्डियां हों और लोग खुशी-खुशी बिक जाने को भी जीवन का गौरव और गर्व समझते हैं। इन सभी प्रकार के अभिनयों को देखें और उस ईश्वर को धन्यवाद दें जिसने अपने मनोरंजन के लिए सहज-सुलभ अवसर प्रदान कर हम पर खूब कृपा करने में कोई कमी नहीं रखी है।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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